Sahitya AajTak 2024: 'मेरे महबूब के घर रंग है री...' जब विद्या शाह ने छेड़ा तराना, तालियों से गूंज उठी महफिल

दिल्ली के मेजर ध्यानचंद स्टेडियम में साहित्य आजतक की मंच पर दूसरे दिन शनिवार की शाम शास्त्रीय संगीत गायिका विद्या शाह ने अमीर खुसरो की शायरी और गजलों को अपनी सुरीली आवाज में पेश किया.

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विद्या शाह की प्रस्तुति विद्या शाह की प्रस्तुति

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 23 नवंबर 2024,
  • अपडेटेड 8:28 PM IST

Sahitya AajTak New Delhi 2024: गीत-संगीत और साहित्य के महाकुंभ साहित्य आजतक 2024 के दूसरे दिन शनिवार की शाम  एक म्यूजिकल सत्र आयोजित हुआ, जिसका नाम था महफिल लव, लॉस एंड लांगिंग- द डेल्ही पोएट्स. इसमें दिल्ली के उन शायरों और गजलकारों की क्रिएशंस को गायिका विद्या शाह ने अपनी आवाज दी, तो उनकी टीम के चंद्रशेखर ने अमीर खुसरो और उनके समय के अन्य कवियों की अनकही कहानियां पेश की.  

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मंच पर आने के साथ विद्या ने शुरुआत कुछ यूं किया. उन्होंने कहा कि आज की शाम इस शहर के नाम. दिल्ली में हम सब लोग रहते तो हैं. दिल्ली हमें प्यारी भी है. कभी-कभी नाराज भी हो जाते हैं, जैसे ट्रैफिक वैगेरह- वैगेरह. मैं आज दिल्ली के इतिहास को संगीत और कहानी के माध्यम से पेश करने की कोशिश करूंगी. 

विद्या ने कार्यक्रम की शुरुआत अमीर खुसरो की एक गीत से की. अपने सुरीले गले और साज के साथ उन्होंने खुसरो के गीत को बेहद ही खूबसूरत आवाज के साथ पेश किया.

खुसरो रैन सुहाग की जो जागी पी के संग...
तन मोरा मन पीहू का, सो दो भये एक रंग.. 

आज रंग है री मा रंग है री... मेरे महबूब के घर रंग है री...

जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर सीखी जाती है जो जबान
विद्या के गीत खत्म होते ही चंद्रशेखर ने  उन दिनों की बात छेड़ी जब हिंदी जबान बन रही थी. उन्होंने कहा कि  18वीं शताब्दी में जब दिल्ली के काफी शायर दिल्ली के बाहर जा चुके थे. उनमें से एक थे मीर तकी मीर. उन्होंने लखनऊ की बोली के बारे तंज करत हुए कहा - जबान तो वो है, जो जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर सीखी जाती है, तुम क्या बोलोगे. 

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क्या दिल्ली की जबान है लश्करी ?
आगे चंद्रशेखर ने कहा कि 1802 की बात है, एक जनाब थे मीर अहमद, उन्होंने कलकत्ते में एक किताब छापी, जिसका नाम था बाग-ओ- बहार. यह किताब खुसरो के लिखे हुए किस्सों का उर्दू में अनुवाद था. आम बोलचाल वाली उर्दू में ये किताब थी. इस किताब के प्रीफेस में एक पंक्ति लिखी थी, दिल्ली की जबान लश्करी है. यानी एक बाजार में बनी भाषा है. एक जगह से एक जबान आई, दूसरे जगह से दूसरी और दोनों मिलकर तीसरी भाषा बन गई.

'भाषाएं एक दूसरे पर छाप छोड़ती है, नई जबान नहीं बनाती'
लिंग्विस्ट का कहना है कि दो जबान मिलकर एक नई जबान नहीं बनाती है. दरअसल, एक जबान होती है, उस पर दूसरे जबान का इन्फ्ल्यूंस रहता है. अभी मुझे कुछ लोगों ने बताया कि बांग्ला का जो छठवां हिस्सा है वो अरबी, फारसी और उर्दू से बना हुआ है. मैं केरल का रहना वाला हूं, वहां कुछ दिनों पहले तक हुजूर कचहरी कही जाती थी. 

जब लखनऊ वालों ने कहा दिल्ली की जबान में अदब कहां है...
अब मीर अहमद के उसी किताब के उस पंक्ति को लेकर लखनऊ वाले ताव में आ गए और बोले हम तो पहले ही कहते थे दिल्ली की जबान लश्करी है. इसमें अदब कहां है, नफासत कहां हैं. भाई बात दिल्ली के जबान की नहीं हो रही थी, बात दिल्ली के हिंदी की हो रही थी, जिसे आज आपलोग उर्दू के नाम से जानते हैं. जब मीर दिल्ली में थे, तो उस जबान को उर्दू नहीं कहा जाता था, क्यों. जब दिल्ली शाहजहां ने बसाई, तो दिल्ली किले के इर्द-गिर्द बसी. किले को उर्दू ए मोहल्ला ए शाहजहांनाबाद कहा जाता था. इस वजह से  किले के अंदर जो जबान बोली जाती थी, उसे जबान ए मोहल्ला ए शाहजहांनाबाद कहते थे और वो जबान फारसी थी.

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कैसे खुसरो पहुंचे दिल्ली
फिर एक रोजमर्रा की जवान थी जो सड़कों पर बोली जाती थी. उसे लोग हिंदी, हिंदवी, देहलवी कहते थे. 13वीं शताब्दी के बीच एटा के पास से एक बच्चा आता है, उसे निजामुद्दीन औलिया के पास ले जाया जाता है. वो बच्चा कहता है कि मैं उनका मुरीद बन जाऊंगा. अगर वो मेरे सवाल का जवाब देते हैं. इसके बाद से वो उनके मुरीद बन गए. इस वजह से खुसरो हमेशा इश्क हकीकी के बारे में बात करते थे.
  
विद्या ने कहा कि अमीर खुसरो जिस थीम को लेकर चलते थे, उसमें एक नारीवादी एंगल होता था. अब अगली चीज इश्क के बारे में जहां वो एक गीत एक महिला के रूप में पेश कर रहे हैं.

घर नारी गवारी चाहे जो कहे...  
मैं निजाम से नैना लगाई रे...

इन्होंने जो तराना गाया ये थी दिल्ली की जबान. इस जबान में जब शायरी बननी शुरू हुई तो ये जबान आम लोगों की थी, इसलिए इसमें सभी शायरी करने लग गए. अमीर, गरीब, उमरा, महिला सभी इस जबान में शायर बन गए. इन शायरी में आम बोलचाल की जबान के साथ आम लोगों के सारे इमोशंस भी आने लग गए. ये जबान धीरे-धीरे दक्कन चली गई और वहां के हिसाब से ढल गई. दक्कन में  कुली कुतुब शाह, सीराज औरंगाबादी, वली औरंगाबादी और भी कई शायर हुए. बाद में जब ये लोग दिल्ली पहुंचे तो दिल्ली के लोगों को हैरानी हुई कि बिना फारसी के हमारी जबान में भी ऐसी शायरी की जा सकती है. 

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इसी बीच विद्या ने कुली कुतुब शाह की एक शायरी को आवाज देते हुए बेहत सुरीली आवाज में पेशकश दी. 

पियाबाज प्याला पिया जाए ना... पियाबाज वक्तिल जिया जाए ना...

कहा जाता है कि अमिर खुसरो की जिंदगी में कुछ ऐसी ट्रेजडी हुई, जिस वजह से वह शायरी लिखने लगे. वह पहले ऐसे शायर थे, जिन्होंने खुद अपनी ऑटोबायोग्राफी लिखी थी. 

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