साहित्य आजतक 2024 के मंच पर 'बोल कि लब आज़ाद हैं...' सत्र में कविताओं की गहराई और आजादी की भावना पर बात की गई. इस सत्र में कवयित्री जोशना बनर्जी, अनुराधा सिंह, कवि विनय सौरभ और अंकुश कुमार ने अपनी कविताओं से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया. कवियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से न केवल समाज की सच्चाई को उजागर किया, बल्कि स्वतंत्रता, संघर्ष और भावनाओं को नई परिभाषा दी. यह सत्र श्रोताओं/दर्शकों के लिए शब्दों के माध्यम से एक अनोखी यात्रा का अनुभव लेकर आया, जहां हर कविता ने दिलों को छुआ और आजादी के मायनों पर नए सिरे से सोचने को प्रेरित किया.
कवयित्री जोशना बनर्जी ने अपनी कविता 'भात' और प्रेम की भावनाओं को उकेरने वाले काव्य पाठ से सत्र की शुरुआत की. इनके बाद विनय सौरभ ने 'गरीब रिश्तेदार' से जिंदगी के छिपे पहलुओं को सामने रखा, जिसने श्रोताओं को गहराई से प्रभावित किया.
अनुराधा सिंह ने 'ईश्वर नहीं, नींद चाहिए' शीर्षक कविता के जरिए औरतों की अदृश्य पीड़ा और उनके संघर्ष को स्वर दिया. वहीं, अंकुश कुमार ने 'काम में उलझा समय' और 'मां की सहेलियां' शीर्षक वाली कविताओं से श्रोताओं के दिलों को छू लिया. इस सत्र ने दर्शकों को शब्दों के जादू और कविताओं की गहराई का अनूठा अनुभव प्रदान किया.
यहां हर कविता ने जीवन के किसी न किसी पहलू को जीवंत कर दिया और सभी को भीतर तक झकझोर दिया. इस दौरान कवि विनय सौरभ ने कविता सुनाई. उन्होंने गरीब रिश्तेदार शीर्षक से कविता पढ़ी.
गरीब रिश्तेदारों के ताजा हाल हमारे पास नहीं होते
उनका जिक्र हमारी बातचीत में नहीं आता
हम हमेशा जल्दी में होते हैं
हमारी गाड़ियां उनके दरवाजों से गुजर जाती हैं
एक दिन फोन आता है मौसेरे भाई का
पता चलता है मौसी गुजर गई
सालभर से बीमार चल रही थी
कहता है कि दुमका में सभी अस्पतालों में दिखाया
और सरकारी अस्पतालों का तो
हाल जानते ही हो आप
हम उनके किसी दुख में शामिल नहीं होना चाहते
उनकी पीड़ा से हमारा दिल ज्यादा पसीजता नहीं
हमारी संवेदना में कोई पत्ता उनके लिए
बस कुछ ही देर के लिए हिल पाता है.
इसके बाद विनय सौरभ ने एक और कविता का पाठ किया, जिसे सुनकर लोग जिंदगी के फ्लैशबैक में चले गए.
उस शहर में मत जाओ
जहां तुम्हारा बचपन गुजरा
अब वह वैसा नहीं मिलेगा
जिस घर में तुम किराएदार थे
वहां कोई और होगा
तुम उजबक की तरह
खपरैल वाले उस घर के दरवाजे पर खड़े होगे
और कोई तुम्हें पहचान नहीं पाएगा
वह लंबा सा खाली टीला जहां
तुमने जमकर पतंगबाजी की थी
अब वहां अनगिनत घरों की कतारें होंगी
तुम किस किसको बताओगे कि
पैंतीस साल पहले मैं यहां रहता था
वह तालाब पाट दिया गया होगा
जहां तुम नहाए तैरना सीखा
साथ खेलते बच्चे किसी और शहर को चले गए होंगे
और जो होंगे उन्हें कैसे पहचानोगे तुम
जाहिर है तुम अपने स्कूल भी जाओगे
संभव है कि वह किसी बड़ी इमारत के
पीछे छुप गया होगा शहर से चुपचाप गुजर जाओ
यही तुम्हारे हक में अच्छा होगा
अपने आंसुओं को रोको
कोई पुराना सहपाठी न कोई पुराना
पेड़ मिलेगा विनय सौरभ
बड़ा चौक पर दोस्त के पिता की नाश्ते की
उस छोटी सी दुकान में तो जाओगे
पर क्या वह मिलेगी
कोयले की आग से धुआंती छतें
और समोसे की वह ख़ुशबू कहीं
दर्ज कर लो पर उधर मत जाओ
बड़ा चौक अब बहुत बदल गया है
जीवन टॉकीज बंद हो चुका है
जहां तुमने अपने जीवन की पहली फिल्म मुकद्दर का सिकंदर देखी
तुम्हें मंदिर से कुछ खास लगाव तो न था
तुम कालीबाड़ी क्यों जाना चाहते हो
उस चौक पर अब तृप्ति नाम का कोई रेस्तरा नहीं है
मकतपुर चौक पर सब्जियां आज भी मिलती हैं
और रंजीत स्टूडियो कब का बंद हो चुका
डोमा साव के मिठाइयों की दुकान है
पर उसकी नमकीन का स्वाद क्या वैसा ही होगा
मोती पिक्चर पैलेस के आगे अब चाट के ठेले नहीं लगते
फिल्मी गानों की किताबें नहीं बिकतीं
अब कोई टिकट ब्लैक नहीं होता
अब वह सिनेमाघर बदहाल और बदरंग हो चुका है
उसे देखकर तकलीफ़ से भर जाओगे
जहां स्कूल से भागकर नून शो की
कई फिल्में देखने की याद बाकी है
पिता के दफ्तर की याद तो होगी
कचहरी के पास वहां भी जाओगे
पर वह इमारत न मिलेगी
नाहक ही परेशान हो जाओगे तुम
उस शहर में मत जाना
याद करना कि वह एक बेहतरीन समय था तुम्हारा
जहां दीवारों पर लगने वाले फिल्मी पोस्टरों की
तुमने अपनी किताबों कॉपियों पर जिल्दें चढ़ाईं
इस तरह से तुम्हें अपनी भाई बहन भी याद आएंगे
इस तरह पिता खयालों में आएंगे
तब शहर के किताब की दुकानें भी याद आएंगी
रहमान दर्जी की याद आएगी
फुटपाथ पर लगने वाली चप्पल की अनगिनत दुकानें
और बाटा में पहली बार खरीदा गया स्कूल का जूता याद आएगा
स्कूल के दिनों का वह स्वेटर पीछा करेगा
जो दिवंगत बहन ने पहली बार तुम्हारे लिए बनाया
उस शहर में मत जाना
इस तरह से तुम दुख के दरिया में डूबोगे
तुम लौटोगे तुम्हारी पुरानी बातें कौन सुनेगा
अब तो वह मां भी नहीं रही जो बात बात में कहती थी
गिरिडीह बहुत अच्छा शहर था...
इनके बाद कवयित्री अनुराधा सिंह ने अपनी कविताओं का पाठ किया. इनका पहला काव्य संग्रह 'ईश्वर नहीं नींद चाहिए' है. उन्होंने कहा- ईश्रर नहीं नींद चाहिए
औरतों को ईश्वर नहीं
आशिक नहीं
रूखे फीके लोग चाहिए आसपास
जो लेटते ही बत्ती बुझा दें अनायास
चादर ओढ़ लें सिर तक
नाक बजाने लगें तुरंत
नजदीक मत जाना
बसों ट्रामों और कुर्सियों में बैठी औरतों के
उन्हें तुम्हारी नहीं
नींद की जरूरत है
उनकी नींद टूट गई है सृष्टि के आरंभ से
कंदराओं और अट्टालिकाओं में जाग रही हैं वे
कि उनकी आंख लगते ही
पुरुष शिकार न हो जाएं
बनैले पशुओं इंसानी घातों के
वे जूझती रहीं यौवन में नींद बुढ़ापे में अनिद्रा से
नींद ही वह कीमत है
जो उन्होंने प्रेम परिणय संतति
कुछ भी पाने के एवज में चुकाई
सोने दो उन्हें पीठ फेर आज की रात
आज साथ भर दुलार से पहले
आंख भर नींद चाहिए उन्हें.
इनके बाद कवि अंकुश कुमार की पहली किताब आदमी बनने के क्रम में प्रकाशित हो चुकी है. अंकुश ने 'काम में उलझा समय' शीर्षक के कविता सुनाई. इसके बाद ये कविता भी पढ़ी, जिसे कार्यक्रम में मौजूद ऑडियंस ने खूब पसंद किया.
गलतियां बढ़ती गईं जीवन में
गलतियों के कारण भी
अपराधबोध आता रहा साथ साथ
जहां नहीं थी जरूरत सच बोलने की
वहां झूठ बोलते हुए झेंपता रहा
चुभन दो टूक सी उठती रही
जीना होता रहा मुहाल
परेशानी जिसे एकवचन बनकर रहना था जीवन में
परेशानियां बनकर बहुवचन हो गईं
और दर्द की सीमा नापना
जिस दिन कठिन हो चला
उस दिन बड़ी खुशी भी शोक के समान टकराई
मैं इतना लूटा पीटा गया हूं
जिसकी कोई सीमा नहीं
सीमा होती तो आश्वस्त करती
अब और नहीं सहना
पर यही तो लिखा था जीवन में
दुख के साथ जीना.
इसके बाद अंकुश की ये कविता भी देखिये...
मैं अपने दोस्तों से मिलकर खुश होता हूं
और उनके साथ करता हूं बात घंटों तक फोन पर
पिताजी के साथ उनके दोस्त आते हैं कई बार दफ्तर से
गली मोहल्ले के यार दोस्त
कॉलेज के दिनों के दोस्त भी अक्सर आते रहे हैं घर
उन सबसे मिलते हुए मैं अक्सर
मां की सहेलियों के बारे में सोचता हूं
कहां होंगी वे सहेलियां जिनके संग मां जाती होगी स्कूल
खेला होगा खो खो और स्टापू
किसी फिल्मी हीरो के सपने जिनके संग देखे होंगे
गली मोहल्ले की ज़्यादातर औरतें
मां को दीदी बोलती हैं
क्योंकि मां उन सबसे बड़ी है उम्र में
मैं तब सोचता हूं जब मां की सहेलियां
बुलाती होंगी मां को नाम से
तब कैसे दौड़ पड़ती होगी वह
लेकिन न जाने कब से वह तरस गई है
किसी पुराने परिचित से
अपना नाम सुनने को
मैं ये सब सोचता हूं हर बार मां के लिए
और उदास होता हूं
मां हालांकि उस उदासी से उबर गई है
जब वह उन्नीस बरस की आयु में
अपनी सहेलियों से दूर हो गई थी
राखी पर मामा के घर जाते समय
मां हर बार लौट आती है अगले ही दिन
और तब मुझे बस यही लगता है कि
हर बार मांओं को ही क्यों लौटना पड़ता है
इस मर्यादा के साथ कि
जाओ अब वही है तुम्हारा घर.
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