पुस्तक समीक्षाः 'लोक, आस्था और पर्यावरण', ताकि बची रहे धरती

'लोक, आस्था और पर्यावरण' में हमारे पर्व, समाज की मान्यताओं में छिपे पर्यावरण संरक्षण के सूत्र और पर्वों के बाज़ार बनने से नष्ट उनकी मूल आत्मा जैसे मसलों को तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया गया है.

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लोक, आस्था और पर्यावरण लोक, आस्था और पर्यावरण

जय प्रकाश पाण्डेय

  • नई दिल्ली,
  • 18 जनवरी 2019,
  • अपडेटेड 11:19 AM IST

विकास और प्रदूषण साथ-साथ चलते हैं. समस्या तब होती है जब हम तरक्की की चकाचौंध में उससे जुड़ी समस्याओं को भूल जाते हैं. जिस तरह से 'विकास' एक नई अवधारणा है, ठीक उसी तरह पर्यावरण संरक्षण भी नए जमाने की एक समस्या है. विकास, प्रगति का उत्प्रेरक तत्व है, लेकिन इसका मूल महज आर्थिक तत्व नहीं है, बल्कि गुणात्मक उन्नति है. मुल्क के हर बाशिंदे, चाहे वो इंसान हों या फिर जीव-जंतु, साफ हवा में सांस लेने के इच्छुक हैं. पर मनुष्यों ने नदी, तालाब, झरने, समुद्र सबको नष्ट किया है.

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आज का पर्यावरण लाखों-लाख किस्म के पेड़-पौधे, कीट-पतंगे, जानवर-पक्षी इनसान किसी के लिए नैसर्गिक नहीं रह गया है. क्या जनभावनाओं में ऐसे ही विकास संकल्पना की गई थी? जिस तरह से 'विकास'- वैश्वीकरण के बाद, मानवीय सहअस्तित्व की भावना से परे, पूंजी के प्रभुत्व से उपजी नई अवधारणा है; ठीक उसी तरह पर्यावरण संरक्षण भी नए जमाने की चुनौती है.

वास्तव में पर्यावरण एक एकीकृत शब्द है, जिसमें सूर्य-चंद्र, आकाश-पृथ्वी, जल- वायु के साथ-साथ लोक-इनसान व जीव सभी कुछ शामिल हैं. ये सभी एक साथ सुखद परिवेश में अपना निर्धारित जीवन संपन्न करें, यही पर्यावरण है. सनद रहे कि विकास एक सापेक्षिक अवधारणा है और समानअर्थी प्रतीत होने के बावजूद इसके मायने ‘प्रगति’ से भिन्न हैं.

विकास, प्रगति का उत्प्रेरक तत्व है, लेकिन इसका मूल महज आर्थिक तत्व नहीं है, बल्कि गुणात्मक उन्नति है. सभी के जीवन में सकारात्मक बदलाव. विडंबना है कि भौतिक सुख की बढ़ती लालसा और कथित विकास की अवधारणा ने एक भयानक समस्या को उपजाया और फिर उसके निराकरण के नाम पर अपनी सारी उर्जा, संचय शक्ति व धन व्यय कर रहा है. इससे ठीक उलट हमारी लोक संस्कृति और आध्यात्म का मूल आधार ही सहअस्तित्व की भावना रही है.

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हमारे प्राचीनतम ग्रंथ और सदियों से आदिवासी व लोक में प्रचलित धारणाओं को गंभीरता से देखें तो पाएंगे कि हमारे पुरखों की सीख, पर्व, उत्सव और जीवन शैली उसी तरह की थी कि सारा विश्व और उसके प्राणी सहजता से जीवन जी सकें. ना तो कोई बीमार हो, ना ही कोई भूखा. इसके लिए अनिवार्य था कि जल, वायु और भोजन निरापद हो.

पंकज चतुर्वेदी की पुस्तक 'लोक, आस्था और पर्यावरण' हमारे पर्व-त्योहारों की मूल भावना और उसमें आए परिवर्तनों से उपजते सामाजिक व पर्यावरणीय विग्रह की बात तो करती है, हमारे गांव- जंगलों में रहने वाले पुरखों की ऐसी पंरपरा पर भी विमर्ष करती है, जिसे आज का कथित साक्षर समाज भले ही पिछड़ापन कहे, असल में उसके पीछे गूढ़ वैज्ञानिक चेतना और तार्किक अनुभव थे.

'लोक, आस्था और पर्यावरण' में हमारे पर्व, समाज की मान्यताओं में छिपे पर्यावरण संरक्षण के सूत्र और पर्वों के बाज़ार बनने से नष्ट उनकी मूल आत्मा जैसे मसलों को तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया गया है.

दीपावली, होली या छठ पर्व ये सभी वास्तव में प्रकृति की पूजा और उसको सहेजने के पर्व थे, जो आज बाजारवाद की चपेट में समूचे पर्यावरण को नष्ट करने का माध्यम बन गए हैं. इस पुस्तक में इस पर्व-त्योहारों की मूल भावना और आज उनके विद्रूप रूप से उपज रही त्रासदियों पर विमर्श है.

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इस पुस्तक में पर्यावरण संरक्षण की सीख, हमारे लोग और आदिवासी समाज की पीढ़ियों से चली आ रही प्रकृति संरक्षण की परम्पराओं और धरती पर जीव-जंतुओं की अनिवार्यता पर जोर देकर यह साबित करने की कोशिश की गई है कि हमारे हर्ष-आयोजन, हमारी परम्पराएं वास्तव में नैसर्गिक व्यवस्था के हनन की नहीं, बल्कि उसको सहेजने की हैं ताकि यह धरती और उसके निवासी लम्बे समय तक निरापद जीवन जी सकें.

पुस्तकः लोक, आस्था और पर्यावरण

लेखकः पंकज चतुर्वेदी

पृष्ठ संख्याः 128

मूल्यः हार्ड बाउंड रु 325

प्रकाशकः परिकल्पना प्रकाशन

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