गदर आंदोलन एवं भगत सिंह का इतिहास आज भी पंजाब के कण-कण में विद्यमान है. सन् 1913 में अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को शहर से 'गदर' साप्ताहिक अखबार के रूप में शुरू हुआ था. इस पर लिखा गया था कि विदेशी धरती पर देशी भाषा में इसकी शुरुआत की जा रही है, लेकिन यह अंग्रेजी शासन के विरुद्ध युद्ध की शुरुआत है. बड़े एवं मोटे अक्षरों में लिखे गए गदर के साथ चार अक्षर लिखे गए-'अंग्रेजी राज का दुश्मन.' बाएं और दाएं 'वंदे मातरम्' लिखा गया. इसके नीचे लिखा गया-'भारत के नवयुवको, हथियार लेकर शीघ्र तैयार हो जाओ.' 8 नवंबर, 1913 को गुरुमुखी (पंजाबी) में गदर अखबार का प्रकाशन आरंभ हुआ. अखबार के रूप में शुरू हुआ गदर पंजाबी श्रमिकों एवं बुद्धिजीवियों के लिए स्वतंत्रता आंदोलन की मशाल बन गया. जश्न-ए-आजादी की 75वीं सालगिरह पर देश और राष्ट्र के नाम अपना सर्वस्व निछावर कर देने वाले सेनानियों और अमरवीर जवानों की याद में साहित्य आजतक पर पढ़िए भैरव लाल दास की लिखी पुस्तक 'गदर आंदोलन का इतिहास' के अंश. इस पुस्तक में पंजाबी आप्रवासियों द्वारा विश्व के विभिन्न देशों में बनाए गए संगठनों के निर्माण का इतिहास तथा अमेरिका में पंजाबी श्रमिकों की स्थिति का वर्णन भी है. पंजाबी श्रमिकों को कनाडा लेकर गए कामागाटा मारू जहाज की यात्रा-कथा के साथ गदरियों की पंजाब वापसी की चर्चा भी है, तो गदर पार्टी के क्रांतिकारियों द्वारा किए गए कार्यों का ऐतिहासिक विश्लेषण इस पुस्तक में है.
यह एक तथ्य है कि पंजाब के किसी विद्यालय में वार्षिक उत्सव भी मनाया जाता है तो उसमें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर आधारित कार्यक्रम हमेशा सम्मिलित रहते हैं. भावी पीढ़ी को अपना इतिहास बताने के लिए यह अनूठा राज्य है. यह पुस्तक बताती है कि उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक में भारतीयों के बीच अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार होना आरंभ हो चुका था. इसके साथ ही पश्चिमी उदारवादी राजनीतिक शिक्षा का प्रसार, निर्वाचित जनप्रतिनिधित्व प्रणाली, नागरिक अधिकार, कानून की नजर में समानता के सिद्धांत की जानकारी भी भारतीयों को प्राप्त होने लगी थी. इससे पूर्व तक भारतीय जनमानस में अंग्रेजों की न्याय पद्धति के प्रति श्रद्धा तो थी, परंतु वे अपने आस-पास हो रही घटनाओं के प्रति आंख मूंदकर बैठे हुए नहीं थे. शासक वर्ग द्वारा भारतीयों के प्रति किए जा रहे दुर्व्यवहार के कारण उन्हें गुस्सा आ रहा था. उनके सामने कई ऐसे उदाहरण थे, जिनमें शासक वर्ग द्वारा कानून का उल्लंघन किए जाने के बावजूद उन्हें मामूली रूप से दंडित कर छोड़ दिया गया था...कैसा था उस समय का भारत, क्या था वह आंदोलन
गदर आंदोलन के पूर्व भारत की क्रांतिकारी गतिविधियां
उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक में भारतीयों के बीच अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार होना आरंभ हो चुका था. इसके साथ ही पश्चिमी उदारवादी राजनीतिक शिक्षा का प्रसार, निर्वाचित जनप्रतिनिधित्व प्रणाली, नागरिक अधिकार, कानून की नजर में समानता के सिद्धांत की जानकारी भी भारतीयों को प्राप्त होने लगी. इससे पूर्व तक भारतीय जनमानस में अंग्रेजों की न्याय पद्धति के प्रति श्रद्धा तो थी, परंतु वे अपने आस-पास हो रही घटनाओं के प्रति आँख मूँदकर बैठे हुए नहीं थे. शासक वर्ग द्वारा भारतीयों के प्रति किए जा रहे दुर्व्यवहार के कारण उन्हें गुस्सा आ रहा था. उनके सामने कई ऐसे उदाहरण थे, जिनमें शासक वर्ग द्वारा कानून का उल्लंघन किए जाने के बावजूद उन्हें मामूली रूप से दंडित कर छोड़ दिया गया था. कानून तोड़नेवालों में यूरोप के प्लांटर्स और सिपाही सबसे अधिक थे.
उन्नीसवीं सदी के तीसरे दशक के बाद से ही भारत में राजनीतिक चेतना का विकास होना आरंभ होने लगा. पहली राजनीतिक संस्था 1838 में कलकत्ता में 'लैंड होल्डर्स सोसाइटी' के नाम से बनी, जिसका उद्देश्य बंगाल, बिहार और उड़ीसा के भूस्वामियों के हितों की रक्षा करना था. 1843 में बंगाल में 'ब्रिटिश इंडियन सोसाइटी' की स्थापना हुई, जिसका श्रेय द्वारिका नाथ ठाकुर और जॉर्ज टाम्पसन को है. 1851 में 'ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन', 1852 में 'मद्रास नेटिव एसोसिएशन' और 'बंबई एसोसिएशन' स्थापित की गईं. दादा भाई नौरोजी ने 1866 में लंदन में 'ईस्ट इंडिया एसोसिएशन' की स्थापना की, जिसकी शाखाएं भारत के प्रमुख नगरों में गठित की गईं. थियोसोफिकल सोसाइटी (ब्रह्मविद्या समाज) की स्थापना अमेरिका में रूसी महिला हेलेना पेट्रोवना ब्लोवास्की और अमेरिकी कालोनल आलकाट द्वारा 7 सितंबर, 1875 को हुई और उक्त दोनों व्यक्तियों के प्रयास से 1882 में इसका प्रधान कार्यालय मद्रास आया. आनंद मोहन बोस और सुरेंद्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में 1876 में 'इंडिया एसोसिएशन' का गठन किया गया. एम. वीर राघवाचारी, जी. सुब्रह्मण्यम अय्यर, आनंद चारलू आदि ने मद्रास में 1884 में 'मद्रास महाजन सभा' बनाई. फिरोजशाह मेहता, के.टी. तैलंग आदि ने 1885 में 'बंबई प्रेसीडेंसी एसोसिएशन' की स्थापना की. दिसंबर 1885 में बंबई में 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' की स्थापना हुई. अंग्रेज सरकार पंजाब के कूका विद्रोहियों के कारण भी परेशान थी. विद्रोहियों ने अंग्रेजी विद्यालयों का त्याग, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, सरकारी न्यायालय एवं पोस्ट ऑफिसों का बहिष्कार, स्वदेशी नारा एवं स्वदेशी कपड़ों को पहनना आरंभ कर दिया था. अंग्रेज अधिकारियों को ऐसा लगा कि ये लोग समानांतर सरकार चला रहे हैं. मलेरकोटला नामक स्थान पर हुई हत्या के बाद लुधियाना के डिप्टी कमिश्नर कोवन ने विद्रोहियों को तोप के मुंह पर बांधकर उन्हें उड़ा दिया था.
ब्रिटेन की सम्राज्ञी द्वारा 1858 में की गई घोषणा के बावजूद शासन में भारतीयों का प्रवेश नाममात्र का ही था. 1877 में आई.सी.एस. में नियुक्ति की उम्र 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष किए जाने के बाद भारतीयों के प्रशासनिक क्षेत्र में जाने के अवसर लगभग अवरुद्ध हो गए. 1878 में लॉर्ड लिटन के शासनकाल में 'आर्म्स ऐक्ट' पारित हुआ, जिसके अनुसार भारतीयों के हथियार रखने पर पाबंदी लग गई. 'इंडियन एंड वर्नाकुलर प्रेस ऐक्ट, 1878' इसी अवधि में पारित हुआ, जिसके अधीन भारतीय समाचार-पत्रों पर कई प्रकार के अंकुश लगाए गए. इससे पूर्व 1876 में 'ड्रामेटिक परफॉर्मेंस कंट्रोल ऐक्ट' पारित हुआ था, जिसमें यह प्रावधान किया गया था कि ब्रिटिश शासन के जुल्म को मंच पर नाटक के माध्यम से नहीं दिखाया जा सकता है. 1883 में यूरोपियन सदस्यों द्वारा विरोध किए जाने के कारण लॉर्ड रिपन द्वारा लाया गया 'इलबर्ट बिल' अपने पुराने स्वरूप में पारित नहीं कराया जा सका और इसको लेकर भारतीयों में हताशा उत्पन्न हुई. वस्तुत: रिपन द्वारा तैयार किए गए प्रस्ताव के अनुसार 'कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसिज्युर' को मूल विधेयक से अलग कर दिया गया था और इसका अर्थ यह था कि न्यायालयों में जज की कुरसी पर मेधा के अनुसार भारतीय भी बैठ सकते थे.
भारत के अधिक-से-अधिक आर्थिक दोहन के उद्देश्य से यहां के देशी उद्योगों को नष्ट कर यहां से कच्चा माल इंग्लैंड भेजा जाना शुरू किया गया. साथ ही पूरे देश में रेलवे का जाल बिछाया जाना भी शुरू हुआ. ब्रिटिश सरकार ने भारत के सामंतों को अपना सहयोगी बनाकर किसानों का भयानक उत्पीड़न शुरू किया. नतीजतन उन्नीसवीं सदी के अंत तक आते-आते देश के अनेक भागों में छुट-पुट विद्रोह होने लगे.
उन्नीसवीं शताब्दी के अस्सी के दशक में सांस्कृतिक चेतना का विकास, पश्चिमी शिक्षा का प्रभाव और भारतीय प्रेस के उदय के कारण भारतीयों में ब्रिटिश सरकार के प्रति विरोध की मानसिकता बढ़ती चली गई. विरोध के मूल में आर्थिक शोषण और प्रशासनिक विफलता ही थी, जिससे लोगों में हिंसक प्रतिक्रिया बलवती हुई. निलहा क्रांति, पाबना उपद्रव, संताल विद्रोह और डेक्कन विद्रोह के रूप में अंग्रेज सरकार भारतीयों की विद्रोही मानसिकता से परिचित हो चुकी थी. धार्मिक क्षेत्र में उन्नीसवीं सदी के छठे दशक में कूका विद्रोह और सातवें दशक में वहाबी आंदोलन का काफी असर पड़ा. इसी बीच जनता को बुद्धिजीवियों का आम नेतृत्व भी हासिल होता चला गया. भारत में कई संगठन बनते चले गए. भारत के सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास बहुत पुराना है. बहावियों द्वारा सितंबर 1871 में कलकत्ता में चीफ जस्टिस नार्मन की हत्या और फरवरी 1872 में अंडमान में वायसराय मेयो की हत्या क्रांति की पहली घटना थी.
1885 में 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' का जन्म हुआ. 1892 में 'इंडियन कौंसिल ऐक्ट' पारित हुआ, जिसके कारण भारतीयों को विधान परिषद् में प्रतिनिधित्व का मौका मिला. 'इंदु प्रकाश' (1893-94) में अरविंदो घोष एवं 'केसरी' (1894) में बाल गंगाधर तिलक द्वारा प्रकाशित लेख में कांग्रेस की 'प्रार्थना और याचना' नीति की खुलकर निंदा की गई. भारत का मध्य वर्ग यह महसूस करने लगा कि अंग्रेजों को भारत से भगाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. 31 मई, 1893 को विवेकानंद बंबई से रवाना हुए और कोलंबो, पेनांग, सिंगापुर, हांगकांग, कैंटन, नागासाकी, कोबे, ओसाका, क्योटो, टोक्यो, योकोहामा, वैंकूवर और विनिपेग होते हुए 30 जुलाई को शिकागो पहुंचे. 11 सितंबर, 1893 को शिकागो के 'आर्ट इंस्टीट्यूट' के हॉल में 'विश्व धर्म सम्मेलन' आरंभ हुआ तो मंच के मध्य में रखी कुरसी पर अमेरिकी कैथोलिक चर्च के प्रमुख पादरी कार्डिनल गिबंस, उनकी दाईं बगल में सम्मेलन के अध्यक्ष चार्ल्स कैरोन बोनी और बाईं ओर अन्य धर्माधिकारी बैठे हुए थे. यद्यपि भारत की ओर से स्वामी विवेकानंद के अतिरिक्त 'ब्रह्म समाज' के प्रतापचंद्र मजूमदार, थियोसोफिकल सोसाइटी की प्रतिनिधि श्रीमती एनी बेसेंट, भारतीय ईश्वरवादियों की ओर से नगहकर और जैन धर्म के प्रतिनिधि के रूप में वीरेंद्र गांधी मंच पर विराजमान थे. 11 से 27 सितंबर तक 17 दिन चले 'विश्व धर्म सम्मेलन' में विवेकानंद ने कुल छह मानक व्याख्यान दिए. स्वामीजी के भाषण के बाद अमेरिका और यूरोप के जनमानस में भारत की तेजस्विता और गौरवशाली अतीत के प्रति लोगों का ज्वार उमड़ पड़ा और स्वामीजी का बहुत प्रचार हुआ. उनकी प्रशंसा करनेवालों में विलियम जेम्स, निकोलस टेसला, अभिनेत्री सारा बर्न हार्ड, मादाम एम्मा काल्व, एंग्लिकन चर्च, लंदन के धार्मिक चिंतक रेवरेंड कैनन विल्बर फोर्स, रेवरेंड होवीस, सर पैट्रिक गेडेस, हाइसिंथ लॉयसन, सर हाइटैम नैक्सिम, नेल्सन रॉकफेलर, लिओ टॉलस्टॉय, रोम्यां रोलां आदि के नाम हैं. रोम्यां रोलां ने उन्हें 'हिंदू धर्म का नेपोलियन' कहा. भारतविद् ए.एल. बाशम ने कहा कि इतिहास का पहला व्यक्ति, जिन्होंने पूर्व की आध्यात्मिक संस्कृति के मित्रतापूर्ण प्रत्युत्तर का आरंभ किया और आधुनिक विश्व के धर्म, दर्शन और अध्यात्म को नवीन रूपाकार प्रदान करके आध्यात्मिक विश्व का नया मानचित्र तैयार किया.
इस यात्रा के दौरान स्वामीजी ने मध्य पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र और कुछ दक्षिणी क्षेत्रों का दौरा भी किया. समाचार-पत्रों में स्वामीजी की प्रशंसा में खूब समाचार छपे. नवंबर 1894 में स्वामीजी ने न्यूयॉर्क में 'वेदांत सोसाइटी' की स्थापना की.16 अमेरिका के बुद्धिजीवियों में भारत के प्रति एक अलग सहानुभूति उत्पन्न हुई. अमेरिका में रामकृष्ण मिशन आश्रम की शाखाएं स्थापित होने लगीं. स्वामीजी के शिष्य बोधानंद, परमानंद, प्रोकाशानंद और त्रिगुनातीतानंद स्वामीजी के संदेश को अमेरिका में प्रसारित करते रहे. इस संदेश में देशभक्ति भी छिपी थी.
भारत के महान् संत स्वामी रामतीर्थ ने अमेरिका की यात्रा कर वहां के लोगों को भारत की आत्मा का जो दिग्दर्शन कराया, उससे अमेरिका में भारतीय दर्शन की जिज्ञासा उत्पन्न हुई. दूसरी ओर भारत के शिक्षित और संभ्रांत वर्गों में भी अमेरिका और कनाडा के संबंध में अभिरुचि जगी. इसी लहर में कई भारतीय विद्यार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इन देशों को जाने लगे. अमेरिका से वापस आकर अमेरिका के बारे में स्वामी रामतीर्थ ने अपने विचार स्थानीय अखबारों में लिखे और यह लेख पंजाब के युवकों तक भी पहुंचे. गरीबी से निकलने के लिए उनके पास दो ही उपाय थे-फौज में भरती हो जाना अथवा पंजाब से बाहर जाकर रोजी-रोटी की तलाश करना.
स्वामी विवेकानंद के प्रसिद्ध भाषण से अमेरिका में भारत के प्रति सहानुभूति की लहर उठ गई थी. स्वामीजी के शिष्य अभेदानंद 1897 में लंदन से न्यूयॉर्क गए और मई 1906 तक वहां रुके. उनका भाषण देशद्रोही करार दिया गया. विवेकानंद के शिष्य स्वामी अभेदानंद द्वारा अमेरिका के विभिन्न हिस्सों में दिए गए भाषण को 1906 में प्रकाशित किया गया, जिसमें सरकार की नजर में बहुत आपत्तिजनक बातें लिखी गई थीं. बंबई सरकार द्वारा इसे प्रतिबंधित कर दिया गया. 20 जून, 1899 को विवेकानंद की दूसरी पश्चिमी देशों की यात्रा कलकत्ता से आरंभ हुई. इसमें उनके साथ स्वामी तुरीयानंद और सिस्टर निवेदिता भी साथ थीं. अमेरिका से वापस आने के बाद विवेकानंद ने 1897 में कलकत्ता में जो भाषण दिया, उसमें उन्होंने स्पष्ट किया कि युवकों को डरने की जरूरत नहीं है. स्वामी विवेकानंद के छोटे भाई भूपेंद्रनाथ दत्त, जो 'युगांतर' के प्रथम संपादक थे, पर मुकदमा चलाया गया था और जून 1908 में जेल से छूटने के बाद वे कुछ दिनों तक बेलूर मठ में छिपे रहे और उसके बाद अमेरिका चले गए. इसी जमाने में व्यायाम तथा मानसिक उन्नति के लिए बंगाल के अनेक भागों में 'अनुशीलन समितियां' खुलीं और गांव-गांव में इसका प्रचार हुआ. अकेले ढाका में समिति की 600 शाखाएं थीं.
बुद्धिजीवियों में यह विश्वास जगा कि ब्रिटेन अब पूर्व की तरह शक्तिशाली नहीं है. फ्रांस और रूस उसके पुराने प्रतिद्वंद्वी हैं. कैसर के नेतृत्व में जर्मनी ब्रिटेन के शत्रु पक्ष में इजाफा कर रहा है. बोअर युद्ध में ब्रिटेन की हालत से लोगों में पुन: यह धारणा बनी कि वह पूर्णतया भारतीय सैनिकों पर निर्भर है. इसके अलावा उसका कोई वजूद नहीं है. कैसर की दोनों तुर्की यात्रा ने एशिया में नए उदय का संकेत दे दिया था. 9 सितंबर, 1898 को दमश्कस में दिए गए भाषण में उसने अपने आपको 'इसलाम के रक्षक का मित्र' बताया. 1897 में ग्रीक पर तुर्की की विजय हुई. 1898 में ही इथोपियन सैनिकों ने अदोवा में इटली को रौंद दिया. कुछ वर्षों बाद ही जापान ने रूस को पराजित किया. इन सब बातों का भारतीय जनमानस पर इतना गहरा असर पड़ा कि वे क्यों पश्चिम को, खासकर ब्रिटेन को शक्तिशाली मानते हैं? और यदि अन्य देशों की स्थिति में परिवर्तन हो सकता है तो फिर भारत में क्यों नहीं? जबकि 1857 में ही भारत में क्रांति हो चुकी थी. लोगों में यह धारणा बनी कि अलोकप्रिय शासन व्यवस्था को व्यक्तिगत क्रांति से हटाया जा सकता है और इसमें देशी राज्यों के सैनिकों की सहायता ली जा सकती है. भारतीयों के समक्ष गैरीबाल्डी के स्वयंसेवकों की कहानी और कैवोर द्वारा विदेशों से हथियार प्राप्त करने के उदाहरण थे. युवाओं के समक्ष भगवद्गीता एवं विवेकानंद के उपदेशों के अतिरिक्त मैजिनी और गैरीबाल्डी की कहानी को 'मुक्ति कौन पथे' में समाहित कर प्रस्तुत किया गया था. इसमें कहा गया था कि हथियार प्राप्त करना कठिन नहीं है, भारतीय युवकों को हथियार निर्माण के प्रशिक्षण के लिए विदेश भेजा जा सकता है. इसके अलावा भारतीय सैनिकों से भी सहायता ली जा सकती है. बंगाल के मुख्य न्यायाधीश सर लारेंस जेनकिन ने यह भी उल्लेख किया कि विदेशों से हथियार प्राप्त करने के तरीकों को भी प्रकाशित किया गया. भारतीय क्रांतिकारियों ने आयरलैंड के फेनियंस और रूस के क्रांतिकारियों के तरीकों का भी अनुसरण किया. बाल गंगाधर तिलक ने आयरलैंड के आंदोलन 'कर नहीं' देने का प्रस्ताव सीखा तो वहीं बंगालियों ने 'बहिष्कार' इनसे ही सीखा. क्रांति के लिए पैसों की व्यवस्था राजनीतिक डकैतियों से करने का तरीका उन्होंने रूसी क्रांतिकारियों से सीखा. जेम्स केरी की हत्या जब कन्हाई दत्त ने की तो उनकी तुलना पैट्रिक ओ. डॉनेल से की जाने लगी. लाला लाजपत राय द्वारा मैजिनी के जीवन पर तैयार की गई पुस्तिका और सावरकर द्वारा 'मैजिनी की आत्मकथा' क्रांतिकारियों की पसंदीदा थीं. इनमें यूरोपीय क्रांति, गैरीबाल्डी और वाशिंगटन के उदाहरण थे. लॉर्ड कर्जन के वायसराय काल (1899-1905) ने भारतीय क्रांतिकारियों को फलने-फूलने और सुदृढ़ होने का लगातार अवसर दिया. कांग्रेस के प्रति सहानुभूतिपूर्ण नीति, उच्च शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर प्रतिबंध और इसे सरकार के अधीन किया जाना, 1904 में यूनिवर्सिटी ऐक्ट पारित किया जाना, फरवरी 1905 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में दिए गए भाषण में बंगालियों के प्रति अभद्र भाषा का प्रयोग किया जाना और अंत में बंगाल-विभाजन इसके उदाहरण हैं.
बंबई प्रेसीडेंसी के रत्नागिरि में 23 जुलाई, 1856 को जनमे बाल गंगाधर तिलक ने 1875 में पूना के डेक्कन कॉलेज से बी.ए. और 1879 में बंबई से कानून की डिग्री हासिल की. 2 जनवरी, 1880 को उन्होंने पूना में 'न्यू इंग्लिश स्कूल' की स्थापना की और 'केसरी' एवं 'मराठा' नामक समाचार-पत्रों का प्रकाशन भी आरंभ किया. 1882 में कोल्हापुर राजनीतिक केस के विरुद्ध समाचार-पत्रों में टिप्पणी छापने के अभियोग में तिलक एवं दोनों समाचार-पत्रों के संपादक आगरेकर के विरुद्ध बंबई हाईकोर्ट में मुकदमा चलाया गया एवं उन्हें तीन महीने की सजा सुनाई गई. 1884 में तिलक और उनके मित्र ने 'डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी' का गठन किया और 1885 में 'फर्ग्युसन कॉलेज' की स्थापना भी की गई. 1894 के करीब श्री दामोदर चाफेकर तथा उनके भाई बालकृष्ण चाफेकर ने एक सभा बनाई, जिसका नाम 'हिंदू धर्म संरक्षिणी सभा' रखा गया. शिवाजी और गणेश उत्सव के समय वे राष्ट्रभक्ति के श्लोक गाते थे.
चाफेकर बंधुओं ने 1896-97 में पूना में 'व्यायाम मंडल' की स्थापना की. वे व्यायाम और शस्त्र संचालन की शिक्षा देकर ऐसे नौजवान तैयार करना चाहते थे, जो देश के लिए प्राणों की बाजी लगाने को तैयार हों. उन्होंने बंबई में विक्टोरिया की मूर्ति के मुंह पर अलकतरा पोता. पूना में 22 जून, 1897 की रात को हीरक जयंती समारोह से लौटते हुए रैंड और एयर्स्ट नामक दो अंग्रेज अधिकारियों को गोली मार दी गई. पूना में प्लेग रोकने के नाम पर लोगों के घरों में घुसकर जोर-जबरदस्ती करने के लिए इन दोनों की बड़ी बदनामी हुई थी. सरकार ने 'व्यायाम मंडल' के सदस्यों को गिरफ्तार किया. तिलक को गिरफ्तार कर लिया गया और अठारह महीने के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई. लेकिन बाद में छह महीने के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया.
महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक क्रांतिकारी विचारों के नेता बनकर उभरे और उन्होंने संपूर्ण भारत के क्रांतिकारियों को एक नवीन नेतृत्व प्रदान किया. उन्होंने अपना नेतृत्व ऐतिहासिक और धार्मिक मान्यताओं को सामने रखकर उभारा. तिलक ने सितंबर 1893 और मई 1895 में गणपति और शिवाजी उत्सव मनाना आरंभ कर दिया था. शिवाजी और गणपति पूजा का आरंभ कर उन्होंने अंग्रेज शासन पर विषाक्त प्रहार किया. अपने दो समाचार-पत्र 'मराठा' और 'केसरी' के माध्यम से भी तिलक ने विदेशी शासन का विरोध आरंभ किया.
1896-97 और 1899-1900 में भारत में बड़े अकाल पड़े. सत्तर और अस्सी के दशक में छोटे-छोटे अकाल पड़े थे. बड़े अकाल के बारे में लॉर्ड कर्जन का आकलन था कि अकाल में भारत की संपूर्ण आबादी का एक-चौथाई भाग प्रभावित हुआ. हालाँकि अब तक कांग्रेस से जुड़े नेताओं का ब्रिटिश सरकार पर भरोसा बना हुआ था, लेकिन नवयुवकों में आक्रोश उत्पन्न होने लगा. गौ-हत्या, एज ऑफ कंसेंट बिल और प्लेग के दौरान पुलिस द्वारा घर-तलाशी लेने के क्रम में किए जा रहे दुर्व्यवहार को रोकने में असफलता का जिम्मा लोगों ने कांग्रेस के सिर मढ़ना आरंभ कर दिया. 1896-97 में ही प्लेग महामारी आई. पूना में इसे 'ताऊन' (एक प्रकार की बीमारी) नाम दिया गया और यह 1897 में भयंकर रूप से फैल रहा था. बीमारों की घर-घर में तलाशी होने लगी और जबरदस्ती घर खाली कराए जाने लगे. मिस्टर रैंड नामक अंग्रेज इस कार्य के लिए विशेष रूप से तैनात होकर आए थे. ये कड़े मिजाजी या बदमिजाजी अधिकारी थे, जिनके व्यवहार से आम जनता में भयंकर असंतोष फैला और रैंड को सार्वजनिक शत्रु करार दिया गया. 4 मई, 1897 को बाल गंगाधर तिलक ने अपने अखबार 'केसरी' में इस आशय का लेख लिखा कि बीमारी तो केवल एक बहाना है, वास्तव में सरकार लोगों की आत्मा को कुचलना चाहती है.
22 जून, 1897 को साम्राज्य में महारानी विक्टोरिया का '60वां राज्याभिषेक दिवस' मनाया जा रहा था. पूना शहर में भी उत्सव हो रहा था. शहर में रोशनी, आतिशबाजी का दौर चल रहा था. दो गोरे ऑफिसर मिस्टर रैंड और लेफ्टिनेंट एयर्स्ट खुशी से मस्त झूमते हुए गणेशकुंड से लौट रहे थे. दोनों गोरे ऑफिसरों को क्रांतिकारियों ने गोली मार दी और वे चीख पड़े. उनकी मृत्यु हो गई. इन क्रांतिकारियों में से एक का नाम था-दामोदर चाफेकर. इसने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की छाती पर पहली गोली मारी थी. हत्या के अभियोग में पकड़े जाने पर चाफेकर ने अदालत में कबूल किया कि हत्या जानबूझकर की गई. इससे पहले बंबई में महारानी विक्टोरिया की मूर्ति के मुंह पर तारकोल पोतनेवाला भी वही था. इसका उद्देश्य यह था कि आर्य भ्राताओं के दिल में उत्साह की लहर पैदा हो और हम लोग विद्रोह का टीका माथे पर लगाएं. चाफेकर बंधुओं को फाँसी की सजा हुई. अंग्रेज अधिकारियों की हत्या का अपराधी करार देकर दामोदर हरि चाफेकर, बालकृष्ण चाफेकर, वासुदेव चाफेकर और महादेव विनायक रानाडे को 18 अप्रैल, 1898 को फाँसी दे दी गई. एक को आजीवन कारावास का दंड दिया और पूना के दो प्रतिष्ठित नागरिक नाटू बंधुओं को 'देश-निकाला' दे दिया. 8 फरवरी, 1899 को 'व्यायाम मंडल' के सदस्यों ने उन द्रविड़ बंधुओं को मृत्युदंड दे दिया, जिन्होंने बीस हजार रुपए के इनाम के लालच में चाफेकर बंधुओं को गिरफ्तार कराया था.
लॉर्ड कर्जन द्वारा लिये गए निर्णय के अनुसार 1901 में 'नॉर्थ-वेस्ट वेस्टर्न फ्रांटियर प्रोविंस' नामक नए प्रांत का गठन पंजाब को विभाजित कर किया गया और इसका व्यापक असर पंजाब की राजनीति पर पड़ा. रूस पर जापान जैसे छोटे देश की विजय होना पंजाब के सुदूर देहात में बसे गांवों में चर्चा का विषय बना. बंगाल-विभाजन एवं महाराष्ट्र में क्रांतिकारी घटनाओं का असर भी पंजाब के जनमानस पर पड़ा.
वारींद्र कुमार घोष का जन्म 1880 में इंग्लैंड में हुआ था. ये श्री अरविंदो के भाई थे और दोनों डॉ. डी.के. घोष के लड़के थे. श्री अरविंदो की सारी शिक्षा इंग्लैंड में ही हुई थी. वे कैंब्रिज विश्वविद्यालय से 'क्लासिकल ट्रिपोज' की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए थे. इनका चयन आई.सी.एस. में हो गया था, किंतु घोड़े की सवारी नहीं आने के कारण इनका चयन अंतिम रूप से नहीं हुआ. 1903 में वारींद्र बंगाल आए, लेकिन स्थिति अनुकूल नहीं देखकर अपने भाई श्री अरविंदो के पास पुन: वापस बड़ौदा चले गए. श्री अरविंदो उस समय बड़ौदा कॉलेज में वाइस प्रिंसिपल थे. 1904 में वे पुन: बंगाल आए. इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 22 मई, 1908 को मजिस्ट्रेट के सामने बयान दिलाया गया.
बंगाल में नव गोपाल मित्र, राज नारायण बोस एवं रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा युवाओं को लगातार उत्साहित किया जा रहा था, जिन्हें बंकिम चंद्र चटर्जी, विवेकानंद और जापानी विद्वान् काकुजो ओकाकुरा के संदेश बताए जा रहे थे. ओकाकुरा 1900-01 में भारत आए और उनके साथ हुई बातचीत से क्रांतिकारियों को नया मनोबल मिला. उन्हें विश्वास हुआ कि ब्रिटेन के विरुद्ध जापान सहायता दे सकता है. (महर्षि) अरविंद के भाई वारींद्र घोष द्वारा कलकत्ता में 'युगांतर' अखबार के प्रकाशन का मुख्य उद्देश्य अंग्रेज शासन का विरोध करना था. 'वंदे मातरम्', 'स्वराज्य' एवं 'न्यू इंडिया' अखबारों में बिपिन चंद्र पाल एवं अरविंदो घोष द्वारा लिखे जानेवाले लेख से क्रांतिकारियों को एक नई दिशा मिलती थी. बंग-भंग लॉर्ड कर्जन के दिमाग की उपज थी. जुलाई 1905 में इसकी घोषणा हुई. इसके विरोध में 'स्वदेशी' का नारा दिया गया. बंग-भंग के बाद पंजाब की क्रांतिकारी गतिविधियों में भी तेजी आई. पंजाब के क्रांतिकारी सतीशचंद्र घोष, इंद्रकांत वगैरह के जरिए बंगाल के क्रांतिकारियों के साथ घनिष्ठ संपर्क रखते थे. उनका नेतृत्व लाला हरदयाल के हाथों में था. पुलिस प्रतिवेदन के अनुसार, अजीत सिंह लाहौर में यूरोपियों को पूर्वी भाषाएं पढ़ाया करते थे.
बंगाल के सतीश चंद्र बसु और इनके साथियों ने लाठी वगैरह चलाना सिखाने के लिए कलकत्ता की मदन मित्र लेन में एक छोटा क्लब खोला था. इसका नाम रखने का सवाल आया तो बसु के विवरण के अनुसार, नरेन भट्टाचार्य (बाद में 'एम.एन. राय' के नाम से विख्यात) ने 'अनुशीलन समिति' नाम सुझाया. इस बीच अरविंद घोष, जो बड़ौदा कॉलेज में वाइस प्रिंसिपल थे, महाराष्ट्र के ठाकुर साहब के 'क्रांतिकारी दल' में शामिल हो चुके थे. उन्होंने 1902 में जतींद्रनाथ बंद्योपाध्याय (जतीन उपाध्याय) को क्रांतिकारी संगठन की नींव डालने के लिए बंगाल भेजा. 'अनुशीलन समिति क्लब' में ट्रेनिंग देनेवालों में वारींद्र घोष, अविनाश भट्टाचार्य और पंडित सखाराम गणेश देउस्कर आदि थे. 1905 में 'भवानी मंदिर' नामक पहली पुस्तक प्रकाशित की गई. 'वर्तमान रणनीति' उनकी दूसरी पुस्तक थी. मार्च 1906 में 'युगांतर' नामक अखबार का प्रकाशन आरंभ किया गया. 'युगांतर' के कई चुने लेखों का संग्रह 'मुक्ति कौन पथे' नामक पुस्तक में प्रकाशित हुआ था.
1906 के आरंभ में लाहौर के एक अंग्रेज पत्रकार ने अपने नौकर को गोली मार दी. लेकिन उसे सिर्फ छह माह की सजा दी गई. जूरियों ने राय दी कि पत्रकार ने जानबूझकर गोली नहीं चलाई थी. रावलपिंडी में रात के समय एक ट्रेन से उतरकर दूसरी ट्रेन की प्रतीक्षा करनेवाली एक औरत को स्टेशन मास्टर के कमरे में ले जाकर गोरे असिस्टेंट स्टेशन मास्टर ने बलात्कार किया. उस पर और उसके नौकर पर मुकदमा चला, किंतु दोनों निर्दोष करार देकर छोड़ दिए गए. कहा गया कि सबकुछ औरत की रजामंदी से हुआ, अत: बलात्कार न था. सहारनपुर के बंगाली प्रवासी जतींद्र मोहन चटर्जी और कुछ नौजवानों ने मिलकर 1904 में एक गुप्त सोसाइटी बनाई और धमोला नामक नदी के किनारे प्रतिज्ञा की थी कि वे देश की स्वाधीनता के लिए अपना जीवन बलिदान कर देंगे. वे शीघ्र ही अपना दफ्तर रुड़की ले गए और खासकर इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों को अपने साथ लिया. शीघ्र ही उनके साथ लाला हरदयाल, अजीत सिंह और सूफी अंबा प्रसाद आ मिले.
6 दिसंबर, 1907 को गवर्नर की गाड़ी अपने पथ पर मिदनापुर के पास से जा रही थी. एक जोर का धमाका हुआ और गाड़ी पटरी से उतर गई. लाट साहब बाल-बाल बच गए. धमाके में पांच फीट चौड़ा और पाँच फीट गहरा गड्ढा हो गया. 1907 के अक्तूबर में ढाका जिले के निताईगंज नामक स्थान में एक आदमी को छुरा मारकर लूट लिया गया. 23 दिसंबर, 1907 को ढाका के भूतपूर्व जिला मजिस्ट्रेट मिस्टर एलन की पीठ पर गोली मारी गई, लेकिन बाद में वे बच गए. 11 अप्रैल, 1908 को चंदन नगर के फ्रेंच मेयर के घर पर बम डाला गया, पर कोई मरा नहीं. इस मेयर ने फ्रेंच भारत से गुप्त रूप से अस्त्र-शस्त्र मँगाने का रास्ता बंद कर दिया था. वारींद्र ने 'युगांतर' अखबार निकाला. 1907 में इसके ग्राहकों की संख्या लगभग 7000 थी. 1908 में इसकी बिक्री और बढ़ गई. किंतु इसी समय 'न्यूजपेपर इनसाइटमेंट टू ऑफेंसेज ऐक्ट' के अनुसार इसे बंद करने का आदेश सरकार की ओर से दिया गया. चीफ जस्टिस सर लारेंस जेंकिंस ने 'युगांतर' की फाइलों के संबंध में बताया कि "इनकी हर एक पंक्ति से अंग्रेजों के प्रति विद्वेष टपकता है. हर एक शब्द से क्रांति के लिए उत्तेजना झलकती है. इसमें बताया गया है कि क्रांति कैसे होगी? वारींद्र घोष ने अपने मित्र भूपेंद्रनाथ दत्त और अविनाश भट्टाचार्य की सहायता से 'युगांतर' प्रकाशित किया और लगभग डेढ़ साल तक चलाया, फिर इसे इसके प्रकाशक को सौंप दिया. 1907 में 14-15 युवकों को संगठित किया और इन्हें क्रांति की शिक्षा दी. वे अस्त्र-शस्त्र भी इकट्ठा करने लगे. अब तक इन्होंने 11 पिस्तौल, चार राइफल और एक बंदूक एकत्र कर लिये थे. उनके संगठन में एक युवक उल्लासकर दत्त भी था. अपने घर में उसने एक अस्थायी प्रयोगशाला विकसित की और वहां पर उसने बम बनाना सीख लिया था. इनकी मदद से 32 नंबर, मुरारी पुकुर रोड, कलकत्ता के एक मकान में बम बनाने का कार्य प्रारंभ हो गया था. इनके एक मित्र हेमचंद्र दास अपनी पूरी जायदाद बेचकर पेरिस जाकर मेकैनिक बन गए और उन्होंने बम बनाना सीख लिया था. मजिस्ट्रेट के समक्ष उन्होंने अपने बयान में कहा कि 'हम नहीं समझते कि राजनीतिक हत्याओं से आजादी किस प्रकार आएगी? हम हत्याएं इसलिए करते हैं कि हम समझते हैं कि जनता को इसकी आवश्यकता है.'48 उपेंद्रनाथ बनर्जी एक प्रसिद्ध लेखक थे और उन्होंने भी कोर्ट में अपना क्रांतिकारी बयान दिया था. वारींद्र घोष जिस षड्यंत्र में पकड़े गए, वह भारतीय इतिहास में 'अलीपुर षड्यंत्र केस' नाम से विख्यात हुआ.
'अलीपुर षड्यंत्र' में 34 आदमी पकड़े गए. नरेन गोसाईं मुखबिर बन गया और उसे 'अलीपुर षड्यंत्र केस' से 30 जून, 1908 को माफी दे दी गई. पुलिस को इनकी सुरक्षा की चिंता बनी रहती थी, इसलिए गोसाईं को जेल में ही रखा गया, सिर्फ जेल के अस्पताल में इन्हें भेज दिया गया. पुलिस अब इनकी सुरक्षा को लेकर आश्वस्त हो गई. लेकिन क्रांतिकारी गोसाईं को मारने का संकल्प कर चुके थे. जेल के अंदर किसी की हत्या करना एक कठिन काम था. कहा जाता है कि मछली या कटहल के बीच में चाकू और पिस्तौल जेल के अंदर लाया गया. इस काम में क्रांतिकारियों से सहानुभूति रखनेवाले जेल के कुछ कर्मचारियों की मिलीभगत की भी चर्चा हुई. पहले सत्येन ने खांसी की बीमारी का बहाना बनाया और जेल अस्पताल के अंदर चले गए. बाद में कन्हाई लाल ने पेट की बीमारी एवं दर्द की शिकायत जेल अधिकारियों से की और उन्हें भी अस्पताल में भरती कराया गया. कन्हाई लाल की हालत देखकर डॉक्टर ने बताया कि यह कैदी अब कुछ ही दिनों का मेहमान है.
इससे पहले से ही सत्येन क्रांतिकारी जीवन से ऊब चुकने की बात जेल के कई कर्मचारियों को बताया करता था. कई अवसरों पर वह यह भी प्रकट कर चुका था कि वह नरेन की तरह पुलिस का मुखबिर बनना चाहता है और वह विभिन्न लोगों की सहायता से यह संकेत नरेन को दिया करता था. सत्येन के अभिनय से जेलर के साथ-साथ अस्पताल के लोग भी प्रभावित हो गए. बुलाने पर नरेन गोसाईं सत्येन से मिलने अस्पताल आया, परंतु उसके साथ जेलर भी था. नरेन के सामने आते ही सत्येन ने गोली चला दी. लेकिन गोली नरेन के पाँव में लगी और वह भागा. स्थिति को देखकर कन्हाई ने पीछा गया. बीच में एक फाटक पड़ता था, नरेन फाटक के उस पार चला गया. कन्हाई के लिए यह पता करना मुश्किल होता जा रहा था कि नरेन किस ओर भागा है. लेकिन पहरेदार ने फाटक खोल दिया और इशारा भी किया कि नरेन उधर गया है. कन्हाई दौड़कर नरेन के नजदीक आया और गोलियों से उसे छलनी कर दिया.
नरेन की हत्या की खबर ने क्रांतिकारियों में एक नए उत्साह का संचार किया. सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने बंगाली दफ्तर में मिठाई बांटीं और इसे 'राष्ट्रीय विजय' की संज्ञा दी. हत्या के अभियोग में 10 नवंबर, 1908 को सत्येन और कन्हाई को फाँसी की सजा दे दी गई. 10 फरवरी, 1909 को 'अलीपुर षड्यंत्र' के सरकारी वकील को जान से मार डाला गया. 24 फरवरी, 1910 को अदालत के सामने इस कांड की देख-रेख कर रहे डी.एस.पी. को गोली मार दी गई.
दसवीं जाट रेजीमेंट में बगावत
राष्ट्रवादी क्रांतिकारियों ने 10वीं जाट रेजीमेंट को अपनी तरफ मिलाकर गवर्नर जनरल, प्रधान सेनापति और ब्रिटिश हुकूमत के अन्य उच्च अधिकारियों को खत्म कर देने की योजना बनाई थी. 1905 के 'बड़ा दिन' के अवसर पर बंगाल के गवर्नर की कोठी में वॉल डांस का इंतजाम था. इसमें वायसराय मिंटो, प्रधान सेनापति और अन्य सभी उच्च अधिकारियों को आमंत्रित किया गया था. क्रांतिकारियों ने नृत्य के उस हॉल को ही उड़ा देने की योजना बनाई थी, ताकि ब्रिटिश हुकूमत के सारे अधिकारी खत्म हो जाएं. उस वक्त पहरा देने के लिए 10वीं जाट रेजीमेंट तैनात की जानेवाली थी. क्रांतिकारियों ने उसे अपने पक्ष में मिला लिया था.
इस रेजीमेंट के एक सैनिक ने आखिर में गद्दारी की और इस योजना की सूचना अधिकारियों को दे दी. फलत: इस रेजीमेंट के 25 सैनिकों पर अदालत में मुकदमा चलाया गया था और उन पर क्रांतिकारी दल होने का अभियोग लगाया गया. लेकिन कलकत्ता में उस समय रूस के प्रधान वाणिज्य दूत अरसेनिया द्वारा 6 फरवरी, 1910 को पीर्ट्सबर्ग भेजे संवाद के अनुसार 42 सैनिकों पर मुकदमा चलाया गया.55 क्रांतिकारी होतीलाल वर्मा के अनुसार, वे स्वयं अलीपुर स्थित जाट रेजीमेंट में जाया करते थे और इस संबंध में हावड़ा के डॉ. शरतचंद्र मित्तर पर भी मुकदमा चला था. वारींद्र घोष और उनके साथियों ने कई नवयुवकों, 11 रिवॉल्वर, 4 राइफल और एक बंदूक इकट्ठा की और धार्मिक एवं शारीरिक शिक्षा आरंभ की. बंगाल में कई गुप्त समितियों का गठन हुआ. बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर की हत्या के कई षड्यंत्र रचे गए. इस गुट में शामिल होनेवाले उल्लासकर दत्त ने बम बनाना सीखा था. उनकी सहायता से कलकत्ता के मानिकतला में 32, मुरारी पुकुर रोड के बगीचेवाले मकान में बम बनाने का छोटा सा कारखाना खोला गया. उनके साथ हेमचंद्र दास (कानूनगो) आ मिले, जिन्होंने अपनी सारी संपत्ति बेचकर रूस जाकर बम बनाने की कला सीखी थी.
इस गुट ने पहला बम पूर्व बंगाल के अत्याचारी लेफ्टिनेंट गवर्नर सर बैमफील्ड फुलर को मार डालने के लिए तैयार किया था. इस काम को पूरा करने का भार सत्रह वर्ष के नौजवान प्रफुल्ल चाकी को सौंपा गया था, किंतु वह सफल न हो सके. इसके बाद 6 दिसंबर, 1907 को बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर की ट्रेन मेदिनीपुर के पास उड़ा देने की कोशिश की गई, किंतु ट्रेन सिर्फ पटरी से उतरकर रह गई. कोई हताहत नहीं हुआ. 11 अप्रैल, 1908 को चंद्रनगर के फ्रांसीसी मेयर को बम मारकर खत्म करने का प्रयत्न किया गया. 30 अप्रैल, 1908 को मुजफ्फरपुर में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने जिला जज डी.एच. किंग्सफोर्ड को खत्म करने के लिए बम फेंका. किंग्सफोर्ड ने कलकत्ता के चीफ प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट की हैसियत से क्रांतिवादी पत्र 'युगांतर', 'वंदे मातरम्', 'संध्या' और 'नवशक्ति' से संबंधित लोगों को सजाएं दी थीं. 26 अगस्त, 1907 को अरविंद घोष पर 'वंदे मातरम्' के सिलसिले में चले मुकदमे के दौरान अदालत के भीतर और बाहर जो गड़बड़ी हुई थी, उसके सिलसिले में गिरफ्तार सुशील कुमार सेन को किंग्सफोर्ड ने दूसरे दिन 15 बेंत मारने की सजा दी थी. क्रांतिकारियों के अनुसार इन्हीं कारणों से किंग्सफोर्ड को खत्म कर देने का फैसला किया गया था. मुजफ्फरपुर में किंग्सफोर्ड की ही घोड़ागाड़ी की तरह घोड़ागाड़ी को क्लब से लौटते देख खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने उस पर बम चलाया. दुर्भाग्य कि उस गाड़ी में राष्ट्रीय आंदोलन से हमदर्दी रखनेवाले मिस्टर कैनेडी की पत्नी और पुत्री थीं. पुत्री तुरंत मारी गई और पत्नी ने बम आघात से 28 घंटे बाद दम तोड़ दिया. किंग्सफोर्ड ठीक वैसी ही गाड़ी में कुछ पीछे आ रहा था, वह साफ बच गया. खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी भाग निकले, लेकिन पुलिस के जाल से वे बच न सके. खुदीराम को 1 मई को वाइनी स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें 11 मई, 1908 को फांसी दी गई. प्रफुल्ल चाकी को समस्तीपुर स्टेशन पर 2 मई, 1908 को बीरभूम जिला पुलिस के एक सब-इंस्पेक्टर ने पहचान लिया. उसने मोकामा स्टेशन पर दूसरे पुलिस अफसरों के साथ मिलकर उन्हें गिरफ्तार करने की कोशिश की. गिरफ्तारी से बचने के लिए चाकी ने अपनी पिस्तौल की आखिरी गोली स्वयं मार ली.60
सरकार लाला लाजपत राय को पंजाब के सारे क्रांतिकारी आंदोलन का मस्तिष्क और अजीत सिंह को उनका दाहिना हाथ समझती थी. इसलिए उन दोनों को गिरफ्तार करने और मांडले ले जाकर नजरबंद करने के वारंट 7 मई, 1907 को जारी किए गए. लाला लाजपतराय को 9 मई को लाहौर में उनके घर से गिरफ्तार किया गया, किंतु अजीत सिंह फरार हो गए. उन्हें 2 जून को अमृतसर में गिरफ्तार किया गया. 1909 में लाहौर में बहुत सी पुस्तक-पुस्तिकाएं प्रकाशित हुईं, जो क्रांतिकारी सिद्धांतों का प्रचार करती थीं. इन पुस्तकों के प्रकाशन और वितरण के लिए जिम्मेदार मुख्यत: लालचंद फलक, अजीत सिंह, उनके दो भाई किशन सिंह और सोरबन सिंह तथा अंबाप्रसाद थे. लालचंद फलक कवि थे. उन्होंने 1907 के आंदोलन में हिस्सा लिया था और लाहौर के हंगामे में उन्हें सजा भी हुई थी, लेकिन अपील करने पर वह छूट गए थे.
सूफी अंबाप्रसाद संयुक्त प्रदेश के मुरादाबाद के रहनेवाले थे. उन्हें 1897 में राजद्रोह के अभियोग में 18 महीने की कड़ी सजा हुई थी. 1901 में फिर उन्हें मानहानि, धमकी और जाली दस्तावेज को असली बताने के अभियोग में दंड मिला था. 10 फरवरी, 1907 को वह जेल से रिहा किए गए थे. लालचंद फलक और अंबाप्रसाद दोनों अजीत सिंह की क्रांतिकारी संस्था 'मुहिब्बाने वतन' के सदस्य थे. अंबाप्रसाद उर्दू के बड़े अच्छे लेखक थे. अजीत सिंह और उनके भाई जिन पुस्तकों का वितरण करते थे, उनमें से अधिकांश के लेखक अंबाप्रसाद थे. इन पुस्तकों के प्रकाशन और वितरण के लिए लालचंद फलक ने लाहौर में 'वंदेमातरम् बुक एजेंसी' और अजीत सिंह ने 'भारतमाता बुक एजेंसी' खोल रखी थी.
नवंबर 1909 में अजीत सिंह, अंबाप्रसाद, सोरबन सिंह, लालचंद फलक और किशन सिंह पर मुकदमा चलाया गया. अजीत सिंह और अंबाप्रसाद फरार होकर फारस चले गए. सोरवन सिंह बीमार थे, इसलिए उनके ऊपर से मुकदमा हटा लिया गया तथा अगले साल उनकी मृत्यु भी हो गई. लालचंद फलक को चार साल की और किशन सिंह को दस महीने की सजा दी गई. नवंबर 1909 में अजीत सिंह की 'भारतमाता बुक एजेंसी' की तलाशी ली गई. वहां भाई परमानंद भी रहते थे और उनके संदूक में बम बनाने की पुस्तिका और क्रांतिकारी योजनाओं के कुछ कागजात पाए गए थे. भाई परमानंद 1907 में लंदन में किंग्स कॉलेज में इतिहास पढ़ते थे, उस वक्त लाजपतराय ने उन्हें ये पत्र लिखे थे. लाला हरदयाल अगस्त 1908 में भारत छोड़कर यूरोप चले गए और अपने क्रांतिकारी गुट का नेतृत्व दिल्ली के मास्टर अमीरचंद के हाथों में छोड़ गए. हरदयाल के दूसरे शिष्य सहारनपुर के ज्योतिंद्र मोहन चटर्जी और लाहौर के दीनानाथ थे. ये लोग परस्पर मिलकर काम करते थे. चटर्जी भी जल्दी ही इंग्लैंड चले गए और दीनानाथ का संपर्क रासबिहारी बोस से करा गए. 1910 में बोस लाहौर गए और हरदयाल के गुट का नेतृत्व अपने हाथ में लिया. उस वक्त बोस देहरादून के 'इंपीरियल फाेरेस्ट इंस्टीट्यूट' में क्लर्क थे. सावरकर ने पूना के फर्ग्युसन कॉलेज में शिक्षा पाई थी और बंबई विश्वविद्यालय से बी.ए. की डिग्री ली थी. वे नासिक जिले के रहनेवाले थे. 1905 में वे श्री अगम्य गुरु परमहंस के प्रभाव में आ गए थे. गुरु ने एक-एक आना चंदा इकट्ठा करने की सलाह दी थी और कहा था कि सरकार से डरो मत. पूना में नौ आदमियों की कमेटी बनाई गई. इनके भाई गणेश दामोदर सावरकर ने 'तरुण भारत सरकार' की स्थापना की थी. नासिक में गणपति उत्सव मनाने के सिलसिले में 'मित्र मेला' की स्थापना हुई और 1904 में सावरकर-बंधु (गणेश और दामोदर) उसके प्रमुख सदस्य बन गए. इसी 'मित्र मेला' से 1907 तक 'अभिनव भारत' नाम की गुप्त संस्था का जन्म हुआ. इस संस्था की शाखाएं महाराष्ट्र के कई जगहों में फैलती चली गईं. उसने सभाओं, पुस्तिकाओं, गणपति और शिवाजी के उत्सवों, गीतों आदि द्वारा सशस्त्र संग्राम के जरिए महाराष्ट्रवासियों के मन में देश को स्वतंत्र करने की भावना का सतत प्रयास किया. 'अभिनव भारत' का फैलाव कर्नाटक, मध्य प्रदेश और दिल्ली तक हो गया. उसने बंगाल के क्रांतिकारियों से भी संबंध स्थापित किया. उसने देश-विदेश से तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र इकट्ठा करने की कोशिश की. 1906 में विनायक दामोदर सावरकर लंदन चले गए. उस समय उनकी उम्र मात्र 22 साल थी.
जिस समय विनायक इंग्लैंड गए, सावरकर बंधुओं में सबसे ज्येष्ठ गणेश दामोदर सावरकर 'मित्र मेला' नामक संस्था के नेता थे और गणेश नासिक में इस संस्था के व्यायाम इत्यादि के शिक्षक थे. वर्ष 1908 में मराठी कविता लिखने एवं उनके संगठन 'लघु अभिनव भारत मेला' के कृत्यों के आरोप में दफा 121 के तहत इन पर मुकदमा चलाया गया और नासिक में 9 जून, 1909 को इन्हें आजीवन निर्वासन का दंड दिया गया. गणेश सावरकर पर निचली अदालत में मुकदमा करनेवाले अंग्रेज का नाम जैक्सन था. जैक्सन ने बाबाराव सावरकर (सावरकर के बड़े भाई) की 'लघु अभिनव भारतमाता' कविता पर भी रोक लगाई थी. इन्हें बेड़ियों में जकड़कर रोड पर घुमाया गया. 18 नवंबर, 1909 को बंबई हाईकोर्ट ने उनकी अपील बरखास्त कर दी और सजा बहाल रखी.
क्रांतिकारी अनंत लक्ष्मण कन्हारे का जन्म महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले के आयनी मेटे नामक गांव में हुआ था. इनकी पढ़ाई औरंगाबाद और फिर नासिक में हुई. वीर सावरकर द्वारा स्थापित 'अभिनव भारत' नामक संस्था के ये सदस्य बने. जैक्सन को प्रोन्नति देकर बंबई का आयुक्त बनाया गया था और वे नासिक से बंबई जाने की तैयारी कर रहे थे. जैक्सन नाटकों का शौकीन था. नाटक मंडली अपने नाटक का विमोचन जैक्सन से करवाकर उन्हें विदाई देनेवाली थी. जैक्सन के विदाई समारोह में 21 दिसंबर, 1909 की रात को एक नाटक खेला जा रहा था. ये तीनों क्रांतिकारी विजयानंद नाट्यगृह में जाकर बैठ गए. जैक्सन के नजदीक कान्हा बैठा था. ज्यों ही जैक्सन इसे देखने के लिए फाटक पर पहुंचा, अनंत लक्ष्मण कन्हारे ने ब्राउनिंग पिस्तौल से गोली दाग दी. किंतु निशाना चूक गया. दूसरी गोली बांह पर लगी और जैक्सन नीचे गिर गया. शुरू में लोगों को लगा कि जैक्सन के स्वागत में पटाखे चलाए जा रहे हैं. कन्हारे ने कई गोलियां जैक्सन को मारीं. नासिक के क्रांतिकारियों के कर्वे गुट ने जिला मजिस्ट्रेट जैक्सन की हत्या कर गणेश सावरकर के निर्वासन का बदला चुकाया. गोलीबारी के बाद क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया.
जैक्सन की हत्या के अपराध में सात आदमियों पर मुकदमा चलाया गया, जिनमें से तीन को फाँसी दे दी गई. नासिक में एक षड्यंत्र केस चला, जिसमें 38 आदमियों पर मुकदमा चला. उसमें से 27 आदमी दोषी ठहराए गए और उन्हें सजा हुई. 19 अप्रैल, 1910 को ठाणे की जेल में तीनों क्रांतिकारियों अनंत लक्ष्मण कन्हारे, विनायक देशपांडे और कृष्ण गोपाल कर्वे को फाँसी दी गई. फाँसी के समय अनंत लक्ष्मण कन्हारे की उम्र 18 वर्ष थी. विनायक दामोदर सावरकर को लंदन से गिरफ्तार कर नासिक लाया गया और 37 आदमियों के साथ 'नासिक षड्यंत्र' केस चलाया गया. दिसंबर 1910 में विनायक सावरकर को आजीवन निर्वासन का दंड दिया गया. जिस पिस्तौल से जैक्सन को मारा गया, वह पिस्तौल सावरकर ने इंग्लैंड से भेजा था. बाद में 13 मार्च, 1910 को लंदन में सावरकर को गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें भारत लाकर उन पर दो मुकदमे चलाए गए और अंत में उन्हें दो आजीवन कारावास की सजा सुनाई गईं. लंदन से सावरकर ने कई हथियार इस संस्था को भेजे थे. पांडुरंग महादेव बापट को 'अभिनव भारत' ने रूसी क्रांतिकारियों से बम बनाने की कला सीखने के लिए पेरिस भेजा था. वहां हेमचंद्र दास और मिर्जा अब्बास के साथ उन्होंने यह कला सीखी. गिरफ्तारी से पहले ही गणेश सावरकर को इस बात की सूचना मिल गई कि अमुक जहाज से हथियार आ रहा है और उन्होंने इसकी सूचना अपने मित्र को दे दी.
बनारस में 1907 में 'शिवाजी महोत्सव' मनाया गया और एक जुलूस निकालने की तैयारी की गई. इस समारोह में पंडित सुंदरलाल ने क्रांतिकारी भाषण दिया, जिसके कारण पुलिस ने जुलूस निकालने की आज्ञा ही नहीं दी. सुंदरलाल ने 1909 में इलाहाबाद से 'कर्मयोगी' निकाला. इसकी घोषणा 'अभ्युदय' के 23 जुलाई, 1909 के अंक में की गई.
कलकत्ता के नेशनल कॉलेज के प्राध्यापक पंडित मोक्षदा चरण समध्याय के घनिष्ठ सहयोगी सुरानाथ भादुड़ी अप्रैल 1908 में बनारस आए और शचींद्र नाथ सान्याल की मदद से बंगाल के बाहर भी 'अनुशीलन समिति' की स्थापना की. उस वक्त सान्याल बंगाली टोला हाई स्कूल के एंट्रेंस के छात्र थे. पुलिस का ध्यान इस नाम की तरफ जाते ही उसे बदलकर 1910 में 'युवक समिति' कर दिया गया. सान्याल ने कलकत्ता के पत्रकार माखन लाल सेन की मार्फत बंगाल के क्रांतिकारियों के साथ संपर्क स्थापित किया. रासबिहारी बोस को पुलिस 'दिल्ली षड्यंत्र केस' में सारे भारत में खोज रही थी. वे प्राय: एक साल तक बनारस में रहे, लेकिन पुलिस को उनका पता न लगा. 18 नवंबर, 1912 को बम का प्रशिक्षण देने के क्रम में रासबिहारी बोस के घर में एक बम फट गया और इसके बाद रासबिहारी बोस को अन्यत्र जाना पड़ा.85 बंग-भंग के बाद पंजाब के क्रांतिकारी कामों में भी सरगर्मी आई. ये क्रांतिवादी सतीश चंद्र घोष, चंद्रकांत वगैरह के जरिए बंगाल के क्रांतिकारियों के साथ घनिष्ठ संपर्क रखते थे. पुलिस की रिपोर्ट के अनुसार अजीत सिंह लाहौर में यूरोपियों को पूर्वी भाषाएं पढ़ाया करते थे. 1906 में उनके शिष्यों में लासेफ नामक रूसी भी था.
1907 में पंजाब के गवर्नर सर डेनजिल इबटसन ने एक रिपोर्ट में लिखा कि नए विचारों का बड़े जोर से प्रचार हो रहा है. पूर्वी तथा पश्चिमी पंजाब में ये विचार पढ़े-लिखे लोगों में, विशेषकर वकील, मुंशी और छात्रों में फैल रहे थे. किंतु मध्य पंजाब में तो ये विचार हर श्रेणी में फैले मालूम देते हैं. लोगों में बड़ी बेचैनी तथा असंतोष है. लाहौर से आंदोलनकारी आ-आकर अमृतसर और फिरोजपुर में राजद्रोह का प्रचार कर रहे थे. फिरोजपुर में इनको काफी सफलता मिली, जबकि अमृतसर में ये इतने सफल न रह सके. ये रावलपिंडी, स्यालकोट तथा लायलपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध बड़े जोर-शोर से प्रचार कार्य कर रहे हैं. लाहौर में तो इस प्रचार कार्य का कुछ कहना ही नहीं. इससे सारे शहर में एक गहरी बेचैनी फैली थी. दो जगह गोरों का अपमान गोरा होने की वजह से किया गया और एक जगह तो ऐसा हुआ कि एक संपादक को सजा दी गई तो दंगा ही हो गया.
बिहार के पटना, देवघर, दुमका आदि शहरों में क्रांतिकारियों की गतिविधियों के अध्ययन से पता चलता है कि इनमें से अधिकांश का संबंध बंगाल से आए क्रांतिकारियों एवं 'अनुशीलन समिति' के साथ था. कटक के जाजपुर के पास चैनपुर में हुई डकैती में अधिकतर नौजवान बिहार के थे. सान्याल ने पटना के बांकीपुर में 'अनुशीलन समिति' की शाखा खोली थी. बिहार के नौजवानों में स्वदेश-प्रेम की भावना पैदा करनेवालों में 'बिहार नेशनल कॉलेज' के अंग्रेजी के प्राध्यापक और पटना लॉ कॉलेज में कानून के प्राध्यापक कामाख्यानाथ मित्र का स्थान अगली कतार में था. 1911 में 'बिहार यंगमैंस इंस्टीट्यूट' में उनका भाषण हुआ. इस भाषण में उन्होंने बताया कि जब स्वामी विवेकानंद अमेरिका से लौटे थे तो उस वक्त वे छात्र थे और स्वामीजी से मिलने गए थे. उस वक्त स्वामीजी ने उनसे कहा था-'भारत को आज जिस चीज की जरूरत है, वह है बम.' बाद में कामाख्या बाबू को कॉलेज की नौकरी छोड़नी पड़ी.
क्रांतिकारियों की गतिविधियां तत्कालीन मध्य प्रदेश में भी थीं. 'मानिकतला बम केस' में एक अभियुक्त ने कहा था कि अकोला के ब्राह्मण गणेश श्रीकृष्ण खापर्डे ने नागपुर के नौजवान बी.एच. काने को बम बनाना सीखने के लिए कलकत्ता भेजा था. 'मानिकतला केस' में काने को भी सजा हुई थी, लेकिन अपील करने पर उसे छोड़ दिया गया था. 1905 के बाद राजस्थान में भी क्रांतिकारी संगठन की नींव रखी गई. इसकी पहल करनेवालों में अर्जुन लाल सेठी, बरहत केशरी सिंह और राव गोपाल सिंह आदि प्रमुख थे. अर्जुनलाल सेठी का संबंध दिल्ली के मास्टर अमीरचंद, अवध बिहारी और बालमुकुंद जैसे क्रांतिकारियों के साथ था. ग्वालियर में षड्यंत्र के दो मुकदमे चले. एक में 22 व्यक्तियों को तथा दूसरे में 19 व्यक्तियों को फाँसी की सजा दी गई. इनमें से अधिकतर चितपावन ब्राह्मण थे. 1910 में सतारा में एक षड्यंत्र का पता लगा. तीन ब्राह्मणों पर मुकदमा चलाया गया. इन पर आरोप था कि ये लोग 'अभिनव भारत समिति' के सदस्य थे.
अप्रैल 1907 में बिपिन चंद्र पाल का मद्रास दौरा हुआ और उन्होंने विभिन्न स्थानों पर हुए अपने भाषण में स्वाधीनता की चर्चा की. राजमुंदरी में पाल के भाषण के पाँच दिन बाद ही 24 अप्रैल, 1907 को वहां के सरकारी कॉलेज के छात्रों ने हड़ताल कर दी. काकीनारा में पाल के भाषण का प्रभाव यह हुआ कि गोरों को देखकर बच्चे 'वंदे मातरम्' का नारा लगाने लगते. 1 मई, 1907 को एक लड़के ने जिला मेडिकल अफसर के सामने नारा लगाया तो उसके कान मल दिए गए. प्रतिक्रिया यह हुई कि उसी रात को जनता ने उस यूरोपीय क्लब पर आक्रमण किया, जिसमें वह अफसर खाना खा रहा था. 9 मार्च, 1907 को चिदंबरम पिल्लई ने तिनेवेली के अपने भाषण में और सुब्रह्मनिया शिवा ने अपने भाषण में लोगों से विदेशी चीजों का बायकॉट करने की अपील की. 12 मार्च को इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. परिणाम यह हुआ कि 13 मार्च को तिनेवेली और तूतीकोरिन में बड़ा हंगामा मचा और लोगों ने सरकारी इमारतों और दफ्तरों पर हमला कर उनमें आग लगा दी. बी.बी.एस. अय्यर त्रिचनापल्ली के रहनेवाले थे और वहीं वकालत करते थे. 1907 में वह रंगून गए और आगामी वर्ष इंग्लैंड गए. वहां वे सावरकर के संपर्क में आए. सावरकर की गिरफ्तारी के बाद इंग्लैंड से वे पेरिस चले गए और वहां वह मदाम कामा से मिले. अक्तूबर 1910 में वे भारत आए और मुसलमान का भेष धारण कर पांडुचेरी आ पहुंचे और क्रांति का प्रचार करने लगे. मदाम कामा से उनका पत्र-व्यवहार होता था और वह उनके कामों की सहायता के लिए प्रतिमास 50 फ्रैंक भेजती थीं.
नीलकंठ अय्यर पांडचेरी क्रांतिकारी दल के सदस्य थे और साधु का भेष धारण कर स्वदेशी का प्रचार करते और अपना परिचय 'नीलकंठ ब्रह्मचारी' के रूप में देते. उनकी गिरफ्तारी के लिए 1000 रुपए के पुरस्कार की घोषणा की गई, लेकिन बाद में उन्होंने स्वयं कलकत्ता के पुलिस कमिश्नर के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया. शंकरकृष्ण अय्यर के साथ घूम-घूमकर उन्होंने दक्षिण भारत में क्रांति का प्रचार किया था. जून 1910 में शंकर ने अपने बहनोई वांची का परिचय नीलकंठ से कराया. नीलकंठ जब पांडचेरी में थे, तभी पेरिस से सुब्रहमनिया अय्यर (बी.बी.एस. अय्यर) वहां आए थे.
17 जून, 1911 को मद्रास के निकट तिनेवेली के जिला मजिस्ट्रेट ऐश को दोपहर के लगभग रेल के डिब्बे में तिनेवेली जिले के मनियाची जंक्शन पर गोली मार दी गई. लगभग बीस मिनट बाद ऐश की मृत्यु हो गई. गोली मारनेवाले का नाम था वांची अय्यर, जो त्रावणकोर के जंगलात के महकमे में किरानी थे. उन्होंने कुछ मिनट बाद ही आत्महत्या कर ली. वांची के साथ उनके साले शंकरकृष्ण अय्यर भी थे. वे भाग निकले, किंतु बाद में पकड़े गए और उन्हें चार साल की सजा हुई. पुलिस प्रतिवेदन के अनुसार वी.वी.एस. अय्यर ने ही वांची अय्यर को ऐश की हत्या करने के लिए तैयार किया था. ब्रिटिश शासकों ने ऐश की हत्या के बाद 'तिनेवेली षड्यंत्र केस' चलाया. मद्रास हाईकोर्ट के स्पेशल ट्रिब्यूनल ने इसका फैसला 15 फरवरी, 1912 को सुनाया. 14 अभियुक्तों में से 9 को सजा दी गई. प्रथम अभियुक्त नीलकंठ अय्यर को सात साल की कड़ी सजा दी गई.
सप्तम एडवर्ड की मृत्यु के बाद जॉर्ज पंचम के सम्राट बनने पर 12 दिसंबर, 1910 को 'दिल्ली दरबार' किया गया. 23 दिसंबर, 1912 को दोपहर के लगभग वायसराय की नई राजधानी में प्रवेश की रस्म अदा करने के लिए हाथी पर बैठकर सवारी निकाली थी. हौदे के सामने की दाहिनी सीट पर वायसराय बैठा था और बाईं सीट पर लेडी हार्डिंग बैठी थीं, पीछे दो सेवक बैठे थे. जब सवारी चाँदनी चौक से होकर धुलिया कटरा के सामने से जा रही थी, तभी एक बम आ गिरा और वायसराय के ठीक पीछे बैठे सेवक के सामने फटा. सेवक उसी वक्त मर गया. खुद वायसराय बम और हौदे के टुकड़ों से गंभीर रूप से घायल हो गए. बसंत विश्वास और मन्मथ विश्वास नामक दो क्रांतिकारी स्त्रियों का भेष धारण कर छत पर सवारी देखने बैठी स्त्रियों के बीच जा बैठे थे और वहीं से उन्होंने बम फेंका था. कांग्रेस ने तत्काल ही पटना में चल रहे अधिवेशन में इस घटना पर दुःख प्रकट करते हुए एक तार संदेश हार्डिंग को प्रेषित किया. इसके अभियोग में अनेक गिरफ्तारी की गईं और उन पर दो वर्ष तक मुकदमा चला. यह मुकदमा 'दिल्ली षड्यंत्र केस' के नाम से मशहूर हुआ. इसमें दीनानाथ मुखबिर बन गया. आखिर में मई 1915 में अमीरचंद मास्टर, अवध बिहारी और बालमुकुंद को दिल्ली में तथा बसंत कुमार विश्वास को अंबाला में फाँसी दी गई तथा चरनदास को आजीवन काला पानी की सजा दी गई. रासबिहारी बोस गिरफ्तारी से बचने के लिए भारत से निकल भागे और जापान पहुंच गए.
लॉर्ड हॉर्डिंग पर बम 1912 में फेंका गया और लॉर्ड इरविन पर 1929 में बम फेंका गया. 1909 में लॉर्ड और लेडी मिंटो अहमदाबाद आई थीं तो उनकी गाड़ी पर भीड़ में से किसी एक ने बम फेंका था. वह बम फूटा नहीं. जब इसकी तलाशी ली गई कि आखिर क्या गिरा है तो तलाशी लेनेवाले व्यक्ति ने पाया कि एक बम जैसी चीज गिरी है. इसी क्रम में बम फट गया और उसका हाथ उड़ गया. यही लॉर्ड मिंटो थोड़े दिनों बाद अंडमान का निरीक्षण करते हुए एक पठान कैदी की छुरी से मारे गए.
प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व अमेरिका एवं कनाडा में भारतीय क्रांतिकारी
काठियावाड़ रियासत के एक धनी परिवार के युवक श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म 1857 में हुआ और 40 वर्ष की उम्र में वे 1897 में लंदन आए. इनका निवास 9, क्वींस वुड, हाईगेट में था और इनके संपर्क में सरदार सिंह रावोजी राणा (एस.आर. राणा) और मैडम भीकाजी रुस्तमजी कामा आईं. एस.आर. राणा 1898 में लंदन आए और शीघ्र ही श्यामजी के विचारों से ओत-प्रोत हो गए. अगले वर्ष वे गहनों का व्यापार करने के लिए पेरिस चले गए. कुछ वर्ष बाद वहां उन्होंने एम.वी.गोदरेज के साथ 'पेरिस इंडियन सोसाइटी' का गठन किया. गोदरेज 1901 में पेरिस आए थे. व्यापार के सिलसिले में राणा हमेशा लंदन आते रहते थे और इस क्रम में श्यामजी से लगातार उनका संपर्क बना रहता था.
रैंड पर जब गोली चली, श्यामजी कृष्ण वर्मा बंबई में थे. पुलिस उस हत्याकांड में उन्हें भी फँसाना चाह रही थी. वे इंग्लैंड चले गए. 1905 में उन्होंने 'इंडिया होम रूल सोसाइटी' नाम की एक सभा स्थापित की और खुद उस सभा के सभापति हुए. उस सभा ने एक मासिक मुख पत्रिका निकाली, जिसका नाम 'इंडियन सोशियोलॉजिस्ट' पड़ा. इंग्लैंड में भारतीय छात्रों के बीच स्वदेश की भावना के विकास हेतु दिसंबर 1905 में श्यामजी ने ऐलान किया कि वे हजार-हजार रुपए की 6 छात्रवृत्तियां दे रहे हैं, जिससे कि लेखक, पत्रकार तथा दूसरे योग्य युवक भारतवर्ष से यूरोप, अमेरिका तथा अन्य देशों में आ सकें और स्वदेश में लौटकर स्वाधीनता तथा राष्ट्रीय एकता का ज्ञान फैला सकें. इसके साथ पेरिस निवासी श्री एस.आर.राणा का एक पत्र भी प्रकाशित किया गया, जिसमें उन्होंने दो-दो हजार रुपए की तीन वृत्तियों विदेश-भ्रमण के लिए राणा प्रताप सिंह, शिवाजी तथा किसी प्रख्यात मुसलमान राजा के नाम पर रखने का वादा किया था. 1903 के पूर्व अमेरिका में भारतीयों की संख्या अत्यधिक कम थी. ब्रिटेन की अपेक्षा यहां कार्य करने की अधिक आजादी थी. अमेरिका में आयरिश अमेरिकन की संख्या अधिक थी और वे ब्रिटिश सरकार के विरोधी थे. इनमें से कई लोग कामा और श्यामजी को जानते थे और उनका पत्राचार भी चलता था. इन लोगों के सहयोग से 'इंडो आयरिश' की शुरुआत हुई और क्रांति के परचे भारत भेजे जाने लगे. आयरिश और भारतीयों के बीच संगठन बनाने में भारतीय छात्र कैमिली एफ. सलदंहा ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. सिन फेन नेता से दोस्ती बढ़ाने के लिए मई 1906 में उन्हें डब्लिन भेजा गया, जिसमें क्लान-ना-गेल ने मदद की. मार्च 1907 में 'वेदांत सोसाइटी' द्वारा 135, वेस्ट 80वीं स्ट्रीट में मकान खरीद लिया गया. भीकाजी कामा भी 1901 में लंदन आईं. 1897 के प्लेग के दौरान हुए अनुभव ने कामा को अंग्रेजी सरकार का घोर विरोधी बना दिया था और वे शीघ्र ही श्यामजी समूह की प्रमुख सदस्या बन गईं. इसी वर्ष श्यामजी के साथ जे.एम. पारिख और जे.सी. मुखर्जी आदि जुड़े. लेकिन भारत की स्थिति अलग थी. यहां संगठन बनाने की स्वतंत्रता बहुत कम थी. मराठी साप्ताहिक 'केसरी' में प्रकाशित दो लेखों के अभियोग में 24 जून, 1908 को प्रात:काल सरकार ने तिलक को गिरफ्तार कर लिया और उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाना शुरू किया. उन्हें छह वर्ष कारागार और 1000 रुपए के जुरमाने की सजा दी गई. इस सजा के विरोध में बंबई के मजदूरों ने दूसरे दिन ही हड़ताल कर दी. पुलिस ने लाठी और गोली चलाई, जिसमें 15 आदमी मारे गए और 38 घायल हुए. नवंबर 1907 में 'राजद्रोहात्मक सभा कानून' (सेडीशंस मीटिंग्स ऐक्ट) और 1910 में 'प्रेस ऐक्ट' लागू किया. उसमें बिना मुकदमा निर्वासन के लिए 1818 के रेग्युलेशन का सहारा लिया. नाटू भाइयों को बिना मुकदमा के दो वर्षों के निर्वासन की सजा बंबई रेग्युलेशन संख्या XXXV ऑफ 1827 के अंतर्गत दी गई थी. विदेशों में पढ़नेवाले छात्रों का भारतीय बुद्धिजीवियों से संपर्क हुआ. लंदन, पेरिस और न्यूयॉर्क में भारतीय केंद्रों की स्थापना होना आरंभ हो गया. लाला लाजपत राय और अजीत सिंह को 1907 की गरमी में मांडले जेल भेज दिया गया. 13 दिसंबर, 1908 को नौ बंगालियों को निर्वासित किया गया. 1 नवंबर, 1907 को 'प्रिवेंशन ऑफ सेडिशन मीटिंग ऐक्ट' पारित किया गया. दिसंबर 1908 में 'इंडियन क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट ऐक्ट' पारित किया गया और 8 जून, 1908 को 'प्रेस ऐक्ट' भी पारित हुआ.
इंग्लैंड का 'भारत भवन' देशभक्तों का केंद्र बन गया. सन् 1907 की जुलाई में किसी सदस्य ने पार्लियामेंट में यह प्रश्न पूछ लिया कि क्या सरकार श्यामजी कृष्ण वर्मा के विरुद्ध कुछ करने का इरादा कर रही है? श्यामजी ने इसके बाद इंग्लैंड के 'भारत भवन' से अपना डेरा उठा लिया और पेरिस चले गए. लेकिन उनका अखबार 'इंडियन सोशियोलॉजिस्ट' पहले की भाँति लंदन से निकलता रहा. 1909 में इसके मुद्रक के ऊपर मुकदमा चला और उसे सजा हुई. दूसरे व्यक्ति ने इसके मुद्रण का भार उठाया, किंतु उसे भी सितंबर 1909 में एक वर्ष की कड़ी सजा हुई. फिर अखबार पेरिस से निकलने लग गया. 1857 में भारत में हुए गदर की याद में 1908 में 'भारत भवन' में 'गदर दिवस' धूमधाम से मना. इस आयोजन में सौ से अधिक भारतीय छात्र उपस्थित हुए. 'ऐ शहीदों' शीर्षक से एक परचा उसी समय प्रकाशित हुआ. इसमें 1857 में गदर युद्ध में मारे गए शहीदों की तारीफ थी. यह फ्रेंच टाइप में छपा था, जिससे लोगों ने अनुमान लगाया कि यह काम श्यामजी कृष्ण वर्मा ने किया है. 'डेली न्यूज' नामक समाचार-पत्र, जो लंदन से भारत आता था, उसके पृष्ठों के बीच में इसकी प्रति रखकर भारत भेजी जाती थी. 'भारत भवन' में आने-जानेवालों को 'घोर चेतावनी' नामक एक परचा मुफ्त दिया जाता था और उनसे यह कहा जाता था कि वे इस परचे को देश में अपने मित्रों के पास भेजने की व्यवस्था अपने स्तर से कर दें. 'भारत भवन' की सभा में छात्रों को गुप्त हत्या के लिए उत्तेजित किया जाता था.
इन दिनों लंदन और पेरिस में 'यूरोपीय क्रांति' की धूम मची हुई थी और आयरिश, फेनियंस और पूर्वी यूरोप के निर्वासित क्रांतिकारियों के साथ भारतीयों के व्यक्तिगत संपर्क हुए. अपने देश के लिए कुछ करने का संकल्प श्यामजी और उनके समूह के सदस्यगण ले चुके थे. इनका कांग्रेस पर कतई विश्वास नहीं था और भारत की आजादी वे क्रांति के मार्फत होना ही एकमात्र रास्ता समझते थे. इसी कारण लंदन में गठित भारतीय संगठन, यथा-ईस्ट इंडियन एसोसिएशन, लंदन इंडियन सोसाइटी अथवा ब्रिटिश कमेटी ऑफ कांग्रेस से इन्होंने कोई ताल्लुक नहीं रखा.
'दी सोशियोलॉजिस्ट' के प्रकाशन के साथ श्यामजी ने 18 फरवरी, 1905 को 'इंडियन होम रूल सोसाइटी' का गठन अपने निवास पर किया. वे स्वयं इसके अध्यक्ष बने और एस.आर. राणा, जे.एम. पारिख, एम.बी. गोदरेज और एस. सुहरावरदी इसके उपाध्यक्ष बनाए गए. जे.सी. मुखर्जी सचिव बनाए गए. भारत में होम रूल की स्थापना, इसके लिए ब्रिटेन में प्रचार और भारतीयों में आजादी और राष्ट्रीय एकता की भावना विकसित किया जाना, इसका उद्देश्य रखा गया. दादा भाई नौरोजी ने एक वर्ष पूर्व एम्सटर्डम में आयोजित 'अंतरराष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस' में ऐसी ही माँग रखी थी और 1906 में कांग्रेस के अधिवेशन में ऐसी ही माँग उठी थी. इसलिए श्यामजी की माँग कुछ अलग या नई नहीं थी. लेकिन अपने लेख में श्यामजी ने गोपाल कृष्ण गोखले और फिरोजशाह मेहता की सीमित माँगों को लेकर जिस प्रकार कटु आलोचना की थी, उससे साफ जाहिर हो गया था कि वे देश के लिए क्या चाहते हैं!
इस बीच उन्होंने 63, क्रॉमवेल एवेन्यू, हाईगेट में मकान खरीद लिया, जिसका उपयोग क्रांतिकारियों के आवास और प्रशिक्षण स्थल के रूप में होने लगा. इसका नाम 'इंडिया हाउस' रखा गया और इसका विधिवत् उद्घाटन हिंडमैन द्वारा 10 जुलाई, 1905 को किया गया. अपने भाषण में उन्होंने कहा कि ब्रिटेन के प्रति वफादार होना भारत से विश्वासघात करना है. ब्रिटेन से किसी बात की आशा नहीं की जानी चाहिए और भारत की रक्षा करने के लिए एक प्रकार से 'सनकी' लोगों को आगे आना चाहिए. उद्घाटन समारोह में दादा भाई नौरोजी, लाला लाजपत राय, लाला हंसराज, एंथोनी क्वेल्च, मैडम देशपांडे और स्वीनी ने भाग लिया था. इसके बाद 'इंडिया हाउस' इस समूह का मुख्यालय बन गया. रविवार को दोपहर में भारत की स्थिति पर चर्चा के लिए बैठक आयोजित की जाने लगीं.
श्यामजी की सोच थी कि उनका समूह भारत से बाहर रहता है और जो भी काम होने हैं, वे भारत में होने हैं और भारतीयों द्वारा होने हैं. इसके लिए 'पेन और पर्स' की सहायता बाहर से की जा सकती है और कुछ युवकों को विदेश लाकर क्रांति का प्रशिक्षण दिया जा सकता है. ऐसा भारत में होना असंभव है. श्यामजी ने लंदन में क्रांतिकारी संगठन की शुरुआत की और जनवरी 1905 में 'दि सोशियोलॉजिस्ट' नाम से एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया. जून 1905 के 'दि सोशियोलॉजिस्ट' के मुखपृष्ठ पर हर्बर्ट स्पेंसर की दो प्रमुख उक्तियों को छापा गया-" Every man is free to do that which he wills provided he infrings not the equal freedom of any other.” और दूसरा था "Resistance to aggression is not simply justifiable, but imperative. Non-resistance hurts both altruism and egoism.”
'सोशियोलॉजिस्ट' के प्रथम अंक में एच.एम. हिंडमैन की उक्ति भी छपी- 'Indian must learn to rely upon themselves and organise themselves apart from their foreign masters for their final emancipation.' अपने लेख में श्यामजी लिखते रहे कि राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए भारतीयों को स्वयं तैयार होना चाहिए और इसके लिए भारत से अंग्रेज शासकों को निकालना जरूरी है. भारतीयों को यह आशा कदापि नहीं करनी चाहिए कि शासन का स्वरूप बदल सकता है. प्रथम अंक में ही श्यामजी ने घोषणा की कि वैसे पाँच भारतीय स्नातक युवक, जो अपनी शिक्षा पूरी करने हेतु इंग्लैंड आना चाहते हैं, दो हजार रुपए की विशेष छात्रवृत्ति दी जाएगी. लेकिन शर्त रखी गई कि शिक्षा पूरी कर वे भारत जाकर सरकार में भरती नहीं हो सकते हैं.
1906 में 'सोशियोलॉजिस्ट' में छपी खबर के अनुसार श्यामजी ने एक हजार रुपए की छह छात्रवृत्ति भारतीय लेखक एवं पत्रकारों के विदेश-भ्रमण के लिए आरंभ कीं. राणा ने दो हजार रुपए की तीन छात्रवृत्तियां आरंभ कीं. पूर्वी बंगाल के बारीसाल नामक जगह पर सुरेंद्रनाथ बनर्जी की हुई गिरफ्तारी के विरोध में 4 मई, 1906 को 'इंडिया हाउस' में एक बैठक हुई. दूसरे दिन 'पेरिस इंडियन सोसाइटी' में भी ऐसी ही सभा हुई. 1906 की गरमी में श्यामजी द्वारा चलाई गई छात्रवृत्ति का लाभ लेकर विनायक दामोदर सावरकर लंदन पहुंचे और 'इंडिया हाउस' के 'ग्रे इन' से जुड़े. उनके दो भाई गणेश विनायक सावरकर और नारायण विनायक सावरकर 'मित्र मेला' और उसके बाद 'अभिनव भारत सोसाइटी' के सदस्य थे, जो उस समय पश्चिमी भारत का प्रमुख क्रांतिकारी संगठन था. सावरकर-बंधुओं की क्रांति के प्रत्यक्ष अनुभव का लाभ 'इंडिया हाउस' को मिला. उन्हें लगा कि क्रांतिकारियों को विदेशों में लाकर सैनिक प्रशिक्षण दिया जाना अत्यंत आवश्यक है. वीरेंद्र नाथ चट्टोपाध्याय की मंशा थी कि अभी ही ब्रिटिश शासकों पर हमला कर दिया जाए.
सैनिक प्रशिक्षण के लिए पेरिस को उपयुक्त स्थान समझते हुए बंगाल के 'युगांतर समूह' के हेमचंद्र दास को अगस्त 1906 के अंत में पेरिस भेजा गया. पांडुरंग एम. बापट और मिर्जा अब्बास को 'इंडिया हाउस' से पेरिस भेजा गया. ये लोग 1907 में भारत लौटे. इस बीच नीतिसेन द्वारकादास और ज्ञानचंद वर्मा भारत से लंदन पहुंचे और प्रत्यक्ष रूप से 'इस्टर्न एक्सपोर्ट एंड इंपोर्ट कंपनी' नामक व्यापारिक संगठन का आरंभ 'ग्रेज इन पैलेस' में किया. वस्तुत: इस संगठन का काम हथियार एवं प्रचार सामग्रियों को भारत भेजना था. द्वारकादास को जे.सी. मुखर्जी के स्थान पर 'होम रूल सोसाइटी' का सचिव बना दिया गया. 1907 के जुलाई में ज्ञान चंद वर्मा सचिव बन गए. इनकी गतिविधियां सामने आने लगी थीं और 1906 में पहली बार 'द टाइम्स' नामक अखबार ने इसकी चेतावनी दी थी.
फरवरी 1907 की दूसरी आम सभा में श्यामजी ने दस हजार रुपए का दान 'होम रूल सोसाइटी' को दिया. जून 1907 में 'सोशियोलॉजिस्ट' ने एक नया संगठन 'देश भक्त समाज' के गठन की सूचना प्रकाशित की. इस संगठन के तीन अवयव थे-अंतरंग सभा (केंद्रीय कमेटी), जिसमें श्यामजी के साथ भारत के कुछ प्रमुख क्रांतिकारी नेता, सहायक और मित्र बनाए गए.116 पंद्रह सौ रुपए की वार्षिक सहायता विदेशों में प्रचार के लिए दी गई और यह तय हुआ कि लंदन में 'समाज' का पहला भाषण बिपिन चंद्र पाल 1907 में देंगे. हालाँकि ब्रिटिश सरकार ने पाल को लंदन जाने की अनुमति एक वर्ष तक नहीं दी. इस बीच ब्रिटेन में रह रहे आयरिश क्रांतिकारियों, स्कॉटलैंड यार्ड एवं समाचार-पत्र के कर्मियों के समूह के ताल्लुकात बढ़े. आयरिश मित्र 'हूज ओ डॉवेल' ने 'इंडिया हाउस' का परिचय इजिप्ट के युवा एवं निर्विवाद नेता मुस्तफा कमाल से कराया, जो 1906 में इंग्लैंड के दौरे पर आए थे. इसके बाद इजिप्ट से इनका संबंध गहराता गया, जिनमें फरीद बेग और मंसूर रिफात की भूमिका अधिक थी.
10 मई, 1907 को 1857 के गदर की पचासवीं वर्षगांठ लंदन में मनाई गई और 'हे शहीद' और 'गहरी चेतावनी' नामक परचे सार्वजनिक रूप से वितरित किए गए. 11 मई और 7 जून, 1907 को पेरिस और लंदन में, लाजपत राय और अजीत सिंह के निर्वासन के विरुद्ध सभा हुई. ब्रिटिश अधिकारियों का ध्यान इस संगठन पर पहले से था. श्यामजी और उनके सहयोगियों द्वारा लिखे गए पत्रों को खोला जाने लगा और एक जासूस 'ओ ब्रेन' ने इनके साथ मित्रता स्थापित कर ली. 17 मई और 19 जून को 'द टाइम्स' ने 'इंडिया हाउस' पर पुन: खबरें छापीं और 'नेशनल रिव्यू' में सर इवान जोंस ने जून माह में लगातार खबरें छापीं कि इस 'रहस्यपूर्ण घर' में क्या-क्या गतिविधियां चल रही हैं! जून में श्यामजी पेरिस आ गए और 10 एवेन्यू, इंग्रेस पासी में अपना निवास बनाया. यहीं से वे 'इंडिया हाउस' और 'सोशियोलॉजिस्ट' के संचालन के निर्देश देते रहे. अक्तूबर 1907 में कामा ने ब्रिटेन छोड़ दिया और पहले अमेरिका और फिर पेरिस आ गईं और 1909 में वहीं रहने लगीं. श्यामजी, एस.आर. राणा और मैडम कामा, तीनों ने पेरिस को क्रांति का प्रमुख केंद्र बनाया.
श्यामजी और कामा के 'इंडिया हाउस' से चले जाने के बाद नेतृत्व का भार वी.डी. सावरकर पर आ गया. 1908 में 'इंडिया हाउस' में वाई.वाई.एस. अय्यर, टी.एस. राजम और एस.वी. तिरुमल अचारी जुड़े. जनवरी 1908 में द्वारका दा और ज्ञानचंद वर्मा भारत गए थे और पुन: अगस्त में लंदन वापस आए. 1908 में बंगाल में बम विस्फोट किया गया था और लंदन के नेताओं का भारतीय क्रांतिकारियों को प्रशिक्षण एवं हथियार आपूर्ति का लक्ष्य सामने था. लंदन विश्वविद्यालय में रसायन शास्त्र के छात्र डॉ. देसाई ने जून 1908 के एक रविवारीय बैठक में बम निर्माण पर एक भाषण दिया. 1908 में सावरकर ने 'फ्री इंडिया सोसाइटी' का गठन किया, जिसके वे अध्यक्ष एवं अय्यर उपाध्यक्ष बनाए गए. भारतीय राजकुमारियों को विक्टर इमानुएल-II के जीवन से प्रेरणा लेने के लिए खुली अपील की गई. बम निर्माण का प्रशिक्षण लेने के लिए वर्ष के अंत में तिरुमल अचारी को लंदन से और नंद कुमार सेन को भारत से भेजा गया. फ्रांस में प्रशिक्षण कार्य में उनके निकटतम सहयोगी गोविंद अमीन थे.
श्यामजी अधिक निर्भीक होकर पेरिस से लिखने लगे. उनके अनुसार 'निलहों' की तरह गुप्त संगठन का निर्माण किया जाना चाहिए. सेना से संपर्क कर उन्हें क्रांति में सहयोगी बनने के लिए तैयार करना चाहिए तथा रूसी क्रांति के माध्यम से ही भारत से अंग्रेजों को भगाया जा सकता है. अप्रैल 1908 में रूसी गुप्त संगठन का संविधान प्रकाशित किया गया.120 19 सितंबर, 1907 से ही 'सोशियोलॉजिस्ट' पर भारत में प्रतिबंध लगा दिया गया था. मई 1908 में 'दि गैलिक अमेरिकन' और 'जस्टिस' नामक पत्र पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया, क्योंकि इन पत्रों में भी 'सोशियोलॉजिस्ट' के अंश छपे होते थे. लेकिन हथियारों के साथ इन पत्रों एवं अन्य परचों को फ्रांस और पुर्तगाल के नागरिकों की मदद से भारत पहुंचा दिया जाता था. 1908 में ब्रिटिश सरकार ने 'सोशियोलॉजिस्ट' के दो प्रकाशकों-आर्थर बोर्सले और गे अल्फ्रेड एल्ड्रेड पर मुकदमा चलाने एवं एक वर्ष के लिए कारावास भेजने में सफलता पाई. 'इंडिया हाउस' के सदस्यों एवं श्यामजी के बीच मतभेद का मुख्य कारण यह था कि एक तरफ श्यामजी सुरक्षित जगह पर रहकर क्रांति लेखन कर रहे थे, वहीं 'इंडिया हाउस' पर शासन का खतरा हमेशा मँडराता रहता था. श्यामजी के विरोध में कामा और राणा भी आ गए थे. सितंबर 1908 में बिपिन चंद्र पाल और जी.एस. खापर्डे का लंदन दौरा हुआ, जिससे खटास में कुछ कमी आई.
26 सितंबर, 1908 को बिपिन चंद्र पाल द्वारा दिए गए भाषण से लंदन में रहनेवाले क्रांतिकारियों का मनोबल बहुत नीचा हो गया. कारण, पाल ने हिंसा की निंदा की थी. अपने भाषण में उन्होंने मानवतावाद की रक्षा में ब्रिटेन और भारत को साथ कार्य करने की अपील की थी. अभी तक क्रांतिकारी पाल को अपनी प्रेरणा मान रहे थे. हालाँकि पाल को श्यामजी के विकल्प के रूप में मान्यता मिलनेवाली थी. बैठक में निर्णय लिया गया कि जहां मद्रास में कांग्रेस की बैठक बिना क्रांतिकारियों के होनेवाली है, उसी प्रकार यूरोप में एक बैठक आयोजित की जाए. खापर्डे की अध्यक्षता में 20 दिसंबर, 1908 को लंदन के कैक्सटन हॉल में एक बैठक हुई, जिसमें पूर्ण आजादी का प्रस्ताव पारित किया गया. तुर्की की आजादी का स्वागत एवं ब्रिटिश सामाज्य के बहिष्कार का भी निर्णय लिया गया. निर्णय लिया गया कि तुर्की एवं भारत के दुश्मन इंग्लैंड से संघर्ष के लिए 'इंडो इजिप्टियन नेशनल एसोसिएशन' का गठन किया जाए. 23 जनवरी, 1909 को हुई बैठक की अध्यक्षता बिपिन चंद्र पाल ने की. पाल और खापर्डे ने 'हिंद नेशनल एजेंसी' नामक संगठन बनाया, जिसके सचिव चट्टोपाध्याय बनाए गए और 10 दिसंबर, 1908 को मासिक पत्रिका 'स्वराज' के प्रकाशन का निर्णय लिया गया. 27 फरवरी, 1909 को इसका प्रथम अंक प्रकाशित हुआ, परंतु 16 मार्च, 1909 तक इसका प्रकाशन बंद हो गया. अब तक पाल 'लंदन इंडियन सोसाइटी' की वकालत करने और हिंसा की अवधारणा की निंदा करने के लिए लंदन में अलोकप्रिय हो गए थे.
'इंडिया हाउस' यूरोप के क्रातिकारी केंद्र के रूप में विकसित हो चुका था. 'इंडिया हाउस' में 12 जनवरी को कुंजलाल भट्टाचार्य और 1 फरवरी, 1909 को वासुदेव भट्टाचार्य द्वारा ली वार्नर का साक्षात्कार लिया गया और उन्हें थप्पड़ मारा गया. उन पर मुकदमा चलाया गया, जिसके दौरान उन्होंने ब्रिटिश सरकार की निंदा की. 'इंडिया हाउस' के सदस्य 'लंदन इंडियन सोसाइटी' और 'ईस्ट इंडियन एसोसिएशन' से जुड़े और उस पर आधिपत्य कर लिया. श्यामजी और पाल के बीच बढ़ती शत्रुता का असर आंदोलन पर पड़ा और अपने-अपने पक्ष को लेकर 4 अप्रैल, 1909 को सावरकर और हैदर रजा के बीच कटु झड़प भी हुई. अब 'इंडिया हाउस' में मात्र चार सदस्य रह गए थे और चंदा घटकर 30 पौंड रह गया था.126 एस.आर. राणा ने 20 व्रॉनिंग पिस्तौल की एक खेप सावरकर के लिए 'इंडिया हाउस' के पते पर पेरिस से भेजी. 'इंडिया हाउस' के चतुर्भुज अमीन भारत जा रहे थे. सावरकर ने अपने भाई गणेश के लिए फरवरी 1909 में यह पिस्तौलें भारत भेजीं. इसी में से एक पिस्तौल से जिला मजिस्ट्रेट, नासिक की हत्या 21 दिसंबर, 1909 को हुई. 'अंतरराष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस' का 1909 का अधिवेशन स्टुअटगार्ट में हुआ. इंग्लैंड के प्रतिनिधिमंडल के अध्यक्ष राम्से मैक्डोनॉल्ड के लाख विरोध के बावजूद मैडम कामा ने कांग्रेस से भारत के स्वतंत्रता संबंधी प्रस्ताव पारित करवाने में सफलता प्राप्त कर ली. इसमें उन्हें हिंडमैन, कार्ल लेवकेंच्ट, रोजा लक्जमबर्ग और जॉन जॉरस ने भरपूर मदद की. हालाँकि प्रस्ताव ब्यूरो के समक्ष उस समय नहीं रखा जा सकता था, इसलिए इस पर मतदान तो नहीं हुआ; लेकिन कांग्रेस के अध्यक्ष सिंगर ने व्यवस्था दी कि प्रस्ताव की भावना को कांग्रेस और ब्यूरो द्वारा पारित किया जाता है. कामा को स्वयं द्वारा डिजाइन किए गए भारतीय झंडे को मंच पर फहराने की अनुमति दी गई.
महीनों तक संगठन का कार्य बाधित रहा. 'नासिक षड्यंत्र केस' में गणेश सावरकर को आजीवन निर्वासन की सजा की खबर 9 जून, 1909 को 'इंडिया हाउस' पहुंचते ही क्रांतिकारियों में नया जोश आ गया. 20 जून को हुई सामान्य रविवारीय बैठक में सावरकर ने शपथ ली कि ब्रिटिश सरकार को सबक सिखाया जाए. उनकी बातों से सब सहमत हुए. विश्वविद्यालय इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र मदनलाल ढींगरा को इस काम के लिए चुना गया. 'इंडिया ऑफिस' के सर कर्जन विलियम वायली की इंपीरियल इंस्टीट्यूट, लंदन में 1 जुलाई, 1909 को ढींगरा ने गोली मारकर हत्या कर दी. इस घटना में एक स्थानीय पारसी चिकित्सक डॉ. कवास लालकाका की भी मृत्यु हो गई. ढींगरा को पेनोटन विले जेल में फाँसी की सजा दी गई और इसके ठीक एक दिन पहले 26 अगस्त को 'न्यू एज' नामक अखबार ने लिखा कि भारत में ब्रिटिश शासन के अंत की शुरुआत हो गई है. इन घटनाओं से श्यामजी बहुत डर गए और उन्होंने 'इंडिया हाउस' को बेच डाला और 'सोशियोलॉजिस्ट' का प्रकाशन भी कुछ दिनों के लिए बंद कर दिया. अब पेरिस से इसका प्रकाशन आरंभ हुआ और नवंबर, 1909 का अंक पेरिस से निकला. ढींगरा की शहादत भारतीय युवकों के लिए नई प्रेरणा थी, वहीं वे क्रांतिकारी नेताओं के आपसी मतभेद और विचारशून्यता से ऊब गए थे. 3 जुलाई, 1909 को सुरेंद्रनाथ बनर्जी की अध्यक्षता में लंदन में हुई बैठक मंल पाल और खापर्डे ने ढींगरा के कृत्यों की निंदा की.
आगा खान की अध्यक्षता में 5 जुलाई को दूसरी बैठक हुई. क्रांतिकारियों ने ढींगरा के कृत्यों के समर्थन में 4 जुलाई और 1 अगस्त को अलग बैठक की. सावरकर निर्विवाद नेता के रूप में लंदन में प्रतिष्ठापित हो चुके थे, जिन्हें राणा और कामा का समर्थन प्राप्त था. 'सोशियोलॉजिस्ट' की नरमवादी नीतियों के प्रकाशन के कारण उन्होंने श्यामजी और 'सोशियोलॉजिस्ट' से अपना संबंध तोड़ लिया. एक अलग पत्र के प्रकाशन की आवश्यकता उन्हें महसूस होने लगी. जेनेवा से 10 सितंबर, 1909 को 'वंदे मातरम्' नामक मासिक पत्र का प्रकाशन आरंभ हुआ. कामा इसकी संपादक बनीं, जिनका कार्यालय 25, रुई डेपोंथियो, चैंपस एलीसी, पेरिस में था. आरंभिक कुछ महीनों में लाला हरदयाल और तिरुमल अचारी ने उन्हें सहयोग दिया. मार्च 1910 के अंक में विस्तार से लिखा गया कि क्रांतिकारी साहित्यों के प्रचार की आवश्यकता है और क्रांति का केंद्र कलकत्ता, पूना और लाहौर से स्थानांतरित होकर पेरिस, जेनेवा, बर्लिन, लंदन और न्यूयॉर्क हो गया है.
मैडम कामा के संपादकत्व में नवंबर 1909 में 'मदन का तलवार' नामक पत्र का प्रकाशन बर्लिन से हुआ. इसका कारण था कि जर्मनी और इंग्लैंड के बीच में शत्रुता थी और क्रांतिकारी अपना केंद्र जर्मनी में बनाना चाहते थे. हालाँकि यह पत्र कुछ ही समय बंद हो गया. 'सी कस्टम ऐक्ट' के तहत ऐसे पत्रों के भारत प्रवेश पर प्रतिबंध था. पांडचेरी में फ्रांस और पुर्तगाल के उपनिवेश थे. इसका लाभ उठाते हुए, 58, रुई डेमिशन, इट्रैंजेरेस, पांडचेरी में एक कार्यालय की स्थापना की गई और जिसके संपादक एस. श्रीनिवास शास्त्री से कामा और तिरुमल अचारी के लगातार पत्र-व्यवहार होते रहे. ये पत्र अफ्रीका में रहनेवाले भारतीयों को भी भेजा गया. बीमार सावरकर 6 जनवरी, 1910 को इलाज के लिए फ्रांस गए. उनकी अनुपस्थिति में अय्यर और चट्टोपाध्याय के बीच गंभीर मतभेद सामने आए. अय्यर क्रांतिकारी हिंसा में विश्वास रखते थे, वहीं चट्टोपाध्याय का मत था कि इंग्लैंड और जर्मनी के बीच संभावित युद्ध के समय प्रहार किया जाए. सावरकर को इस मतभेद की सूचना मिल गई और वे तुरंत वापस आ गए. भारत की बंबई सरकार उन्हें गिरफ्तार करना चाहती थी और जैसे ही सावरकर लंदन के विक्टोरिया स्टेशन पर उतरे, 13 मार्च, 1910 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया.
अय्यर और चट्टोपाध्याय अपना मतभेद भूल गए और उन्हें क्रमश: नेता और उपनेता घोषित किया गया. 2 मई को समाचार आया कि 'नासिक षड्यंत्र केस' के लिए सावरकर को भारत भेजा जाएगा. 'इंडिया हाउस' में मित्र चाहते थे कि उनका मुकदमा इंग्लैंड में चले. उन्हें पता था कि यदि भारत में मुकदमा चला तो हश्र क्या होगा! इसके लिए उन्होंने 200 पौंड का चंदा एकत्र किया. बिपिन चंद्र पाल के पुत्र निरंजन पाल ने आयरिश सिपाहियों की मदद से सावरकर से जेल में संपर्क किया. चट्टोपाध्याय, ज्ञान चंद्र वर्मा, माधव राव और आयरिश मित्र डेविड गार्नेट ने सावरकर को पुलिस चंगुल से उस समय मुक्त कराना चाहा, जब वे बो स्ट्रीट, पुलिस कोर्ट ले जाए जाएंगे. योजना असफल हो गई और 1 जुलाई को सावरकर को लेकर 'मोरिया' नामक जहाज भारत के लिए चल पड़ा. फ्रांस में यह समाचार अय्यर द्वारा भेज दिया गया था और सावरकर को छुड़ाने की तैयारी का निर्देश दिया गया, जब 'मोरिया' मार्सेली नामक तट पर पहुंचता. ऐसा समझा जाता था कि कोई-न-कोई मोटर गाड़ी लेकर बंदरगाह के तट पर तैयार रहेगा. जहाज के पाखाना घर के छेद से सावरकर भाग निकले और फ्रांस में जा घुसे. उन्होंने फ्रांस की पुलिस को अपनी बात भी कही, लेकिन पुलिस सावरकर की बात नहीं समझ पाई और ब्रिटेन पुलिस को सौंप दिया, जिसने सावरकर को मुकदमे के लिए भारत भेज दिया. 1905 के बाद से जॉर्ज फिट्जेराल्ड 'फ्रीमैन' और उसका पत्र 'दि गेलिक अमेरिकन' में भारतीय स्वतंत्रता का समर्थन किया गया था और सैनिकों से क्रांति की अपेक्षा की गई थी. मौलवी बरकतुल्लाह और सैमुअल लुकाश जोशी के सहयोग से 1906 में 'पैन आर्यन एसोसिएशन' की स्थापना की गई, जो एक-दो वर्षों तक भारतीय स्वतंत्रता के हित में एवं ब्रिटिश सरकार के विरोध में प्रचार करती रही. अमेरिकन उपनिवेशवाद से घृणा करते थे और मानव-मुक्ति के प्रशंसक थे. अतएव भारतीय स्वतंत्रता की आवाज को स्थानीय समर्थन मिलता था. फरवरी 1909 में बरकतुल्लाह के जापान चले जाने और मार्च 1909 में जोशी के ब्रिटेन चले जाने के बाद इस संगठन की गतिविधियां बंद हो गईं. 5 सितंबर, 1907 को प्रसिद्ध आयरिश-अमेरिकन मॉयरॉन फेल्प्स ने 'इंडो अमेरिकन नेशनल एसोसिएशन' की स्थापना की, जिसका नाम नवंबर में बदलकर 'सोसाइटी फॉर दि एडवांसमेंट ऑफ इंडिया' रख दिया गया और सदस्यता शुल्क एक डॉलर रखा गया. वे स्वयं सचिव-सह कोषाध्यक्ष बने और अन्य पाँच निर्देशक भी अमेरिकन ही थे. इसकी पहली बैठक 20 दिसंबर, 1907 को न्यूयॉर्क में हुई, जिसमें भारत के स्वदेशी आंदोलनकारियों का संदेश सचिव द्वारा पढ़ा गया और डॉ. कथवर्ट हॉल ने भारत पर ब्रिटिश शासन का विरोध किया. फेल्प्स वेर्नर और डॉ. हॉल की त्रिसदस्यीय समिति का गठन आंदोलन को प्रभावशाली बनाने के उपाय ढूँढ़ने के लिए किया गया. 15 जनवरी, 1908 को दूसरी बैठक हुई, जिसमें भारतीय अकाल के कारणों की पड़ताल की जाँच करने का निश्चय किया गया.
अमेरिका में ब्रिटिश विरोधी भावनाओं का प्रचार होना आरंभ हो गया था. 1906 के शरद ऋतु में 'पैन आर्यन एसोसिएशन' की स्थापना 1, वेस्ट 34वीं स्ट्रीट में मराठा ईसाई सैम्युअल लुकाश जोशी, पिता-स्वर्गीय रेव. लुकाश मलोबा जोशी, चर्च मिशनरी सोसाइटी एवं भोपाल के मोहम्मद बरकतुल्लाह द्वारा की गई. इसमें उन्हें आयरिश संस्था 'क्लान-ना-गेल' से मदद मिली. सितंबर 1907 में मायरॉन एच. फेल्प्स, वकील द्वारा 'इंडो अमेरिकन नेशनल एसोसिएशन' का गठन किया गया, जिसका नाम नवंबर 1907 में बदलकर 'सोसाइटी फॉद दि एडवांसमेंट ऑफ इंडिया' कर दिया गया. अक्तूबर 1907 में मैडम कामा न्यूयॉर्क पहुंचीं और एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि भारत गुलाम है. जनवरी 1908 में पैन-आर्यन के सहयोग से न्यूयॉर्क मंत एक मकान किराए पर लिया गया और इसका नाम 'इंडिया हाउस' रखा गया. यह भारतीय छात्रों के रहने के लिए सस्ती जगह थी और बैठक का स्थल भी. शिकागो, डेट्रॉयट में इसकी शाखाएं खोली गईं और सदस्य संख्या सैकड़ों तक पहुंच गई. 'इंडिया हाउस' के छात्र क्लान-ना-गेल के व्यवहार से प्रसन्न नहीं थे और सदस्य संख्या घटकर डेढ़ सौ रह गई. फरवरी 1909 में फेल्प्स ने 'इंडिया हाउस' को बंद कर दिया और 27 मार्च को बोस्टन से नेपल्स होते हुए भारत के लिए रवाना हो गए.138 जनवरी 1909 में फ्रीमैन ने 'इंडो-अमेरिकन क्लब' की स्थापना की, लेकिन इसे भी मार्च 1910 में बंद कर देना पड़ा.
'सावरकर प्रकरण' में भारतीय क्रांतिकारियों को मुंह की खानी पड़ी. क्रांतिकारी नेतृत्व में आई शून्यता को भरने के लिए बिपिन चंद्र पाल ने 8 नवंबर, 1910 को 'हिंद बरादरी' का गठन किया, जिसकी पहली बैठक की अध्यक्षता जे.एम. पारिख ने की. पाल स्वयं इसके अध्यक्ष बने और आसफ अली, डी.पी. मुखर्जी और के.एन. दासगुप्ता को उपाध्यक्ष और निरंजन पाल को सचिव बनाया गया. कुछ दिनों बाद इसका नाम बदलकर 'हिंदुस्तान सोसाइटी' कर दिया गया. मार्च 1911 में पाल ने एक अन्य मासिक पत्र 'दि इंडियन स्टुडेंट' का प्रकाशन आरंभ किया, जिसके लिए वित्तीय सहायता बड़ौदा के गायकवाड़ ने दिया. हालाँकि अब तक पाल की वित्तीय स्थिति ठीक हो चुकी थी. द्वितीय अंक के बाद ही पत्र का प्रकाशन बंद हो गया और 13 मई, 1911 को 'हिंदुस्तान सोसाइटी' बंद हो गई. इस प्रकार इंग्लैंड के क्रांतिकारी कार्यों का अंत हो गया. 16 सितंबर, 1910 को खापर्डे भारत आ चुके थे. पाल जब सितंबर 1911 को भारत वापस लौटे तो इसकी खबर किसी ने नहीं ली.
एस.आर. राणा और कामा की उम्र अधिक हो गई थी और उनमें नेतृत्व क्षमता का अभाव था. सावरकर इंग्लैंड से चले गए थे. अय्यर, चट्टोपाध्याय और हरदयाल का आपस में मतैक्य नहीं था. 28 सितंबर, 1910 को हरदयाल 'रास डिबूटी', पेरिस के लिए रवाना हुए और फरवरी 1911 में अमेरिका चले गए. उनके प्रस्थान के एक महीने बाद अय्यर पेरिस से जेनेवा होते हुए बर्लिन चले गए. वहां से वे 4 दिसंबर, 1911 को पांडचेरी पहुंचे. फ्रांस में चट्टोपाध्याय अकेले बच गए. उनका कामा से मतभेद था. मतभेद को दूर करने के लिए 24 दिसंबर को दोनों की बैठक भी हुई, लेकिन कोई फलाफल नहीं निकला एवं अप्रैल 1911 के आरंभ में तिरुमल अचारी म्यूनिख के लिए रवाना हो गए.
1911 में कामा अकेले 'वंदे मातरम्' का प्रकाशन कर रही थीं. इंग्लैंड-जापान गठजोड़ के विरुद्ध लोगों की मानसिकता बढ़ाने में जापान में बरकतुल्लाह सफल सिद्ध हो रहे थे, जिसका प्रचार राणा, कामा और हीरालाल बैंकर ने किया. इसमें उन्हें कुछ जापानी व्यापारियों ने भी मदद की. श्यामजी अभी भी पेरिस में अलग-थलग होकर रह रहे थे. समाचार आया कि 21 अप्रैल, 1914 को किंग जॉर्ज पेरिस आ रहे हैं. क्रांतिकारियों को गंध लग गई कि राजा के आगमन के पूर्व भारतीयों को नजरबंद किया जा सकता है. अप्रैल के द्वितीय सप्ताह में चट्टोपाध्याय बर्लिन चले गए और जून में श्यामजी जेनेवा चले गए. जुलाई 1914 में 'सोशियोलॉजिस्ट' का उन्होंने प्रकाशन आरंभ कर दिया. प्रथम विश्वयुद्ध के आरंभ के बाद स्विस अधिकारियों के आग्रह पर राजनीतिक गतिविधियां उन्हें बंद कर देनी पड़ीं. हालाँकि राणा और कामा पेरिस में रह गए थे, लेकिन फ्रांस अधिकारियों के निर्देशानुसार जून 1914 में उन्हें 'वंदे मातरम्' का प्रकाशन बंद कर देना पड़ा.
प्रथम विश्वयुद्ध के आरंभ होते हुए राणा और कामा को पुलिस निगरानी में बारडेक्स और मार्सेली में रखा गया और 25 अक्तूबर को उन्हें निर्वासन की सजा दी गई. कामा जब पूछताछ के लिए बारडेक्स आईं तो उन्हें पता चला कि 6 अक्तूबर को राणा को भी निर्वासित कर दिया गया है. कामा पर आरोप था कि वे भारतीय सिपाहियों को उकसाने के लिए मार्सेली में घुसी थीं. राणा को जनवरी 1915 में निर्वासित कर मार्टिनेक में रखा गया और राणा को युद्ध अवधि तक विची में रखा गया. इस प्रकार क्रांतिकारियों के कार्यों पर विराम लग गया. मदनलाल ढींगरा अमृतसर के एक खत्री कुल में उत्पन्न हुए थे और धनी परिवार से आते थे. पंजाब विश्वविद्यालय से बी.ए. पास करने के बाद आगे पढ़ने के लिए वे इंग्लैंड गए. वे वहां शहर के आमोद-प्रमोद में लिप्त हो गए. वे घंटों बैठकर गुलाब के फूल का निरीक्षण किया करते थे. उनके बारे में खुफिया प्रतिवेदन दिया गया कि या तो वे कवि हैं अथवा क्रांतिकारी. लंदन में ही वे विनायक के संपर्क में आए. सावरकर से मिलने के बाद उनका लक्ष्य बिल्कुल स्पष्ट हो गया. सावरकर से गुप्त रूप से मिलने के बाद ढींगरा ने सावरकर एवं भारतीय समूह के लोगों से अपनी दूरी बढ़ा ली और सर कर्जन वाइली से वे लगातार मिलने लगे. उनके इस मेल-जोल की चर्चा भारतीय छात्रों के बीच अधिक होने लगी और अन्य छात्र ढींगरा के इस व्यवहार की अप्रत्यक्ष रूप से आलोचना करने लगे. 1 जुलाई, 1909 को मदनलाल ढींगरा ने लंदन के साम्राज्य विद्यालय की एक सभा में सर कर्जन वाइली नामक अंग्रेज को गोली मार दी. कर्जन भारत मंत्री के शरीर रक्षक थे, किंतु वास्तव में वे भारतीय छात्रों पर खुफिया का काम करते थे. उन्होंने सावरकर तथा श्यामजी के 'भारत भवन' के मुकाबले भारतीय विद्यार्थियों की एक सभा खोल रखी थी.
मदनलाल ढींगरा हत्या के बाद रँगे हाथ पकड़े गए थे. ढींगरा के निवास की तलाशी के दौरान दो पिक्चर पोस्टकार्ड पाए गए. एक पर तारकनाथ दास के पत्र 'फ्री हिंदुस्तान' (न्यूयॉर्क) में कुछ ही दिन पूर्व प्रकाशित चित्र की नकल थी. इसमें भारतीयों को तोपों के आगे उड़ाते हुए दिखाया गया था. न्यायालय में अपने बयान में ढींगरा ने कहा कि 'मैं यह बयान इसलिए दे रहा हूँ कि संसार को, विशेषत: अमेरिका के हमारे समर्थकों को, यह पता लग जाए कि हमारा यह पुण्य कार्य न्यायसंगत है.144ए अदालत में उन्होंने बयान दिया-'जो सैकड़ों अमानुषिक फाँसी तथा कालेपानी की सजा हमारे देशभक्तों को हो रही हैं, मैंने उसी का एक साधारण सा बदला उस अंग्रेज के रक्त से लेने की चेष्टा की है. मैंने इस संबंध में अपने विवेक के अतिरिक्त किसी से सलाह नहीं ली. मैंने किसी के साथ षड्यंत्र नहीं किया. मैंने तो केवल अपना कर्तव्य पूरा करने की चेष्टा की है.' 16 अगस्त, 1909 को मदनलाल ढींगरा को फाँसी दे दी गई और उनकी लाश जेल के अंदर ही दफन कर दी गई. 1909 के फरवरी महीने में विनायक को पेरिस में 20 ब्राउनिंग पिस्तौलें मिली थीं, जो कारतूस से भरी हुई थीं. उसी समय भारत में चतुर्भुज अमीन नामक काम करनेवाला रसोइया भारत लौट रहा था. उसके संदूक में एक नकली पेंदा बनाकर इन पिस्तौलों को इसमें डाल दिया गया और भारत भेज दिया गया.
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पुस्तकः गदर आंदोलन का इतिहास
लेखकः भैरव लाल दास
भाषाः हिंदी
विधाः राजनीतिक स्वतंत्रता और सुरक्षा
प्रकाशकः प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ संख्याः 480
मूल्यः 500 रुपए
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