जन्मदिन विशेष- पुस्तक अंश: बूँद-बावड़ी, पद्मा सचदेवा की आत्मकथा

आज हिंदी-डोगरी की इस सुप्रसिद्ध वरिष्ठ रचनाकार पद्मा सचदेव का जन्मदिन है. इस अवसर पर 'साहित्य आजतक' पर उनकी आत्मकथा 'बूँद-बावड़ी' का अंश, प्रकाशक वाणी प्रकाशन के सौजन्य से

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पद्मा सचदेवा की आत्मकथा 'बूँद-बावड़ी' का कवर [ सौजन्यः वाणी प्रकाशन ] पद्मा सचदेवा की आत्मकथा 'बूँद-बावड़ी' का कवर [ सौजन्यः वाणी प्रकाशन ]

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 17 अप्रैल 2019,
  • अपडेटेड 1:18 PM IST

प्रसिद्ध कवयित्री और कथाकार पद्मा सचदेव की आत्मकथा 'बूँद-बावड़ी' वाणी प्रकाशन से छपी थी. ‘मेरी कविता मेरे गीत’ काव्य-संग्रह पर 1971 का साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाली पद्मा जी ने डोगरी भाषा में  अपनी जीवनी ‘चित्त चेते’ नाम से लिखी. इसके लिए उन्हें साल 2015 का सरस्वती पुरस्कार भी मिला. तब उन्होंने कहा था- दुनिया खूबसूरत शब्दों से भरी हुई है जिनसे कहानी बनती है. इनमें से कुछ मेरी अपनी भाषा डोगरी में है और आज मुझे जो सम्मान प्राप्त हुआ है, उससे पूरे डोगरी समुदाय को गर्व है.

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जीवन के प्रति लगाव पद्मा जी के शब्दों, रचनाओं में झलकता है. जम्मू-कश्मीर कल्चरल अकादमी, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित इस बेहद सम्मानित लेखिका की चर्चित कृतियों में उपरोक्त दोनों आत्मकथाओं के अलावा अमराई, भटको नहीं धनंजय, नौशीन, गोद भरी, अक्खरकुंड, तवी ते चन्हान, नेहरियां गलियां, पोता पोता निम्बल, उत्तरबैहनी, तैथियां, गोद भरी तथा उपन्यास ‘अब न बनेगी देहरी’ शामिल है.

आज हिंदी-डोगरी की इस सुप्रसिद्ध वरिष्ठ रचनाकार पद्मा सचदेव का जन्मदिन है. इस अवसर पर 'साहित्य आजतक' पर उनकी आत्मकथा 'बूँद-बावड़ी' का अंश, प्रकाशक वाणी प्रकाशन के सौजन्य से

पुस्तक अंशः 'बूँद-बावड़ी'

                                                                                     -पद्मा सचदेवा

मैं एक बार फिर बच गयी हूँ. इस बार तो मौत के जबड़े खोलकर बाहर आना पड़ा, पर मजा आ गया.

मर-मरकर जी जाने का सुख जीवन की कद्र बढ़ा देता है. ज़िन्दगी ज़्यादा कीमती, ज़्यादा अनमोल हो उठती है. यूँ लगा, मौत अपने पीछे-पीछे आने को कह रही थी. मैंने अपने पीछे दरवाज़ा बन्द करने के बहाने भीतर घुसकर दरवाज़ा अन्दर से बन्द कर लिया.

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यही हुआ होगा, नहीं तो कौन कहता था ये बचेगी.

आज भी अशक्त होकर लुढ़क जाती हूँ तो वो दृश्य साकार होकर आँखों के सामने आ जाता है.

धूमिल-सा आसमान. बेरंग, बेनूर और उदास. कोई पक्षी नहीं उड़ रहा था. कोई पतंग नहीं डोल रही थी, न ही बादलों के रंग असंख्य मूर्तियाँ बनाते हुए आ-जा रहे थे. रात में तारों की मौजूदगी का कोई निशान बाकी न था. ठहरे हुए समुद्र या कैनवस पर मृत पड़ा. कोई फीका-सा चित्र. न हवा के बहने का कोई शोर, न आसमान के साँस लेने की कोई आहट, न ही सूर्योदय से पहले उषा की चुनरी का चम्पई आलोक, न ही चाँद के आने-जाने से पहले का फीका-सा उजास, न ही आसमान की छाती में सुराख करके झूलता कोई देवदार, न ही पहाड़ की तीखी नोक में चमकती बर्फ़ की कोई परत, न ही बर्फ़ की आहों का घुट-घुटा धुआँ, न ही सूर्य की किरणों के चुभने से सी-सी करती धरती का स्वर.

इसी आसमान पर एक बहुत बड़ा समुद्री जहाज न जाने कैसे संतुलन बनाए खड़ा था. निश्चल, अटल, अडोल सिलपत्थर-सा, इसी फीके बदरंग आसमान के एक हिस्से की तरह. न ही जहाज के डैक पर कोई था, न ही किसी खिड़की के पल्ले से लहराता कोई आँचल, न ही रेलिंग से झुककर समुद्र को निहारता कोई चेहरा, न ही शोर, न ही धुआँ. सभी कुछ ठहरा हुआ, उदास, भयाक्रान्त. सबकी साँस जैसे किसी भयानक भय ने रोक दी हो पर मरने न दिया हो. ऐसा ही तो था वो आसमान.

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इसी जहाज से सटकर एक चारपाई या तख़्तनुमा कोई चीज़ बिना सहारे के खड़ी थी. पता नहीं किसी ने उठाया हुआ था या नहीं, पर इसी पर में लेटी हुई थी. जैसे मौत की वादी का एक हिस्सा, विस्तृत नभ में जीने की आशा लिये कराहता एक स्पंदन.

इस समुद्री जहाज से सटी चारपाई के पीछे संरक्षक की तरह खड़े थे महान् दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति -साधु पुरुष, सौम्य, शालीन, अडिग- पर उनकी बावड़ी की तरह गहरी आँखों में चिन्ता हिलोरें ले रही थी. पूरे माहौल का जायज़ा लेते हुए वो कुछ सोच रहे-से लगते थे. अचानक उनका मौन टूटा, उन्होंने अपनी दृष्टि मेरी तरफ़ घुमाकर कहा -पद्मा जी, ये स्वर्ग है. फिर माहौल की चुप्पी को पीते हुए बोले -कितनी शान्ति है यहाँ.

मैं मानो भरी हुई बैठी थी. उनकी बात पूरी होते-न-होते मैंने कहा- मुझे यह शान्ति नहीं चाहिए. मुझे इस मृत स्वर्ग की चाह नहीं है.

उन्होंने कहा- यहाँ बड़ा सुख है.

मैंने तुरन्त कहा- नहीं, मुझे ये सुख नहीं चाहिए. मेरे स्वर में उद्दंडता थी. मैंने मचलकर कहा- मैं पृथ्वी पर जाऊँगी, ये अच्छी जगह नहीं है.

वो उदास हो गये.  मैं प्रतीक्षा करने लगी, अब क्या कहेंगे.

अचानक वो पूरा परिवेश ऊपर उठा, जैसे किसी ने तोते का पिंजरा ऊपर उठा लिया हो. ऊपर एक और आसमान था. बेरंग, बेनूर. न अँधेरा न उजाला. अजीब उदासी भरा. रंग जैसे मौत के बाद का रंग होता है. न किसी गौरय्या के पीछे दौड़ता उसका जोड़ा, न रंग बदलते दृश्य, न ही ‘पी कहाँ- पी-कहाँ' की रट लगाकर उड़ता कोई पपीहा, न ही आम मंजरियों में रस घोलती कोई कोयल, न ही शरारत करके भागता कोई भ्रमर. पूरा आसमान किसी विधवा की चादर की तरह फैला था. बेदाग आसमान, जैसे सब कुछ खोकर लुटा-पिटा-सा बैठा हो. पूरा परिवेश फिर ठहर गया था. दार्शनिक मेरी उदंडता से आहत थे. फिर भी वो अन्तिम हीले की तरह एक बार बोले.

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-पद्मा जी, ये बैकुंठ है. इसकी कामना कौन नहीं करता. यहाँ विष्णु का निवास...

मैंने सोचा, मुझे कौन-सा विष्णु ने निमन्त्रण देकर बुलाया है. अपने बड़प्पन और मेरी मनुष्य होने की मजबूरी का फायदा उठा रहे हैं.

मैं तड़पकर बोली- होगा, अगर ये बैकुंठ भी है तो भी मुझे इसकी कोई इच्छा नहीं है. बड़ा अंधेरा है यहाँ कोई चिराग जलानेवाला दिखाई नहीं देता. इस बेरंग आसमान पर कोई लहरियेदार दुपट्टे नहीं सुखाता. यहाँ न सूरज है, न चाँद, ये कैसा बैकुंठ है. बड़ा अँधेरा है. आप तो पृथ्वी से होकर आये हैं. क्या आप नहीं जानते पृथ्वी पर क्या-क्या है.

मैं मन-ही-मन जानती थी- यही एक लम्हा है, अगर मैं उदंड न हुई तो महान दार्शनिक जीत जाएँगे. फिर मैं पृथ्वी कैसे देखूंगी.

- मैं यहाँ नहीं रहूँगी. पृथ्वी पर लाखों-करोड़ों हाथ शाम की उदास वेला में चेहरे पर चमक लाने के लिए कितने ही चिराग जलाते हैं. आप तो पृथ्वी पर रहकर आये हैं. कभी पृथ्वी पर दीवाली तो देखी होगी. मैंने उनकी आँखों में भीतर तक झाँकते हुए कहा अगर देखी होती तो दीये की ओट में सुन्दरी बहू के चमकते मुखड़े की तीखी नाक पर दमकती कौधती लौंग आपको याद होती. लक्ष्मी के आगे जहाँ लक्ष्मी झुक जाती है, वही मेरी पृथ्वी है. वहाँ सूर्य है, चाँद है, चाँद- जैसे सुन्दर मुखड़े हैं, उन मुखड़ों पर कुरबान होते आशिक हैं, इन्हीं आशिकों ने बिजली बनाकर पूरी पृथ्वी को उजाले की दुलहिन की तरह सजा दिया है. नहीं, मैं यहाँ नहीं रहूँगी. मैं पृथ्वी पर जाऊँगी.

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पुस्तकः बूंद बावड़ी

लेखकः पद्मा सचदेव

विधाः आत्मकथा

प्रकाशकः वाणी प्रकाशन

पृष्ठ संख्याः 364

मूल्यः 395/ रुपए

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