जश्न-ए-आजादी के 75 साल: स्वतंत्र भारत और साहित्यकारों के स्वप्न

आजादी के अमृत महोत्‍सव को लेकर पूरे देश में दुंदुभि बज रही है. पर आजादी के नाम पर जिस प्रजातंत्र का झुनझुना बजाया गया, उस आजादी को लेखकों, कवियों ने क्यों सहजता से नहीं स्वीकारा? साहित्यकारों के आजादी से मोहभंग पर डॉ ओम निश्चल का सुचिंतित आलेख

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स्वतंत्रता की शान, हर भारतीय का अभिमान, गगन में लहराता तिरंगा स्वतंत्रता की शान, हर भारतीय का अभिमान, गगन में लहराता तिरंगा

ओम निश्चल

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  • 15 अगस्त 2021,
  • अपडेटेड 4:44 PM IST

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक लंबा इतिहास है. व्यवस्थित देशव्यापी आंदोलन की बात करें तो यह 1857-1947 तक आता है. मुगलों के लंबे शासन के बाद भारत पर ब्रिटिश आधिपत्य रहा. इसलिए स्वतंत्रता के लिए की गयी लड़ाई ब्रिटिश उपनिवेश के विरुद्ध की गयी लड़ाई थी. सन 1600 ईस्वी् में कुछ अंग्रेज व्यापारियों ने इंग्लैंड की महारानी से भारत में व्यापार करने की अनुमति मांगी थी. इसके लिए व्यापारियों ने ईस्ट‍ इंडिया कंपनी बनाई. कुछ पुर्तगाली यात्री उससे पूर्व भारत पहुंच चुके थे सो उस मार्ग का अनुसरण कर अंग्रेज व्यापारी भी भारत पहुंचे.

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भारत में तब जहांगीर का शासनकाल था. अंग्रेजों का यह भी पता था कि मुगल शासकों के खजाने सोने-चांदी से भरे हैं. पहले तो अंग्रेज व्यापारियों ने जहांगीर की मदद से पुर्तगालियों को किनारे लगाया फिर कलकत्ते में भी व्यापार का अधिकार हासिल कर लिया. इस तरह भारत में अंग्रेजों ने न केवल व्यापार का बल्कि शासन करने के अपने मंसूबे को अंजाम देना शुरू किया तथा सोने की चिड़िया कहे जाने वाले इस देश के प्राकृतिक भौतिक संसाधनों को लूटना खसोटना शुरू किया.   
1664 में यहां फ्रांसीसियों के एक व्यापारिक दल ने भी अपने बेड़े भेजे और भारत के कुछ हिस्से पर अपना कब्जा जमाया. अंग्रेजों ने न केवल मुगलों को बल्कि देशी राजे रजवाड़ों को भी प्रलोभन देकर उन्हें अपने वश में किया और पराधीनता की बेड़ियों में भारत जकड़ता गया. इस तरह अंग्रेजों ने न केवल भारत में शासन किया, यहां की संस्कृंति को नष्ट भ्रष्ट किया बल्कि  धीरे-धीरे यहां के हिंदू मुसलमानों की गंगा-जमुनी तहजीब को छिन्न-भिन्न करते हुए दोनों को आपस में बांटना शुरू किया. अंग्रेजों के जुल्मो-सितम की कहानी बहुत दारुण है. धीरे-धीरे भारत में स्वाधीनता की चेतना पनपी और राष्ट्रवादियों ने अपने देश को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाने के लिए तमाम स्तरों पर संघर्ष प्रारंभ किया.
उस दौर में जब भारत में अपने देशी हथियार भी बहुत अच्छी कोटि के न थे. अंग्रेजों के पास तोपों से सुव्यवस्थित सैन्य दस्ते थे. अंग्रेज कैसे भारतीय स्वतंत्रता संग्रामियों पर कोड़े बरसाते थे, कैसे जलियांवालां बाग में हजारों नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया. कैसे तमाम अहिंसक लोगों पर जुल्म ढाए जाते थे, कैसे आजादी के सिपाहियों को सेल्युलर जेल में बंद किया गया, ये सब गुलामी के दौर के वे खौफनाक मंजर हैं, जिनकी याद करते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं.
1857 में आजादी की लड़ाई की शुरुआत हुई और भारतीय राष्ट्रवाद का उदय भी. आजादी की लड़ाई में कांग्रेस की भी निर्णायक भूमिका है, जिसकी स्थापना 1885 में हुई और स्वाधीनता आंदोलन का अभियान भी तभी से अग्रसर हुआ. भारतीय बुद्धिजीवी इस संघर्ष के अगुवा बने. कुछ उदारवादी इसमें थे तो धीरे-धीरे कुछ उग्र और अतिवादी विचारों के लोग भी शामिल होते गए. एक तरफ महात्मा गांधी अफ्रीका से लौट कर देश के आजादी के लिए समर्पित हो चुके थे दूसरी तरफ सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिंद फौज ने मोर्चा सम्हाला. राष्ट्रवादी नेताओं का एक बड़ा समूह इस यज्ञ में आहुति के लिए सन्नद्ध हुआ.
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आजादी के लिए लेखकों का प्रतिदान
आजादी की लड़ाई कई मोर्चो पर चल रही थी. राजनीतिक रूप से, संगठित सैन्य शक्ति से तो एक दूसरी तरफ देश के साहित्यकार देशवासियों में राष्ट्रप्रेम का जज्बा पैदा कर रहे थे. वे देश के नायकों को राष्ट्र की स्वाधीनता के लिए अपनी लेखनी से उद्दीप्त कर रहे थे. यह प्रभात फेरियों का दौर था जब छोटे-छोटे जुलूसों में राष्ट्रप्रेम के दीवाने गाते और जन जागरण पैदा करते हुए चल रहे थे. आजादी के तराने हर भारतीय के मन में गूंज रहे थे. गांधी का चरखा राष्ट्र के स्वाभिमान का प्रतीक बन गया था. अंग्रेजी वस्त्रों की होली जलाई जा रही थी. नमक सत्याग्रह व अंग्रेजों भारत छोड़ो के नारे तेज हो रहे थे. तिलक कह रहे थे, स्वाधीनता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है तो भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी के पक्ष में अलख जगा रहे थे: निज भाषा उन्नति अहै सब भाषा को मूल.
भारतेन्दुयुगीन रचनाकारों प्रेमघन, प्रतापनारायण मिश्र, बालमुकुन्द गुप्त, बालकृष्ण भट्ट, बाबू गुलाब राय, हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्रा कुमारी चौहान, काजी नजरुलइस्लाम, सुब्रह्मण्यम भारती, बंकिमचंद्र चटर्जी, रवीन्द्रनाथ टैगोर सब मिल कर स्वाधीनता का एक वातावरण पैदा कर रहे थे. गुलामी की जंजीरों को तोड़ने में पत्रकारिता का भी अहम योगदान रहा. तब साहित्यकारों व पत्रकारों में आज जैसी फांक न थी. पत्रकारिता भी एक राष्ट्रीय मिशन से प्रेरित थी. उदंत मार्तण्ड जैसे साप्ताहिक हिंदी अखबार का प्रकाशन पं. युगलकिशोर शुक्ल के संपादन में कलकत्ता से हुआ. कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी के संपादन में निकले प्रताप, राष्ट्रीय कवि माखनलाल चतुर्वेदी के संपादन में निकले कर्मवीर, कालांकांकर से राजा रामपाल सिंह के द्वारा निकाले गए हिंदोस्थान ने राष्ट्रवादियों का मिल कर आहवान किया. बंगदूत, अमृत बाजार पत्रिका, केसरी, हिेंदू, पायनियर, मराठा, इंडियन मिरर, हरिजन आदि  ब्रिटिश हुकूमत की गलत नीतियों की खुल कर आलोचना करते थे. अकबर इलाहाबादी का यह शेर हर अखबार का अपना मिशन बन गया था: खीचों ने कमानों को, न तलवार निकालो/ जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो. हर अखबार के निशाने पर ईस्ट इंडिया कंपनी की ज्यादतियां थीं. 1857 में ही निकले पयामे आजादी ने आजादी की पहली जंग को धार दी. देश के तमाम हिस्सों से छपने वाले सैकड़ों अखबारों ने इस मुहिम में हिस्सा लिया. पहाड़ में बद्रीदत्त पांडे अल्मोड़ा अखबार से क्रांति का उदघोष कर रहे थे तो गणेश शंकर विद्यार्थी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, बनारसी दास चतुर्वेदी साहित्य‍कारो को स्वा़धीनता संघर्ष से जोड़ रहे थे.
स्वावधीनता संग्राम में भारतेंदु हरिश्चं‍द्र ने एक बड़ी भूमिका निभाई. जहां देश में अनेक मोर्चों पर लोग आजादी के लिए संघर्षरत थे, उन्होंने साहित्य के माध्यम से बड़े साहित्यकारों को इस दिशा में एकजुट किया. प्रेमघन, प्रतापनारायण मिश्र, महावीर प्रसाद द्विेवेदी, प्रसाद, निराला, माखन लाल चतुर्वेदी, राधाकृष्ण दास, पं अंबिकादत्त व्यास, राम नरेश त्रिपाठी, सुभद्रा कुमारी चौहान, बालकृष्ण शर्मा नवीन, नेपाली एवं राष्ट्रकवि दिनकर जैसे कवियों ने अपनी राष्ट्रवादी रचनाओं से स्वाधीनता सेनानियों का पथ प्रशस्त किया. गांधी, सुभाष व नेहरू साहित्यकारों के भी नायक बने. पं. माखनलाल चतुर्वेदी की इन पंक्तियों को भला कौन भूल सकता है: मुझे तोड़ लेना वनमाली उस पथ पर देना तुम फेंक/ मातृभूमि पर शीश नवाने जिस पथ जाएं वीर अनेक. भारतेंन्दु के द्वारा लिखे गए नाटक अंधेर नगरी चौपट राजा और भारत दर्शन के प्रदर्शन ने अंग्रेजी राज की लूट खसोट को जनता में उजागर किया. उन्होंने भारत दुर्दशा कविताओं व नाटकों में दारुण चित्रण किया. प्रसाद की वाणी प्रबुद्ध शुद्ध भारती में स्वयंप्रभा समुज्‍ज्‍वला स्वतंत्रता की पुकार लगा रही थी. श्यामलाल गुप्त पार्षद एक छोटे से कस्बे में बैठ कर विजय विश्व‍ तिरंगा प्याररा झंडा ऊँचा रहे हमारा का ख्वाब देख रहे थे. बेतिया से गोपाल सिंह नेपाली की आवाज गूंज रही थी : मेरा धन है स्वाधीन कलम. सुराजियों की एक नई टोली आजादी की सुबह की टोह में निकल पड़ी थी.
स्वतंत्रता, सुराज, समानता का जो सपना हमारे लेखकों, कवियों के मन में था उसे पं. नरेंद्र शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, नेपाली, माधव शुक्ल, गयाप्रसाद शुक्ल सनेही, सियारामशरण गुप्‍त व सोहनलाल द्विवेदी अपनी रचनाओं में रूपायित कर रहे थे. नवीन की रचनाएं ओज के प्रवाह को गति देने वाली थीं तो सुभद्राकुमारी चौहान की विख्यात कविता 'खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी' सैनिकों में जोश भरने वाली थी. झांसी की रानी के शौर्य का चित्रण ऐतिहासिक उपन्यासकार वृंदावन लाल वर्मा ने भी अपने उपन्यास में भी किया है. जयशंकर प्रसाद के नाटक चंद्रगुप्त व स्कंद गुप्त में देशप्रेम की अनुगूंजें हैं तो उनके काव्य में गुलामी की कारा को तोड़ने का आह्वान मिलता है. वे अमर्त्य वीर पुत्रों को दृढ़ प्रतिज्ञ होकर आगे बढ़ने का आह्वान कर रहे थे.  1917 की बोल्शेविक क्रांति ने हिंदुस्‍तानी लेखकों में प्रगतिशीलता का जज्बा पैदा किया. प्रेमचंद इसी दौर की उपज हैं. उन्होंने कहानियों और उपन्यासों के माध्यम में जहां भारत के सामंतवाद और ब्रिटिश नौकरशाही की आलोचना की वहीं गुलामी व ब्रिटिश शोषण के अनेक रुपों को उजागर किया. यशपाल व भगवती चरण वर्मा के कथा साहित्य में भी स्वाधीनता की आंच दिखती है. धनपत राय का लिखा सोजेवतन तो अंग्रेजी शासन में जब्त हुआ. चांद का फांसी अंक भी जब्ती का शिकार हुआ. उन जैसे लेखकों व गणेशशंकर विद्यार्थी जैसे पत्रकारों पर अंग्रेजों की निगाह रहती थी. इसलिए इस खुफियागिरी से आजिज आकर धनपत राय ने प्रेमचंद नाम से लिखना आरंभ किया तथा बाद में इसी नाम से प्रसिद्ध हुए.
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आजादी मिली पर आत्मगौरव नहीं
हिंदी में लिखे गए साहित्य को हम युद्ध साहित्य तो नहीं कह सकते पर राष्ट्र के नागरिकों में स्वाधीनता व राष्ट्र के प्रति प्रेम जगाने के लिए हिंदी के कवियों ने प्रभूत योगदान दिया है. कवियों ने अपनी रचनाओं में भारत विजय का सपना देखा है. निराला लिख रहे थे: भारती जय विजय करे, तो हितैषी कह रहे थे, शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले. वतन पे मरने वालों का यही नामोनिशां होगा. बालकृष्ण शर्मा नवीन कवियों से क्रांति का आहवान कर रहे थे तो बंगाल में बंकिम चंद्र चटजी व दक्षिण में सुब्रह्मण्यम भारती वंदे मातरम् का गान कर रहे थे. कुल मिला कर भारत में स्वाधीनता, स्वराज और देश प्रेम की आंधी सी चल रही थी. आजादी के बाद नेताओं व लेखकों का सपना था कि अपना देश होगा, अपना शासन होगा, अपनी भाषा होगी, देश हर मामले में तरक्की करेगा पर आजादी के एक दशक के भीतर ही लेखकों में मोहभंग भी पैदा हुआ. जनता ठगी हुई महसूस करने लगी थी. गिरिजा कुमार माथुर ने लिखा था, आज जीत की रात पहरुए सावधान रहना. आजादी का लाभ उठाने वाली एक नई पीढ़ी तैयार हो रही थी जिसे देख क्षोभ से धूमिल ने सवाल दागा था: आजादी क्या तीन थके हुए रंगों का नाम है जिसे एक पहिया ढोता है या इसका कोई और मतलब होता है तो दुष्यंत कुमार इस पीड़ा से उद्विग्न होकर कह रहे थे: यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां / हमें मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा. आज आजादी को 74 बरस हो चुके हैं. पर लगता है यह कैसी आजादी है जहां जाति वर्ण धर्म के नाम पर अभी मनुष्य जाति बंटी है, जहां मंदिर मस्जिद के नाम पर सांप्रदायिकता अपने सबसे खूंखार चेहरे के साथ उपस्थि‍त है. याद आते हैं अज्ञेय अपनी इस चिंता के साथ कि :
''मिला बहुत कुछ : सब बेपेंदी का.
शिक्षा मिली, उसकी नींव भाषा नहीं मिली.
आजादी मिली, उसकी नींव आत्म गौरव नहीं मिला.
राष्ट्रीयता मिली, उसकी नींव अपनी ऐतिहासिक पहचान नहीं मिली. ''
(अज्ञेय. कवि मन)
आज हम इसी खोती हुई सांस्कृतिक पहचान और एकध्रुवीकृत होते विश्व' के आयाम में विलीन होने को प्रतिश्रुत हैं जहां मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में' और धूमिल की कविता 'पटकथा' आजाद भारत पर एक सवालिया निशान की तरह है.
हर साल आजादी का दिन आता है और हम उसे बहुत देशभक्ति की भावना से भर कर मनाते हैं. रेडियो और टेलीविजन और चैनलों पर जब सुनाई देता है कि पूरा देश आज आजादी की वर्षगांठ मना रहा है तो हृदय में रोमांच भर उठता है. पर यह रोमांच किसलिए. क्या वाकई आजादी मिल जाने से हम किसी आजाद और आत्म निर्भर देश की तरह हो गए हैं जहां से सारी दैहिक, दैविक, भौतिक व्याधियां मिट चुकी हैं. क्या सिर्फ कहने, लिखने, बोलने की आजादी ही आजादी का बुनियादी अभिप्राय है और क्या आज भी सच कहने की हर शख्स को आजादी है. सच बोलना भी क्या इतना आसान है. कम से कम पहले यह अवश्य कहा जाता रहा है कि निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय. पर आज निंदकों की जगह नहीं रही समाज में. सच बोलने वालों की कद्र नहीं रही समाज में. तभी एक शायर ने यह हिदायत दी कि  ''सच बोलना है लाजिम जीना भी है जरूरी. सच बोलने की धुन में मंसूर हो न जाना.'' सो कोई इस दौर में सच बोल भी रहा है कभी-कभी आश्चर्य होता है. आजादी कहते हुए हमारे मन में अनेक तरह के प्रश्न उमड़ते-घुमड़ते हैं कि क्या आजादी के बाद देश को ऐसा ही होना चाहिए था, जैसा वह है.
देश को सन् 1947 में आजादी मिली. एक ख्वा‍ब तामीर करने का मुहूर्त आया. देश के नव निर्माण की दिशा तय हुई. लेकिन बनने को तो तब से अनेक पंचवर्षीय योजनाएं बनीं. बड़े-बड़े बांध बने, बड़े उद्योगों की नींव पड़ी, रोटी कपड़ा और मकान सबको मिले यह संकल्प लिए गए. पर आज देखें तो आज भी सबको रोजी-रोटी और कपड़ा सम्मानजनक ढंग से मुहैया नहीं हो रहा. साहित्य में आजादी मिलने के थोड़े ही दिनों बाद आजादी का मोहभंग मन में जन्म लेने लगा. जिस आजादी के लिए अनेक वीरों ने अपने प्राणों का आहुतियां दीं, कितने नेता जेल की सींखचों में रहे, आजादी मिलते ही भारत विभाजन की त्रासदी देशवासियों ने झेली. पूरा देश लहूलुहान हो गया. जिसने भीष्म साहनी का 'तमस', कृष्णा सोबती की विभाजन विषयक कहानियां और यशपाल का 'झूठा सच' पढ़ा है वे जानते हैं कि विभाजन के दर्द से हम आज तक नहीं उबर पाए हैं. विभाजन के बाद देश में धार्मिक नफरत दिनों दिन परवान चढ़ी और देश में धार्मिक सहिष्णुता के बजाय धार्मिक कट्टरता बढ़ी है. 1948 में महात्मा गांधी की हत्या  की वजह धार्मिक कट्टरता ही रही है.
आज देश आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है. अखबारों में विज्ञापन हैं. सरकार के दावे हैं. लेकिन जमीनी हकीकत क्या है यह सबको पता है. सैंतालिस के पहले देश में जिस तरह राष्ट्रीयता, राष्‍ट्रभक्‍ति व देशप्रेम का बोलबाला था, वह आजादी के बाद उत्तरोत्तर कमतर होता गया. आज देशभक्‍ति, राष्ट्रवाद और भारत माता के जयकारे में बदल चुकी है. बच्चों में भी राष्ट्रभक्ति  के बीज बोने वाले शिक्षकों का अभाव होता जा रहा है. ऐसे में आजादी कैसे मिली, कैसे-कैसे संघर्ष करने पड़े, गुलामी के दौर का भारत क्या था, इससे आज के बच्चों को प्राय: सरोकार नहीं रहा. राष्ट्रकवि दिनकर को ही देखें तो जो कवि राष्ट्रकवि की पदवी पा चुका हो, उसे देश की आजादी से संतुष्ट होना चाहिए, किन्तु दिनकर अपनी रचनाओं में दिल्ली यानी सत्ता के सर्वोच्च शिखर को अपनी कविताओं में आड़े हाथो लेते हैं. 'मैला आंचल' के रचयिता रेणु अपने उपन्यास के जरिए आजादी की बंदरबांट को बहुत ही मार्मिकता से उभारते हैं.
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आजादी का परवर्ती परिदृश्‍य
तमिल लेखक कथाकार अखिलन अपने उपन्यास 'कहां जा रहे हैं हम?' में आजादी के कुछ दशकों बाद जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार व व्यवस्था के पतन का तल्ख चित्रण करते हैं. उन्होंने लिखा कि ''जो जमाखोर चोर बाजारी करने वाले और धनाढ्य लोग अंग्रेजों के जमाने में चंवर डुलाने का काम करते थे. ऐसे लोगों को खादी का कुरता पहनाकर तमिलनाडु में जन प्रतिनिधियों के रूप में चुनाव में खड़ा किया गया. यही नहीं शिक्षित व्यक्ति संस्कार संपन्न व गांधीवादी विचारधारा में विश्वास रखने वाले योग्य व्यक्ति हाशिए में ढकेल दिये गए.'' 1957 के आस पास अखिलन ने यह जान लिया था कि यह जनतंत्र वास्तव में धनतंत्र की ओर जा रहा है. वे कहा करते थे ''जनतंत्र का मूल आधार है लेखन की स्वतंत्रता लेकिन यह स्वतंत्रता जनतंत्र को मटियामेट भी कर सकती है." वे कहते थे, "इस देश के अखबार इस छोटे अरसे में एक स्वस्थ वातावरण पैदा कर सकते थे लेकिन अखबारों के पतन से यहां अच्छे  इंसानों की किल्लत पड़ गयी. धन प्रबल हुआ और धनतंत्र का नंगा नाच शुरू हो गया.'' आज से कितने दशकों पहले कही गयी यह एक तमिल गांधीवादी लेखक की ऐसी गाथा है, जिसने अपने अनुभवों से गांधीवादी सिद्धांतों को तार-तार होते देखा.
हिंदी उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास 'रागदरबारी' जैसे आजादी के बाद की कारगुजारियों का कथा रिपोर्ताज है. भारतीय जीवन में आई मूल्यहीनता और शासन के स्तंभों के ढहते जाने का यह जैसे श्वेतपत्र है. यह आजादी के दो दशकों बाद लिखा उपन्यास है. दो दशकों के अंतराल पर ही ब्यूरोक्रेसी किस तरह जनता से दूर होती गयी थी तथा भ्रष्टाचार में संलिप्त हो चुकी थी इसका रोचक वर्णन श्रीलाल जी ने किया है. यहां से भारतीय देहात का महासागर शुरू होता है- जैसी घोषणा के साथ यह स्पष्ट हो जाता है कि यह उपन्यास गांवों के बदलते परिदृश्य' का कच्चा चिट्ठा खोलने वाला है और वे ब्यूरोक्रेसी का हिस्सा होते हुए जो कुछ प्रस्तुत करते हैं उसका लब्बोलुआब उन्हीं के शब्दों  में यह है कि ''गांवों की राजनीति का जो स्वरूप यहां प्रस्तुत हुआ है वह आज के राष्ट्रव्यापी और मुख्यत: मध्यम और उच्च वर्गों के भ्रष्टाचार और तिकड़म को देखते हुए बहुत अदना जान पड़ता है.''
हम छठें दशक के भारत को देखें तो पाते हैं कि देश अन्न संकट से गुजर रहा था. अमेरिका से गेहूं मंगवाया गया. चुनावों में जहां अच्छे चरित्र के लोग खड़े होते थे, वहां धनिकों को प्रश्रय दिया जाने लगा. राजे रजवाड़े ही सत्ता में काबिज होते गए. आजादी के बाद देश को पहली चोट नक्सलबाड़ी आंदोलन से हुई. नक्सलबाड़ी आंदोलन जिसकी छाया बंगाल, बिहार से लेकर सुदूर दक्षिण तक पड़ रही थी. इस आंदोलन का अर्थ था कि देश की सत्ता की पहुंच आम जनता तक नहीं है तथा सुविधाओं से वंचित जनता का यह विद्रोह ही नक्सलवादी आंदोलन में परिणत होता गया. सरकार ने जितना ऐसे आंदोलनों को कुचलने में शक्ति जाया की उतना इस समस्या के समाधान में नहीं. 65 और 71 में पाकिस्तान आक्रमण के बाद भारत की सैन्य शक्ति का पहला बड़ा प्रदर्शन 71 में बांग्लादेश का निर्माण था. किन्तु शासन की विफलता से घबराई कांग्रेस ने आपातकाल लगा कर अभिव्यक्ति  की स्वतंत्रता को बड़ा आघात पहुंचाया. आठवां दशक संपूर्ण क्रांति का साक्षी रहा. कांग्रेस की हार के बाद जनता पार्टी के शासन का विफल प्रयोग भी जनता ने देखा. खिचड़ी विप्लव कह कर नागार्जुन ने जिसकी खिल्ली उड़ाई. नब्बे के बाद के उदारीकरण और भूमंडलीकरण ने भारत में बहुत कुछ परिवर्तित करने की मुहिम चलाई किन्तु मुक्त विश्व व्यापार से लाभ विदेशों को बेशक मिला, भारत को कम. न यहां गरीबी कम हुई न भ्रष्टाचार. न भाई भतीजावाद. अर्थव्यवस्था के पनपते सतत गतिरोध के कारण भारतीय मुद्रा का लगातार अवमूल्यन होता रहा. नेहरू युग के अपने अंतर्विरोध थे तो इंदिरा युग के अपने. इंदिरा जी ने, पूंजी से भारतीय जनता को लाभ मिले, इसके लिए बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था किन्तु राष्ट्रीयकरण के बीस साल बाद ही इसकी प्रासंगिकता पर सवाल खड़े किए जाने लगे थे जिसका कारण था लगातार बैंकों का घाटा व एनपीए का बढ़ते जाना, जिसके बेलगाम होने की वजह ही है कि आज पुन: कुछ बैंकों को समामेलित किया गया तथा कुछ को निजी क्षेत्र में देने की बात चल रही है. किन्तु बैंकिंग व्यवस्था को इस सीमा तक पहुंचाने के लिए भी राजनीति और सरकार ही जिम्मेवार है जिसने अपने दलीय हितों के लिए बैंकों की पूंजी का दोहन किया. अलाभकारी क्षेत्रों को ऋण दिए जाने से न ऋण की अदायगी हुई न उस क्षेत्र को व्यावसायिक लाभ पहुंचा.
नवें दशक के बाद भारतीय राजनीति में लगातार प्रबल होती गयी सांप्रदायिकता ने भारतीय जन मानस के फैब्रिक को बहुत नुकसान पहुचाया. भारतीय जनता पार्टी के शासन से जिस राष्ट्रवाद के सपने को मूर्त रूप देने की मुहिम चलायी गयी वह भी केवल सत्ता प्राप्ति के उपक्रम के तौर पर था. लिहाजा इस दौर में भी एक धर्म से दूसरे धर्म के बीच खाइयां बढ़ती ही रहीं तथा मुस्लिम और हिंदू कट्टरता दोनों के चरम रूप देखने को मिल रहे हैं. आजादी के बाद देश का यह हाल होगा, यह किसी ने सोचा न होगा.
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कवियों की दृष्‍टि में आजादी
आजादी के अर्थ को कवियों लेखकों ने अपनी अपनी तरह से देखा और रचा है. गोरख पांडे ने आजादी के बाद चलाए गए कथित समाजवाद पर चुटकी लेते हुए लिखा था: समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई. धूमिल ने तो आजादी की व्यर्थता का खूब मजाक उड़ाया.  रघुवीर सहाय लोकतांत्रिक व्यवस्था में आस्था रखने वाले एक सचेत कवि थे किन्तु उन्होंने उस आजादी की आलोचना की जिसमें राष्ट्रगीत गाने वाले व्यक्ति की औकात कुछ भी नहीं है.
राष्ट्रगान में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है.
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चँवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है.
पूरब-पच्छिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा, उनके
तमगे कौन लगाता है.
कौन-कौन है वह जन-गण-मन-
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज़ बजाता है.
'पटकथा' धूमिल की एक ऐसी कविता है, जिसमें आजादी के उपरांत भारत का असली चेहरा दिखता है, जैसे 'अंधेरे में'  मुक्तिबोध की ऐसी कविता है जिसमें पूंजीवाद की चरम विकृतियां और मूल्यों के पतन की ओर अग्रसर व्यक्ति  का पूरा अधोपतन दिखाई देता है. इस कविता में वे कहते हैं-
वे सबके सब तिजोरियों के दुभाषिये हैं
वे वकील हैं, वैज्ञानिक हैं, अध्यापक हैं
नेता हैं, दार्शनिक हैं, लेखक हैं, कवि हैं, कलाकार हैं
यानी कि कानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है. (पटकथा, धूमिल)
यह मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में' के उस कथन का जैसे छायानुवाद है, जिसमें उन्होंने 'सब चुप साहित्यिक चुप' के साथ चुप्पी साधे मूकदर्शक बने समाज पर गहरी चोट की थी.
हिंदी की आधुनिक पीढ़ी के तेजस्वी कवि अरुण कमल ने जब लिखा था: ''प्रजातंत्र का महामहोत्सव/ छप्पन विधि पकवान/ जिसके मुंह में कौर मांस का उसको मगही पान.'' तो यह आजादी के बाद के प्रजातंत्र की एक तस्वीर थी, जिसे आठवें दशक के एक कवि ने आंकी थी. हाल में आए संग्रह 'योगफल' में 'प्रलय' नामक कविता में जो देश के वर्तमान प्रलय की एक मार्मिक झांकी है, लिखते हैं:
गांधी का नाम मत लो
गांधी तो अब एक झाड़ू का नाम है
नोट रुपइये पर आश्रम है धाम है
कब की सूख चुकी साबरमती
सब पोपले हो चुके हैं
झड़ चुके हैं उनके दांत (योगफल, पृष्ठ  86)
पूंजीपरस्त सत्ता ने कैसे लोगों का जीना दूभर किया है, इसे कवि मुख से ही सुनें-
पूछो पूंजीवाद से बड़ा कूड़ा
और क्यां है मां---पृथ्वी पर
दुनिया को साफ करने के लिए एक मेहतर नहीं
हाथ चाहिए करोड़ों करोड़
जहां आदमी फेंक दिया जाता है रात के जूठन की तरह (योगफल/ कविता 2013, पृष्ठ- 82)
आज की पूंजीवादी बाजारवादी सभ्यता में आम आदमी से ज्यादा कीमत बने रहे मॉल की है जिसके लिए विस्था‍पित जनता की कोई कीमत नहीं-
जो तुम्हारे लिए धरतीमाता है
वह उसके लिए सोना है यूरेनियम
वे इस तरह उठाते हैं हमें जैसे
कूड़ा गाड़ी उठाती है कचरा
और उस गड्ढ में फेंकते हैं जहां
बनेगा मुल्क का सबसे बड़ा मॉल. (वही, पृष्ठ 80 )
साठोत्तर कवियों का अधिकांश वर्ग आजादी की फलश्रुति से संतुष्ट नहीं था. चाहे वह धूमिल हों, राजकमल चौधरी हों, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर, आलोक धन्वा हों, ज्ञानेंद्रपति या गोरख पांडे, सबका मोहभंग आजादी के बाद के परिदृश्य  से हुआ. चंद्रकांत देवताले लिख रहे थे कि ''प्रजातंत्र की रथयात्रा निकल रही है/ औरतों और बच्चों को रौंदा जा रहा है/ गुंडों ओर नोटों की ताकत से हतप्रभ लोग खामोश खड़े हैं.'' तो गोरख पांडे ने पाया कि ' कुर्सी खतरे में है तो प्रजातंत्र खतरे में है/ कुर्सी खतरे में है तो देश खतरे में है/ कुर्सी खतरे में है तो दुनिया खतरे में है/ कुर्सी न बचे तो भाड़ में जाए प्रजातंत्र देश और दुनिया. (स्वर्ग से विदाई, पृष्ठ 60) हताशा ओर प्रजातंत्र को तमाशा बनाए जाने पर लीलाधर जगूड़ी की सर्वाधिक कविताएं हैं. नाटक जारी है- की कविताएं प्रजातंत्र के इसी नाटक के दृश्यबंध जैसे हैं जिसमें आजाद भारत की ही तथाकथित तस्वीर दिखाई गयी है. तथापि वे एक जगह यह दृढता भी दिखाते हुए आम आदमी के पक्ष में कहते हैं-
हर हरियाली के हम अंतिम परिणाम हैं
हम जलेंगे
तो धरती दूर से दिखायी देगी
काली और उपजाऊ.

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आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है. चतुर्दिक आजादी के उत्‍सव की दुंदुभि है. पर देखा जाए तो आदमी को बुनियादी जीवन सुविधाएं कितनी मुश्किल से हासिल हैं. इस देश ने अकाल झेला है, महामारियां झेली हैं, एक महामारी झेल रहा है, लोग यहां से वहां दर-ब-दर हुए है. नौकरियां गंवाई हैं. स्वास्‍थ्‍य सुविधाओं की नंगी सचाई सोशल मीडिया और टीवी चैनलों पर आ चुकी है. अस्पतालों और प्राथमिक स्वास्‍थ्‍य केंद्रों पर पशु बांधे जा रहे हैं. डॉक्टर, कंपाउंडर नदारद हैं. देश इसी तरह से रेणु के मैला आंचल के जमाने से चल रहा है. प्रजातंत्र बातों में है, अपनी सुंदर पारिभाषिकी के साथ जो हमारे पाठ्यक्रमों का हिस्सा  है. किन्तु ऐसा प्रजातंत्र देश में खोजिए तो नहीं मिलेगा. किसी कवि ने कहा था, नहर गांव भर की. पानी परधान का. जिसकी लाठी उसकी भैंस. देश के जनप्रतिनिधियों में कितने ऐसे होंगे जो सजायाफ्ता रहे हैं या कितनों पर दर्ज मुकदमों की लंबी फेहरिश्त है. तथापि वे कुलीनता के अवतार जैसे लगते हैं. जन प्रतिनिधियों की कोई खास योग्यता निर्धारित नहीं है जबकि एक लिपिक की सेवा के लिए भी न्यूनतम अर्हताएं निर्धारित हैं. यह हमारे प्रजातंत्र की विडंबना है. आजादी इसी प्रजातंत्र के बलबूते फूल फल रही है. जनता तक सत्ता की घोषणाएं तो आए दिन होती हैं किन्तु सचिवालय जाइये तो प्रजा के लिए उसके दरवाजे बंद मिलेंगे. एक लंबी प्रक्रिया के बाद ही अधिकारियों से मिला जा सकता है. इस देश में एनजीओ का संजाल रहा है, जिसका काम तमाम जनसुविधाओं को जनता तक पहुंचाना रहा है पर देखिए तो एनजीओ का संचालन भी बहुधा मंत्री अफसर के सगे संबंधियों के हाथ में होता है. एनजीओज की इन्हीं कारगुजारियों पर ही भगवानदास मोरवाल का एक उपन्‍यास 'नरक मसीहा' आ चुका है. आजादी के इतने वर्षों बाद भी भूखे सोने वालों की संख्या कम न होगी, भीख मांग कर गुजारा करने वालों की संख्या कम न होगी. रैनबसेरे ऐसे मजलूमों से आबाद हैं. आजादी है तो कारपोरेट और उद्योगपतियों को है, जो चुनावी चंदे देकर सरकार का मुंह बंद रखते हैं, वे जब चाहें अपने उत्पाद का दाम बढ़ा सकते हैं. पर यही काम किसान नहीं कर सकता. उसकी उपज पर एमएसपी सरकार तय करतीहै. देश में लंबे अरसे से चल रहे किसान आंदोलन के पीछे ऐसी ही तमाम विसंगतियां हैं तभी तो दुष्यंत कुमार ने कहा था: यहां तक आते आते सूख जाती हैं कई नदियां/ हमें मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा.
हो सकता है, जिस आजादी के मोहभंग की तस्वीर कवियों लेखकों के यहां बहुतायत में दिखती है, वही तस्वीर किसी या किन्हीं  लेखकों कवियों के यहां कुछ अलग मिले. इसका अर्थ यह नहीं कि आजादी के तराने में उभरती तस्वीर का देश की आजादी से ज्यादा ताल्लुक है. वह एक विज्ञापन भर है. आजादी को लेकर जो स्वप्न लेखकों, कवियों ने देखे हैं वे तमाम तरक्की के बावजूद शतप्रतिशत प्रतिफलित होते हुए नहीं दिखते. हमारी सोच को तमाम चैनलों के माध्यम से परिचालित एवं परिवर्तित करने की मुहिम रात दिन चल रही है. जैसे खिलौनों में चाबी भर दी जाए तो वे कुछ देर तक चलते हैं, आज आदमी ऐसी ही चाबियों से संचालित है. स्वविवेक पर प्रायोजित विवेक का आच्‍छादन है. इसलिए आजादी का जैसा प्रतिफलन समाज में और जीवन के विभिन्न हलके में जिस तरह होना चाहिए था, वह प्रतिबिम्बित होता हुआ नहीं दिखता. इसलिए अभी धूमिल का वह सवाल अप्रासंगिक नहीं हुआ है जिसमें उन्होंने आजादी के तीन थके हुए रंगों के रूपक के रूप में देखा था जिसका सही अर्थ आज भी कहीं ओझल है.
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# डॉ ओम निश्चल हिंदी के सुधी आलोचक कवि एवं भाषाविद हैं. आपकी शब्दों से गपशप, भाषा की खादी, शब्द सक्रिय हैं, खुली हथेली और तुलसीगंध, कविता के वरिष्ठ नागरिक, कुंवर नारायण: कविता की सगुण इकाई, समकालीन हिंदी कविता: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य व कुंवर नारायण पर संपादित कृतियों 'अन्वय' एवं 'अन्विति' सहित अनेक आलोचनात्मक कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं. आप हिंदी अकादेमी के युवा कविता पुरस्कार एवं आलोचना के लिए उप्र हिंदी संस्थान के आचार्य रामचंद शुक्ल आलोचना पुरस्कार, जश्ने अदब द्वारा शाने हिंदी खिताब व कोलकाता के विचार मंच द्वारा प्रोफेसर कल्या‍णमल लोढ़ा साहित्य सम्मान से सम्मानित हो चुके हैं.  संपर्कः जी-1/506 ए, उत्तम नगर, नई दिल्ली- 110059, मेल dromnishchal@gmail.com
 

 

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