'शहीद-ए-आज़मः सरदार भगतसिंह' खंड काव्य से तीन कविताएं

क्रांतिकारी के जीवन-दर्शन, उनके मूल्य और उनकी समृद्ध वैचारिकता को आज के युवा वर्ग के सम्मुख लाने के लिए डॉ सुधीर आज़ाद ने 'शहीद-ए-आज़मः सरदार भगतसिंह' खंड काव्य लिखा है. उसी से क्रांतिगीत, जलियांवाला बाग और महाप्रयाण कविता पढ़िए

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डॉ सुधीर आज़ाद का खंड-काव्य 'शहीद-ए-आज़मः सरदार भगतसिंह' डॉ सुधीर आज़ाद का खंड-काव्य 'शहीद-ए-आज़मः सरदार भगतसिंह'

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 23 मार्च 2023,
  • अपडेटेड 6:06 PM IST

महान शहीद भगत सिंह के क्रांतिकारी जीवन ने लगातार हम भारतीयों को आंदोलित और प्रेरित किया है. नेताजी सुभाष चंद्र बोस पर शोध करने वाले डॉ सुधीर आज़ाद का मानना है कि कोई भी देश अपने वृहद और व्यापक सत्य को भुलाकर महानता नहीं पा सकता है. इतिहास और शिक्षा की अनदेखी नहीं होनी चाहिए.
नई पीढ़ी में उपजी एक आत्मकेंद्रीयता और स्वत्व की विशेष उदासीनता की कोफ़्त ने उन्हें अहसास दिलाया कि शहीद भगतसिंह और सुभाषचन्द्र बोस जैसे चरित्रों को नई पीढ़ी के सामने लाना चाहिए.         
इसीलिए उन्होंने 'शहीद-ए-आज़मः सरदार भगतसिंह' नामक खंड-काव्य लिखा. उनके शब्दों में इसका उद्देश्य महान क्रांतिकारी के जीवन-दर्शन, उनके मूल्य और उनकी समृद्ध वैचारिकता  को आज के युवा वर्ग के सम्मुख लाना है. इस खंड काव्य में 'प्रार्थना, क्रांति भूमि, क्रांति भाव, जलियांवाला बाग, क्रांतिबोध, क्रांतिकर्म- पूर्वार्ध, क्रांतिकर्म उत्तरार्ध, क्रांति-चिंतन और समाजवाद, क्रांति चेतना, महाप्रयाण और आखिरी ख़्वाहिश' शीर्षक वाले खंड आज़ाद की रचना प्रक्रिया के साथ सरदार भगत सिंह के जीवन को कविता के माध्यम से उजागर करते हैं. 
मार्च 23 को क्रांतिकारी भगत सिंह के शहीदी दिवस पर पढ़िए 'शहीद-ए-आज़मः सरदार भगतसिंह' की कविताएं-

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क्रांतिगीत
तू जी रहा है तो ज़िंदा हो क्या ज़िंदगी गुज़ारना...
आवाज़ उठा
विरोध कर
झुका नहीं
उठा दे सर,
वो बोल जो सही है
ज़ुबाँ तेरी है
किराये की नहीं है.

कटा दे सर
झुकाना मत
ये कर्त्तव्य-बोध
भुलाना मत.

यही ध्येय
यही शपथ
न शीश हो
माँ का नत.

मृत्यु को सर पे बाँध ले
अंतिम चरण भी लांघ ले
अनुभूत होगा प्राप्ति-सुख
जो है वो सब ही वार ले.

मौत हो तो चूमना
गले लगा के झूमना
न पीड़ा हो, न शोक हो
जो हो तो जयघोष हो.

जयघोष हो मातृभूमि  का
उद्घोष हो मातृभूमि का!

तू जी रहा है तो ज़िंदा हो क्या ज़िंदगी गुजारना.

जलियांवाला बाग
एक गोली पिता का सीना फाड़ गयी,
अंगुली थामे बच्चे का बचपन मार गयी.
नन्हीं श्वासों के गालों पर चांटा मारा, रुला दिया,
एक गोली ने बच्चे से माँ का दामन छुड़ा दिया.
कई गोलियाँ साथ वहाँ उसका देने लगीं जमकर,
एक गोली से वृद्धा की साँसें जहाँ लड़ रहीं थीं डटकर.
अकेला दीया एक अँधेरे घर तब लील गयी,
एक गोली जब इकलौते बेटे का मस्तक चीर गयी.
एक गर्भवती की कोख उसकी साँसों के साथ उजड़ गयी,
एक गोली जो पेट में घुसी और वहीँ पर धँस गयी.
झुकी कमर थी पर मस्तक गर्व से तना गयी,
एक गोली बूढ़े बाबा को निशाना बना गयी.
एक गोली लगी तुतलाते बच्चे की बोली को,
फिर भी किन्तु शर्म न आई अंग्रेजी टोली को.
हों बाल-वृद्ध, माता-बहन या जवान हो,
हर गोली लग रही थी वहाँ हिन्दुस्तान को.

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महाप्रयाण
मुमूर्षा की मेरी अभिलाषा चिरसीम
हमारा ध्येयसिद्ध
और संघर्ष अमर कर देगी.

'एक क्रन्तिकारी का मिलन है
दूजे से,
बस चलता हूँ.'
- कहकर किताब लेनिन की रखकर,
फांसी के फंदे की ओर बढ़ा फिर मतवाला.

"अब मैं देख रहा हूँ,
अपने ईश्वर को
उसके दर्शनीय रूप में,
फाँसी के तख़्ते पर."
 
फाँसी के तख़्ते पर  कुछ यूँ चढ़ा,
जैसे घोड़ी चढ़े कोई दूल्हा.
उन्मुक्त-भाव, ऊँचा मस्तक
तनी ग्रीवा,
आत्मीय हंसी.
पहली बार देख रहा था विश्व.
आह !!!
 
महासौंदर्य यह,
आनंद असीम
मृत्यु क्या इतनी सुन्दर,
ऐसी भी मोहक होती है?
क्या इतना सुख भी देती है यह ,
क्या इतनी सार्थक भी होती है?
***
पुस्तकः 'शहीद-ए-आज़मः सरदार भगतसिंह'
रचनाकारः डॉ सुधीर आज़ाद
विधाः कविता
भाषाः हिंदी
प्रकाशकः श्रीसाहित्य प्रकाशन
मूल्यः 200 रुपए
पृष्ठ संख्याः 86

 

 

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