स्मृति शेषः पद्मा सचदेव, डूब जाता है कभी मुझमें समंदर मेरा

पद्मा सचदेव नहीं रहीं. हिंदी डोगरी की विदुषी कवयित्री, संस्मरणकार, गद्यकार पद्मा सचदेव का न रहना हिंदी की एक दुनिया का लोप हो जाना है.

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पद्मा सचदेवः यह हंसी फिर न दिखेगी पद्मा सचदेवः यह हंसी फिर न दिखेगी

ओम निश्चल

  • नई दिल्ली,
  • 04 अगस्त 2021,
  • अपडेटेड 9:01 PM IST

पद्मा सचदेव नहीं रहीं. हिंदी डोगरी की विदुषी कवयित्री, संस्मरणकार, गद्यकार पद्मा सचदेव का न रहना हिंदी की एक ऐसी दुनिया का लोप हो जाना है, जिसमें एक ऐसी लेखिका जो खुद तो कविताएं लिखती थी पर लोगों को जोड़ कर रखने वाले संस्मरणों की स्रष्टा थी. वे जहां होती थीं वहां जैसे उजाला बिखरा होता था. छोटे कद की अपनी ही प्रतिष्ठा और आत्मीयता के दुकूल में सिमटी रहने वाली पद्मा सचदेव का जीवन कोई बहुत 'फूलों की कहानी है तितली की जबानी है'- नुमा नहीं रहा बल्कि जीवन में बहुतेरे संघर्ष रहे, जिनसे उबरने में उन्हें काफी वक्त लगा. वे अरसे तक माइग्रेन से ग्रस्त रहीं जिसमें उनकी जीवन नियति की अपनी भूमिका रही है और जिसका ब्योरा उन्होंने अपनी आत्मकथा 'बूंद बावड़ी' में दिया है. 'बूंद बावड़ी' से गुजरने वाला पाठक उसे बिना रोए या अश्रुस्नात हुए उनकी आत्मकथा नहीं पढ़ सकता. उनमें जीवन और गृहस्थी पर पड़ने वाली ऐसी खरोंचों का सिलसिलेवार वर्णन है, जो एक संवेदनशील कवयित्री को भीतर तक लहूलुहान कर देते थे. उस त्रासद जीवन से वे बाहर न निकल पाई होतीं तो जिस पद्मा सचदेव की लेखकीय आभा से हिंदी जगत तेजोमय रहा, वह न हो पाता.
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पैदाइश और साहित्यिक संस्कार
पद्मा सचदेव का जन्म 17 अप्रैल, 1940 को जम्मू-कश्मीर के पुरमंडल में हुआ था. हिंदी व संस्कृत के जाने-माने विद्वान प्रो जयदेव बादु की वे सुपुत्री थीं. उनकी शुरुआती तालीम देवका के तट पर स्थित पुरमंडल के प्राथमिक विद्यालय से हुई. संस्कृत विद्वान अपने पिता के सान्निध्य में रह कर तमाम श्लोक उन्होंने बचपन में ही रट रखे थे जिसने उनकी भाषाई नींव को उत्तरोत्तर मजबूत किया. लोक कथाओं के प्रति उत्सु्कता ने किस्सागोई की बुनियाद उनमें डाली जिससे बाद में वे एक कहानीकार व उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित हुईं. 'राजा दिया मंडियां' नामक उनकी पहली कविता जब चौदह साल की उम्र में छपी तो इलाके में उनका खूब नाम हुआ. इतनी अपरिपक्व उम्र में लिखी यह कविता बाद में डोगरी की एक क्लासिक कविता मानी गयी तथा डोगरी के अनेक संकलनों में वह शामिल की गयी. बाद में उनका पहला संग्रह 'मेरी कविता मेरे गीत आया' तो उसकी भूमिका राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' ने लिखी.  

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अपने तीन भाई बहनों में सबसे बड़ी पद्मा सचदेव का विवाह 1966 में सिंह बंधु नामक प्रख्यात गायक जोड़ी के सुरिंदर सिंह से हुआ, उसके बाद से वे चितरंजन पार्क दिल्ली में रह रही थीं. शुरुआत में उन्होंने जम्मू और कश्मीर रेडियो में कार्य किया. दिल्ली आने के बाद वे यहां आकाशवाणी से डोगरी समाचार वाचिका के पद पर नियुक्त हुईं. वे डोगरी में कविताएं व कहानियां लिखा करती थीं तथा बाद में संस्मरण और आत्मकथा की ओर मुड़ीं. डोगरी में उनकी आत्मकथा 'चित्त चेते' और हिंदी में आत्मकथा 'बूँद बावड़ी' में उनके प्रारंभिक जीवन संघर्ष का ब्यौरा है. 'बूंद बावड़ी' में उनका आहत कवि मन जगह-ब-जगह नजर आता है जो किसी अनाम शायर के संपर्क में आकर जैसे घुट रहा था. ये दिन उनके जीवन में माइग्रेन वाले दिन थे जिसकी पृष्ठभूमि में उनकी आत्मा और मन पर की गयी चोंटें थीं. 'बूंद बावड़ी' इन्हीं अंदरूनी चोटों की दास्तान है. लेकिन प्रारंभिक जीवन से निकल कर नए जीवन में प्रवेश करने के बाद पुन: एक नई पद्मा सचदेव का जन्म हुआ. उनकी कविताओं में डोगरी लोकगीतों व डोगरी व कश्मीरी लोक समाज की पीड़ा के दर्शन होते हैं. उन्होंने अपनी कविताओं में जम्मू के लोकेल को भी बखूबी उकेरा है. उन्होंने अपनी माटी का ऋण 'जम्मू जो कभी शहर था' नामक उपन्यास लिख कर अदा किया. महज 31 साल की उम्र में डोगरी भाषा में अपनी पुस्तक 'मेरी कविता मेरे गीत' के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार पाकर उन्होंने डोगरी का मान बढ़ाया. दिल्ली स्थायी रूप से रहने के पहले वे मुंबई आकाशवाणी से संबद्ध रहीं तथा वहां रह कर वे धर्मवीर भारती, पुष्पा भारती, लता मंगेशकर सहित अनेक फिल्मी गायकों, कलाकारों से गहरे जुड़ी थीं. उनके संस्मरणों में मुंबई की दुनिया लहलहाती मिलती है.  
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सर्जनात्मक कृतियां एवं पुरस्कार
यों तो वे मूलत: डोगरी भाषा की कथाकार व कवयित्री रहीं. पर धीरे-धीरे हिंदी की दुनिया में रमती गयीं. डोगरी में उनके आठ कविता संग्रह आए और तीन गद्य कृतियां छपीं तो हिंदी में कुल उन्नीस पुस्तकें तथा उर्दू में एक पुस्तक प्रकाशित हुई. तमाम भाषाओं में उनकी रचनाओं के अनुवाद भी हुए जिनमें विभिन्न भाषाओं से अनूदित 11 कृतियां हैं. यों एक सूची उनकी पुस्तकों की बनाई जाए तो इस तरह बनती है- मेरी कविता मेरे गीत, तवी ते चन्हॉं, नेहरियां गलियां, पोटा पोटा निम्बल, उत्तर बैहनी, तैथियां, अक्खंर कुंड व सबद मिलावा जैसे कविता संग्रह; गोदभरी व बुहुरा कहानी संग्रह, मितवाघर, दीवानखाना, अमराई व बारहदरी जैसे साक्षात्कार संस्मरण और जम्मू  जो कभी शहर था, अब न बनेगी देहरी, नौशीन, भटको नहीं धनंजय आदि उपन्यास व आत्मकथाओं की कृतियां चित्त चेते व बूंद बावड़ी  व यात्रा वृत्तांत की पुस्तक मैं कहती हूं आंखिन देखी. वे अपने कृतित्व के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार, सरस्वती सम्मान (चित्त चेते के लिए), सोवियत लैंड नेहरू पुरस्काकर, हिंदी अकादमी पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान सौहार्द सम्मान, केंद्रीय हिंदी संस्थान--गंगाशंरण सिंह पुरस्कार, राजा राममोहन राय पुरस्कार, जोशुआ पुरस्कार व कबीर सम्मान आदि से सम्मानित की जा चुकी हैं. उन्हें पद्मश्री से भी नवाज़ा जा चुका है. 2019 में पद्मा जी को साहित्य अकादेमी का फेलो बनाया गया व उन्हें महत्तर सदस्यता दी गयी जो अकादेमी की ओर से दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान है.

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उनकी कविता पढ़ कर पंजाबी कवि डॉ हरभजन सिंह ने कहा था, ''मैंने आज तक कोई लेखिका नहीं देखी जो इतनी सकारात्मक हो, उनकी कविता स्त्रीत्व को पूर्णता में प्रिया, बहन अथवा मॉं के रूप में प्रस्तुत करती है.'' उनकी कुछ कहानियों पर फिल्में व टेली धारावाहिक भी बने हैं तथा हिंदी व डोगरी गीतों को फिल्म में भी इस्तेमाल किया गया है. उन्होंने डोगरी के लिए पहला संगीत डिस्क तैयार किया, जिसमें अनेक गीत व धुनें हैं जिन्हें स्वर कोकिला लता जी ने स्व‍रबद्ध किया है. सबसे उल्लेखनीय यह कि जब डोगरी की उनकी काव्यकृति को साहित्य अकादेमी पुरस्कार 1971 में मिला तो उनके साथ पुरस्कार ग्रहण करने वालों में मुल्कराज आनंद, नामवर सिंह व रशीद अहमद सिद्दीकी जैसे दिग्गज लेखक भी मौजूद थे. मुल्कराज आनंद को तो वे बचपन में अपनी पाठ्य पुस्तक में पढ़ भी चुकी थीं. यह लम्हा उनके लिए वाकई खास था जब वे सचमुच सातवें आसमान पर थीं.

एक संवेदनशील कवयित्री के रूप में उन्होंने डोगरी में अपनी आंखें खोलीं तो अपने आस पास लोकगीतों का खजाना पाया. लोकगीत वैसे ही मार्मिक होते हैं आत्मा को खींच लेने वाले. उन गीतों का असर उनकी कविताओं पर भी पड़ा. साहित्य अकादेमी की महत्तर सदस्यता स्वीकार करते हुए 12 जून 2019 को उन्होंने अकादेमी सभागार में दिए गए अपने वक्त‍व्य में कहा था कि मैं कविता लिखते हुए कुछ ऐसा महसूस करती हूं-
टूट जाते हैं कभी मेरे किनारे मुझमें
डूब जाता है कभी मुझमें समंदर मेरा.
वे कहती हैं कविताएं अपने आप आती हैं, गद्य को लाना पड़ता है. उस लम्हे में जितना डूब सकें उतने ही ज्यादा कीमती रत्न ढूंढ कर जाए जा सकते हैं. उन्होंने अपने वक्तव्य में आभार माना था कि 'मैं सिर्फ डोगरी में कविताएं लिखती थी किन्तु धर्मवीर भारती के कहने पर गद्य लिखना शुरू किया. हर तरह का गद्य लिखा. चार पुस्तकें साक्षात्कारों पर लिख कर बहुत संतोष मिला. मैं जिन्दगी से भर गयी.'

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हालांकि वे डोगरी की एक संवेदनशील कवयित्री थीं, जो कश्मीर की भाषा है किन्तु उनकी कविताओं के संग्रह हिंदी में अनूदित होकर छपते रहे जिससे वे हिंदी जगत में उसी तरह पढ़ी जाती थीं जैसे अमृता प्रीतम पंजाबी लेखिका होते हुए हिंदी की लेखिका की तरह पढ़ी और सराही जाती थीं. बल्कि कहा जाए कि पंजाबी नहीं हिंदी ने अमृता प्रीतम को महान बनाया तो अत्युक्ति न होगी. उसी तरह डोगरी की होकर भी पद्मा सचदेव जानी-पहचानी गयीं तो इसमें उस उदारचेता हिंदी का योगदान है जिसने उन्हें हिंदी जगत में भी लोकप्रिय बनाए रखा. उनकी एक कविता के अंश देखें-
सुनो
सुनो तो सही
मेरे आसपास बँधा हुआ ये जाल मत तोड़ो
मैंने सारी उम्र इसमें से निकलने का यत्न किया है
इससे बँधा हुआ काँटा-काँटा मेरा परिचित है
पर ये सारे हीं काँटे मरते देखते-देखते उगे हैं
रात को सोने से पहले
मैं इनके बालों को हाथों से सहलाकर सोयी थी
और सुबह उठते हीं
इनके वो मुँह तीखे हो गये हैं
...
इसमें से निकलने के जितने हीले
मुझे इसके बीच रहकर सूझते हैं
इसके बाहर वो कहाँ
उम्र की यह कठिन बेला
मुझे काटने दो इस जाल के भीतर दबकर
चलो, अब दूर हो जाओ
जाल के काँटों के बहुत-से मुँह
मेरे कलेजे में खुभे हुए हैं
जाल काटते हीं अगर ये मुझमें टूट गये
तो मत पूछो क्या होगा
बुजुर्ग कहते हैं-
टूटे हुए काँटों का बड़ा दर्द होता है.
...
जम्मू से प्रेम
जम्मू आँखों में है रहता
यहाँ जाग कर यहीं है सोता
मैं सौदाई गली गली में
मन की तरह घिरी रहती हूं
क्या कुछ होगा शहर मेरे का
क्या मंशा है क़हर तेरे का
अब न खेलो आँख मिचौली
आगे आगे क्या होना है

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उन्होंने कुछ बालसुलभ कविताएं भी लिखी हैं जिसका एक ललित उदाहरण देखें-

सो जा बिटिया, सो जा रानी,
निंदिया तेरे द्वार खड़ी.
निंदिया का गोरा है मुखड़ा
चांद से टूटा है इक टुकड़ा,
नींद की बांहों में झूलोगी
गोद में हो जाओगी बड़ी.
निंदिया तेरे द्वार खड़ी!

उनकी एक पुस्त़क रुबाइयों की ही है. रुबाइयों में जीवन दर्शन किस तरह कूट कूट कर भरा है इसका उदाहरण उनकी ये दो रुवाइयां हैं-
शहर में अब कोई मित्तर न रहा
आज तक जो था चरित्तर न रहा
आस के तोते सभी तो उड़ गए
पालने को कोई तीतर न रहा

पानी तेरी आहटें हलकी नहीं
हिल गयीं चाहे मगर छलकी नहीं
जब भी समंदर में तुम मिल जाओगे
कौन हो तुम कुछ खबर होगी नहीं
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उनसे बातें-मुलाकातें
उन्हें कई मंचों पर सुन चुका था. उनकी कई पुस्तकें जिनमें बूंद बावड़ी, अक्खर कुंड, इन बिन तथा कुछ संस्मरणात्मक कृतियॉं पढ़ चुका था इसलिए उनके लेखकीय मिजाज और रेंज का पता था. पर उनसे बात होगी और इतनी अकुंठ खुली तथा स्ने‍हिल दिल की स्त्री होंगी इसे उस बातचीत के पहले न जानता था जब तक कि उन्होंने एक पत्रिका में भारतीय ज्ञानपीठ से आई अपनी पुस्तक 'इन बिन' पर मेरी समीक्षा पढ़ने के बाद पत्रिका के संपादक नीलाभ मिश्र से फोन लेकर मुझसे बात न की थी. 'इन बिन' में उनकी ऐसी संस्मरणात्मक कथाएं हैं, जो उन्होंने घर के नौकर चाकरों व कमजोर तबके के पात्रों पर लिखी हैं. मैंने पाया कि एक ऐसी संभ्रांत लेखिका जो लता मंगेशकर, अमिताभ बच्चन, धर्मवीर भारती जैसे लेखकों व बड़ी हैसियत के लोगों में पैठ रखती हैं, वह अपने नौकर-चाकर, परिजनों पर इतना स्नेह लुटाते हुए संस्मरण लिखेंगी. एक बड़ा लेखक वही है जो ऐसे लोगों पर लिखते हुए भी उनमें मौजूद मनुष्यता के उच्च सूचकांक को पहचाने और उसे अपनी लेखनी से उजागर करे. उन्होंने ऐसा ही किया था. महादेवी वर्मा के बहुत अरसे बाद मैं ऐसी पुस्तक पढ़ रहा था जो लगभग उसी प्रकृति की थी. हां उनमें प्राणि प्रजातियां जरूर न थीं जिनके ऊपर महादेवी ने आत्मीयता से सराबोर होकर लिखा है. 'इन बिन' ने मुझे छुआ न होता तो शायद न लिखता. इस बातचीत में मैं पहली बार उनसे मुखातिब था. उन्होंने पता नहीं मेरी आवाज़ पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि ओम जी आप की आवाज़ बहुत अच्छी है. आपको इसका उपयोग करना चाहिए. मेरे यह कहने पर कि मैं तो बैंक के प्रबंधक हूं वहां तो इसकी कोई गुंजाइश है नहीं, सिवाय कुछ रूटीन कार्यक्रमों के या कभी-कभी किसी साहित्यिक गोष्ठी के संचालन आदि के. बात आई गयी हो गयी. वे समीक्षा की भाषा से प्रसन्न थीं. शायद उस पुस्तक पर यह मेरी पहली समीक्षा थी. उन्होंने कहा भी कि कभी मेरे घर आइये. पर मेरा जाना नहीं हो सका. चितरंजन पार्क कुंवर नारायण जी के घर अक्सर जाना होता था और कभी ख्याल आता कि देखूँ शायद पद्मा जी से भेंट हो जाए पर अक्सर कुंवर जी के घर से देर से निकलना होता और बात वहीं स्थगित हो जाती.

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दो साल पहले डॉ सूर्यबाला के उपन्यास 'दूर देस को वासी- वेणु की डायरी' पर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र द्वारा आयोजित एक समीक्षा गोष्ठी में उनसे भेंट हुई थी, जिसमें सूर्यबाला ने मुंबई की अपनी पुरानी सहेली को इसके लिए याद किया तथा अपनी पुस्तक पर बोलने के लिए बुलवाया था. वे व्यस्त होते हुए भी इस आयोजन में आईं, बोलीं और जोरदार शब्दों में सूर्यबाला की कथाकारिता पर अपनी बात रखी. मैं उनकी बगल ही बैठा था सो अभिवादन के साथ जैसे मैंने दो चार वाक्य कहे, उन्हें मेरी आवाज़ फिर से याद हो आई. फिर कहा कि ओम जी मैं फिर से यह बात कह रही हूं जब कि मैं आकाशवाणी से गए चालीस से जुड़ी हूं. आपकी आवाज़ बहुत खनकदार है. एक अनकहा आकर्षण और अनुगूंज है. आज आप बोल रहे थे तो मैं ध्यान से सुन रही थी. आवाज़ का थ्रो बहुत मोहक है. खैर फिर कहा आइये कभी मेरे आवास पर. उन्हें कहीं जाना था. इसलिए उस दिन वे बीच में इजाजत लेकर उठ गयीं अपनी कार्ड देकर. मैंने वादा किया कि इस बार जब भी कुंवर जी के घर के लिए निकलूंगा आपसे जरूर मिलूंगा. पर यह मिलना न हो सका. अब मेरी इन बातों का शायद कोई यकीन भी न करे और माने कि यह कोई सुनियोजित आत्मप्रशंसा जैसी है. पर है तो है.  

बात 'इन बिन' की चल ही रही है तो दो चार शब्द इस पर भी. वे कहती हैं, ''गुजरे हुए वक्त में हैसियत वाले लोगों के घरों में काम करने वाले नौकर चाकर पीढ़ी दर पीढ़ी अपने मालिकों के साथ रहते हुए उस घर के सदस्य जैसे हो जाते थे. बहुत से घरों में बुजुर्ग हो जाने पर ये नौकर घरेलू मामलों में सलाह भी देने लगते थे. इन रिश्तों के और भी बहुत से पहलू हैं पर मैं तो सिर्फ यह जानती हूं कि आज भी इनके बिना घर गृहस्थी के संसार से पार होना मुश्किल है.'' अपने घर के जिस पहले नौकर को उन्होंने देखा जाना उसका नाम लभ्भू था. उसने पद्मा को बचपन में गोद में खिलाया था तथा कंधे पर बैठा कर सैरें करायी थीं. जब वे बड़ी होकर जम्मू रेडियों पर समाचार वाचिका बनीं तो एक दिन उसने उन्हें देख कर उनकी मां से पूछा क्या ये वही अपनी पद्दो है. मां बचपन में पद्मा को पद्दो ही कहा करती थीं. मां ने कहा हां तो उसने कहा कि इनका नाम तो रेडियो पर आता है. फिर नकल उतारता हुआ बोला, 'हुन तुस डोगरी चा खबरां सुनो.' किस्सागोई में तो पद्मा को कोई मात नहीं दे सकता. बातें और बातों में बातें उनकी विशेषता थी. बात बनाने की कला में भी वे माहिर थीं. शायद किस्सागो होने की पहली शर्त ही यही है.
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उनकी कुछ अन्य कृतियां
वैसे तो उन्होंने कई उपन्यास लिखे हैं पर जैसा कि ऊपर कहा है 'जम्मू जो कभी शहर था'  लिखकर उन्होंने अपनी माटी का ऋण अदा किया है. पर यह जम्मू उनके मन की एक फांस भी है जो सदैव उनके भीतर चुभती रही. जम्मू में पैदा होकर जिस जम्मू को देखा. वहां की आबोहवा में पली बढ़ीं वही जम्मू बाद में बहुत गंदा होता गया इसका मलाल रहा उन्हें. दूसरी बात यह कि महाराजा हरिसिंह ने शेख अब्दुल्ला की सलाह पर किसी के भी यहां आ बसने पर रोक लगाई तो संभवत: इसलिए कि यहां भीड़ न होने पाए पर वहीं यहां कि बेटियां जो बाहर ब्याही गयीं इस जमीन से बेगानी हो गयीं और लड़कों को रियासतें मिलीं. यहां की न होकर भी इन लड़कों से ब्याह करनेवाली स्त्रियां यहां की बाशिंदा हो गयीं. यह बात उन्हें सालती रही. इस उपन्यास के केंद्र में एक सुग्गी नाइन है जिसके जरिए जम्मू के अतीत को देखा पहचाना जा सकता है.  'तेरी ही बात सुनाने आए'- किसी ग़ज़ल का मतला सा लगता है. यह संग्रह उनकी डोगरी रुबाइयों का हिंदी में अनूदित संग्रह है जिन्हें चौपदे कह सकते हैं या मुक्तक भी. इन रुबाइयों में पद्मा सचदेव का कवि मन गहरे अतल में गोते लगाता है जिसमें आध्यात्मिक झलक भी पाई जा सकती है और लौकिक भी.

'मैं कहती हूं आंखिन देखी'- यात्रा वृत्तांतों की पुस्तक है. कहना न होगा कि 79 के आस पास वे धर्मवीर भारती के संपर्क में आईं और पद्मा सचदेव के गद्य लेखन की शुरुआत हुई. इसके पीछे भारती के मार्गदर्शन और प्रेरणा का खासा हाथ रहा है. वे इस बात को स्वीवकार भी करती थीं. भारती परिवार के तो वे कितनी निकट थीं यह बात उनके संस्मरण खुद बताते हैं. उन्होंने देश विदेश की बहुतेरी यात्राएं की हैं तथा यह पुस्तक इन्हीं यात्रा वृत्तांतों का दुर्लभ दस्तावेज है. 'भटको नहीं धनंजय'  अर्जुन पर केंद्रित उपन्यास है. यानी महाभारत आधारित कथा. पर उन्होंने यहां स्त्री होकर द्रोपदी की पीड़ा का भाष्य नहीं किया है. वह तो सर्वत्र कथा संसार की नायिका रही ही हैं खुद महाभारत की भी जिसके इर्द गिर्द पूरा महाभारत का युद्ध लड़ा गया. पर यहां पीड़ा अर्जुन की है. अर्जुन जानते हैं कि द्रोपदी उनकी पत्नी होकर भी सभी भाइयों में बंटी हुई है. यह तो एक बाधा रही है कि एक पत्नी से पतिधर्म निभाने में सभी भाइयों को समस्या आती रही होगी पर द्रोपदी से दूर जाने पर अर्जुन की क्या मनोभूमि रही है इसे पद्मा सचदेव ने इस उपन्यास के केंद्र में रखा है. उन्होंने स्त्री होकर भी अपने को अर्जुन की त्रासदी में अंतर्भुक्त कर लिया; तब इस उपन्यास का जन्म हुआ.

'अमराई' उनके संस्मरणों का संग्रह है. बहुत आत्मीयता के साथ उन्होंने त्रिलोचन, केदारनाथ सिंह, इंदिरा गोस्वामी, कुर्रतुल ऐन हैदर, प्रभाकर माचवे, शिवानी, मलिका पुखराज, यू आर अनंतमूर्ति, फारूख अब्दुल्ला, नामवर सिंह, धर्मवीर भारती, सुमित्रानंदन पंत व ललिता शास्‍त्री को याद किया है. त्रिलोचन उनके लिए रमता जोगी थे तो पंत जी मैके के कवि व ललिता जी एक उदास कजरी. इसी तरह 'बारहदरी' यादों की बारहदरी है जिसमें अनेक आला की यादों का खजाना है. इनमें अशोक वाजपेयी, अमीन सायानी, विष्णुकांत शास्त्री, लता मंगेशकर, गुलजार, कमलेश्वर, खुशवंत सिंह, फैज़ जैसे लोग शामिल हैं. त्रिलोचन के लिए लिखा है उन्होंने कि दाल का दूल्हा चला गया तो खुशवंत सिंह को सच्चे आचरण की मिसाल कहा है, कमलेश्वर के लिए हम जहां पहुंचे कामयाब आए लिखा तो लता मंगेशकर को तेरी उपमा तोहे बन आव; गुलजार के लफ्जों में वे नमक का असर देखती हैं तो राजिंदर सिंह बेदी को वे लफ्जों का जादूगर बताती हैं. एक तरह से कवि व उपन्यासकार होने के अलावा मुख्यत: संस्मरण के मामले में वे एक यादगार कोष थीं.

आज वे नहीं हैं. इस पार्थिव चोले से छिटक कर वे दूर चली गयी हैं जहां से कोई लौट कर नहीं आता. पर ऐसे लोगों का कृतित्व हमारे बीच रह जाता है जिसे हम समय समय पर पढ़ते और याद करते हैं. पद्मा सचदेव अपनी कविताओं, कहानियों, उपन्यासों व संस्मरणों-साक्षात्कारों के लिए याद की जाएंगी इसमें संदेह नहीं. उनकी जैसी विनम्रता व सादगी कम लेखकों में देखी जाती है और अब वह धीरे धीरे दुर्लभ हो चली है. बड़े लोगों के संसर्ग में रह कर उन्होंने जाना था कि लेखकों की सादगी के क्या अर्थ होते हैं कि वह अपने पाठकों का नायक होता है. उन्हें साहित्य आजतक की विनम्र श्रद्धांजलि.
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# डॉ ओम निश्चल हिंदी के सुधी आलोचक कवि एवं भाषाविद हैं. आपकी शब्दों से गपशप, भाषा की खादी, शब्द सक्रिय हैं, खुली हथेली और तुलसीगंध, कविता के वरिष्ठ नागरिक, कुंवर नारायण: कविता की सगुण इकाई, समकालीन हिंदी कविता: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य व कुंवर नारायण पर संपादित कृतियों 'अन्वय' एवं 'अन्विति' सहित अनेक आलोचनात्मक कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं. आप हिंदी अकादेमी के युवा कविता पुरस्कार एवं आलोचना के लिए उप्र हिंदी संस्थान के आचार्य रामचंद शुक्ल आलोचना पुरस्कार, जश्ने अदब द्वारा शाने हिंदी खिताब व कोलकाता के विचार मंच द्वारा प्रोफेसर कल्या‍णमल लोढ़ा साहित्य सम्मान से सम्मानित हो चुके हैं.  संपर्कः जी-1/506 ए, उत्तम नगर, नई दिल्ली- 110059, फोन: 9810042770, मेल: dromnishchal@gmail.com

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