काले खोटे इनके धंधे, ऐ मालिक !
कहां गए सब अच्छे बंदे, ऐ मालिक ?
यह खनकता हुआ शेर अज़ीज़ अंसारी का है जो उर्दू शायरी के एक बड़े हस्ताक्षर हैं और इंदौर में रहते हैं. यों तो इंदौर शायरी के क्षेत्र में राहत इंदौरी के नाम से जाना जाता है. राहत का लहजा बेशक कुछ खास है. पर हाल ही में मेरी निगाह इंदौर के ही शायर अज़ीज़ अंसारी के हिंदी में आए शायरी के कलेक्शन -हवा जोश में है- पर गयी तो लगा इंदौर की आबोहवा में ही यह खूबी है कि वहां राहत के पहले ही अज़ीज़ अंसारी जैसे शायर पैदा हुए हैं, जिनकी शायरी भी कम राहत देने वाली नहीं है.
राहत से आठ साल बड़े और छिहत्तर के हो चले अज़ीज़ अंसारी अरसे से आकाशवाणी में विभिन्न पदों पर कार्य करते रहे. नौकरी के आखिरी सालों में इंदौर आकाशवाणी से 2002 में केंद्र निदेशक पद से सेवानिवृत्त हुए तथा ग़ज़लों, गीतों, नात, भजन आदि विधाओं में अपना हाथ रवां करते रहे. अब तक उनकी ग़ज़लों के कई संग्रह साया हो चुके हैं किन्तु संकोचवश अपने लिखे को देर से छपाने के कारण वे कहीं नेपथ्य में रहे.
अज़ीज़ अंसारी की ग़ज़लों में ऐसे गहरे आब्जकर्वेशन्स हैं जो हमें जीवन की पेचीदगियों से वाबस्ता कराते हैं. कैसे दुनिया में चंद लोग बेईमानियों से अमीर बनते गए तथा पढ़ने-लिखने वाली कौम के हाथों में तलवारें आ गयीं. उनकी ग़जलें इस बात को अपने अंदाज में कहती हैं-
कल तलक तो नंगे भूखे थे सभी इस गांव में
अब ये कोठी और ये कारें कहां से आ गयीं?
इनको पढ़ने हमने भेजा था कलम देकर 'अज़ीज़'
इनके हाथों में ये तलवारें कहां से आ गयीं ?
अज़ीज़ अंसारी की शायरी की निगाह जीवन की उन सारी बुराइयों पर है, जिस पर मामूली आदमी की नज़र नहीं जाती. सियासत ने गए सालों में मुल्क को हिंदू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद के नाम पर इतना तबाह किया है कि देश की बुनियादी तरक्की के स्थान पर हमने विदेशी तकनीकें आयात की हैं तथा हम इलेक्ट्रानिक चीजें खपाने वाले देश में बदलते गए. विकसित देशों की पूंजी ने हमें निरंतर कमजोर तथा तकनीक के मामले में पराश्रयी बनाया है. पारिस्थितिकी के मामले में हमने जितने समझौते किए हैं, वे हमारे मुल्क की बेहतरी के रास्ते में अवरोधक साबित हुए हैं. अंसारी साब की एक और ग़ज़ल के चंद, अशआर मुलाहिजा हैं-
काले खोटे इनके धंधे, ऐ मालिक
कहां गए सब अच्छे बंदे, ऐ मालिक
इनकी इबादत, इनकी अकीदत दिखलावा
मंदिर मस्जिद इनके धंधे, ऐ मालिक
रूठ गयी हरियाली मेरे आंगन से
बैठे है खामोश परिंदे, ऐ मालिक
अज़ीज़ अंसारी की शायरी इंसानियत के जज़्बे से भरी है. उसमें जीवन की धूप छांव की परछाइयां हैं, यथार्थ की मार्मिक तहरीरें हैं. बोलचाल का लहजा उनकी शायरी को जीवंत बनाता है, तो जीवनानुभव उनकी शायरी में विश्विसनीयता का रंग भरते हैं, वे इंसान को जीवन में फैली विसंगतियों की याद दिलाते हैं तो उसके उपचार का रास्ता भी. बड़ी बहर की गजलें उनके यहां हैं तो छोटी बहर में भी उन्होंने खूब लिखा है. जहां वे इस अहसास को जीते हैं कि-
सहमा-सहमा अपना जीवन चारो ओर
सुलग रहा है जैसे र्इंधन चारो ओर
वहीं इस उल्लास को भी महसूस करते हैं-
फैल गयी है उसके आने से खुशबू
महक रहा हो जैसे चंदन चारो ओर.
भले ही नामचीन शायरों में उनकी नाम शुमार नहीं हो पाया हो पर उनकी शायरी उर्दू की जदीद शायरी के स्थापत्य से रची बसी है. उनके कहने का अंदाज अपना है. किस सलीके से वे यह बात कहते हैं-
सारे ग़मों का एक ठिकाना हमारा दिल
सारे जहां में अपना ठिकाना कहीं नहीं
धरती है मां तो मां ही मिटाएगी भूख भी
कहता है कौन धरती पर दाना कहीं नहीं
ज़ख्मों का अपने पास ज़खीरा जो है 'अज़ीज़'
ऐसा मिलेगा तुमको खज़ाना कहीं नहीं.
'हवा जोश में है' संग्रह अज़ीज़ अंसारी को हिंदी पाठकों की जमात में लोकप्रिय बनाएगा, इसमें संदेह नहीं. वे किस तरह से अपनी शायरी के जरिए बेहतर जिन्दगी की सलाहियत पेश करते हैं वह उनकी तमाम ग़ज़लों में कहीं न कहीं नजर आ ही जाता है. मैं-मैं करती इस दुनिया में वे किस तरह हम के हामी दिखते हैं, उनकी ही ग़ज़ल का एक शेर देखें-
जहां में उसकी इज़्ज़त कम नहीं है
लबों पे जिसके मैं है, हम नहीं है.
जिस तरह से हिंदी में उर्दू शायरी का दखल मुसल्सल बढ़ रहा है, हिंदी की अदबी दुनिया भी नए लहजे से मालामाल हो रही है, इसमें संशय नहीं. अजी़ज़ अंसारी की शायरी ग़ज़लों की नई रूह, नए स्थापत्य से हमें बावस्ता कराती है.
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पुस्तकः हवा जोश में है
रचनाकारः अज़ीज़ अंसारी
विधाः ग़ज़ल
प्रकाशकः यश पब्लिकेशंस
मूल्यः रुपए 250/
पृष्ठ संख्याः 112
# डॉ ओम निश्चल हिंदी के सुपरिचित कवि-गीतकार, आलोचक एवं भाषाविद हैं. उनसे जी-1/506 ए, उत्तम नगर नई दिल्ली- 110059, dromnishchal@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
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