पुण्यतिथि विशेषः चांद का मुंह टेढ़ा है व मानव की मुक्ति का सपना देखने वाले गजानन माधव मुक्तिबोध
गजानन माधव मुक्तिबोध हिंदी के अतिविशिष्ट रचनाकार रहे हैं. कविता, कहानी और आलोचना में उन्होंने युग बदल देने वाला काम किया. उनकी पुण्यतिथि पर जानें उनके बारे में व पढ़ें उनकी कविता 'चांद का मुंह टेढ़ा है'
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प्रतीकात्मक इमेज [सौजन्यः Edward Mitchell Bannister] इनसेट में मुक्तिबोध
आजकल सच्चाई का सबसे बड़ा दुश्मन असत्य नहीं, स्वयं सच्चाई ही है, क्योंकि वह ऐंठती नहीं, सज्जनता को साथ लेकर चलती है. आजकल के जमाने में वह है आउट-ऑफ-डेट. यह गजानन माधव मुक्तिबोध की बहुप्रचारित उक्ति है. दशकों पहले लिखे गए उनके साहित्य की तरह ही उनकी कही गई बातें भी उतना ही मौजूं हैं.
मुक्तिबोध हिंदी के अतिविशिष्ट रचनाकार रहे हैं. कविता, कहानी और आलोचना में उन्होंने युग बदल देने वाला काम किया. पहली बार बतौर कवि व्यवस्थित रूप में वह सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' द्वारा संपादित ‘तार सप्तक’ में अपनी कविताओं के साथ उपस्थित हुए. यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण था कि उनके जीवनकाल में उनकी कविता की कोई किताब नहीं प्रकाशित हो पाई. उनके जीवित रहते उनकी सिर्फ एक किताब छपी, वह थी ‘एक साहित्यिक की डायरी.'
पर उनकी रचनाओं की धमक का आलम यह था कि हिंदी साहित्य लेकर पढ़ने वाला कोई भी छात्र बिना मुक्तिबोध को पढ़े न तो स्नातकोत्तर हो स्कता है, न ही प्रशासनिक अधिकारी. केंद्रीय प्रशासनिक परीक्षाओं में मुक्तिबोध और उनकी लंबी कविताएं एक स्थायी विषय हैं. वह ऐसे विलक्षण रचनाकार हैं, जिनके लिखे की गूंज परवर्ती कविता, विचार, आलोचना, कहानी सबमें बढ़ती ही रही है..
आलम यह था कि साल 2008 में भारतीय ज्ञानपीठ ने जब उनकी एक कृति 'विपात्र' छापी तो उसके परिचय में लिखा- लघु उपन्यास, या एक लम्बी कहानी, या डायरी का अंश, या लम्बा रम्य गद्य, या चौंकाने वाला एक विशेष प्रयोग- कुछ भी संज्ञा इस पुस्तक को दी जा सकती है, पर इन सबसे विशेष है यह कथा-कृति, जिसका प्रत्येक अंश अपने आप में परिपूर्ण और इतना जीवन्त है कि पढ़ना आरम्भ करें तो पूरी पढ़ने का मन हो, और कहीं भी छोड़ें तो लगे कि एक पूर्ण रचना पढ़ने का सुख मिला.
गजानन माधव 'मुक्तिबोध' का जन्म 13 नवंबर, 1917 को ग्वालियर के श्यौपुर में हुआ था. उनकी आरम्भिक शिक्षा उज्जैन में हुई. पिता पुलिस विभाग के इंस्पेक्टर थे और उनका तबादला प्रायः होता रहता था, इसीलिए मुक्तिबोध की पढ़ाई में बाधा पड़ती रही इन्दौर के होल्कर से सन् 1938 में बीए करने के बाद वह वहीं उज्जैन के माडर्न स्कूल में अध्यापक हो गए. साल 1940 में मुक्तिबोध शुजालपुर के शारदा शिक्षा सदन में अध्यापक हो गए. इसके बाद उज्जैन, कलकत्ता, इंदौर, बम्बई, बंगलौर, बनारस तथा जबलपुर आदि जगहों पर नौकरी की.
साल 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब यह शारदा शिक्षा सदन बंद हो गया, तो मुक्तिबोध फिर से उज्जैन चले गये. वहां मास्टरी से लेकर वायुसेना, पत्रकारिता और राजनीतिक दलों तक की नौकरियां कीं. साल 1948 में वह नागपुर आये. सूचना तथा प्रकाशन विभाग, आकाशवाणी एवं 'नया ख़ून' में काम किया. अंत में कुछ माह तक पाठ्य पुस्तकें भी लिखी. साल 1958 में राजनाँदगाँव के दिग्विजय महाविद्यालय में प्राध्यापक हुए. उन्होंने खुद लिखा कि-
नौकरियाँ पकड़ता और छोड़ता रहा. शिक्षक, पत्रकार, पुनः शिक्षक, सरकारी और ग़ैर सरकारी नौकरियाँ. निम्न-मध्यवर्गीय जीवन, बाल-बच्चे, दवादारू, जन्म-मौत में उलझा रहा.
बावजूद अपनी यायावरी के मुक्तिबोध मरने के बाद ही सही खूब छपे. उनकी चर्चित कृतियों में कविता संग्रह- चाँद का मुँह टेढ़ा है, भूरी भूरी खाक धूल; कहानी संग्रह- काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी; आलोचना- कामायनी: एक पुनर्विचार, नई कविता का आत्मसंघर्ष, नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, समीक्षा की समस्याएँ, एक साहित्यिक की डायरी; इतिहास- भारत: इतिहास और संस्कृति तथा मुक्तिबोध रचनावली शामिल है.
फिर भी गजानन माधव मुक्तिबोध मूलतः कवि हैं. उनकी कविताएं जटिल हैं, दुरूह हैं, पर अपने भाव में विशिष्ट. नई कविता का वह एक ऐसा स्वर जिन्हें अनदेखा करना मुश्किल है. बीसवीं सदी की हिंदी कविता का सबसे बेचैन, सबसे तड़पता और सबसे ईमानदार स्वर हैं गजानन माधव मुक्तिबोध. भगवान सिंह ने उनकी कविता की जटिलता का बयान इस तरह किया है- ‘वे सरस नहीं हैं, सुखद नहीं हैं. वे हमें झकझोर देती हैं, गुदगुदाती नहीं. वे मात्र अर्थग्रहण की मांग नहीं करतीं, आचरण की भी मांग करती हैं. तारसप्तक में मुक्तिबोध ने स्वयं कहा है, ‘मेरी कविताएँ अपना पथ खोजते बेचैन मन की अभिव्यक्ति हैं. उनका सत्य और मूल्य उसी जीव-स्थिति में छिपा है.
प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने कहा है- नई कविता में मुक्तिबोध की जगह वही है, जो छायावाद में निराला की थी. निराला के समान ही मुक्तिबोध ने भी अपनी युग के सामान्य काव्य-मूल्यों को प्रतिफलित करने के साथ ही उनकी सीमा की चुनौती देकर उस सर्जनात्मक विशिष्टता को चरितार्थ किया, जिससे समकालीन काव्य का सही मूल्यांकन हो सका."
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आज मुक्तिबोध की पुण्यतिथि पर पढ़ें उनकी यह चर्चित कविताः
कविताः चाँद का मुँह टेढ़ा है
- गजानन माधव मुक्तिबोध
नगर के बीचों-बीच आधी रात- अँधेरे की काली स्याह शिलाओं से बनी हुई भीतों और अहातों के, काँच-टुकड़े जमे हुए ऊँचे-ऊँचे कंधों पर चाँदनी की फैली हुई सँवलायी झालरें. कारखाना- अहाते के उस पार धूम्र मुख चिमनियों के ऊँचे-ऊँचे उद्गार - चिह्नाकार - मीनार मीनारों के बीचों-बीच चाँद का है टेढ़ा मुँह !! भयानक स्याह सन तिरपन का चाँद वह !! गगन में कर्फ्यू है धरती पर चुपचाप जहरीली छिः थूः है !! पीपल के खाली पड़े घोंसलों में पक्षियों के, पैठे हैं खाली हुए कारतूस। गंजे-सिर चाँद की सँवलायी किरनों के जासूस साम-सूम नगर में धीरे-धीरे घूम-घाम नगर के कोनों के तिकोनों में छिपे हैं !! चाँद की कनखियों की कोण-गामी किरनें पीली-पीली रोशनी की, बिछाती हैं अँधेरे में, पट्टियाँ। देखती हैं नगर की जिंदगी का टूटा-फूटा उदास प्रसार वह।
समीप विशालाकार अँधियाले लाल पर सूनेपन की स्याही में डूबी हुई चाँदनी भी सँवलायी हुई है !!
भीमाकार पुलों के बहुत नीचे, भयभीत मनुष्य-बस्ती के बियाबान तटों पर बहते हुए पथरीले नालों की धारा में धराशायी चाँदनी के होंठ काले पड़ गये
हरिजन गलियों में लटकी है पेड़ पर कुहासे के भूतों की साँवली चूनरी - चूनरी में अटकी है कंजी आँख गंजे-सिर टेढ़े-मुँह चाँद की।
बारह का वक्त है, भुसभुसे उजाले का फुसफुसाता षड्यंत्र शहर में चारों ओर; जमाना भी सख्त है !!
अजी, इस मोड़ पर बरगद की घनघोर शाखाओं की गठियल अजगरी मेहराब - मरे हुए जमानों की संगठित छायाओं में बसी हुई सड़ी-बुसी बास लिये - फैली है गली के मुहाने में चुपचाप। लोगों के अरे ! आने-जाने में चुपचाप, अजगरी कमानी से गिरती है टिप-टिप फड़फड़ाते पक्षियों की बीट - मानो समय की बीट हो !! गगन में कर्फ्यू है, वृक्षों में बैठे हुए पक्षियों पर कर्फ्यू है, धरती पर किंतु अजी ! जहरीली छिः थूः है।
बरगद की डाल एक मुहाने से आगे फैल सड़क पर बाहरी लटकती है इस तरह - मानो कि आदमी के जनम के पहले से पृथ्वी की छाती पर जंगली मैमथ की सूँड़ सूँघ रही हो हवा के लहरीले सिफरों को आज भी बरगद की घनी-घनी छाँव में फूटी हुई चूड़ियों की सूनी-सूनी कलाई-सा सूनी-सूनी गलियों में गरीबों के ठाँव में - चौराहे पर खड़े हुए भैरों की सिंदूरी गेरुई मूरत के पथरीले व्यंग्य स्मित पर टेढ़े-मुँह चाँद की ऐयारी रोशनी, तिलिस्मी चाँद की राज-भरी झाइयाँ !! तजुर्बों का ताबूत जिंदा यह बरगद जानता कि भैरों यह कौन है !! कि भैरों की चट्टानी पीठ पर पैरों की मजबूत पत्थरी-सिंदूरी ईंट पर भभकते वर्णों के लटकते पोस्टर ज्वलंत अक्षर !!
सामने है अँधियाला ताल और स्याह उसी ताल पर सँवलायी चाँदनी, समय का घंटाघर, निराकार घंटाघर, गगन में चुपचाप अनाकार खड़ा है !! परंतु, परंतु... बतलाते जिंदगी के काँटे ही कितनी रात बीत गयी
चप्पलों की छपछप, गली के मुहाने से अजीब-सी आवाज, फुसफुसाते हुए शब्द ! जंगल की डालों से गुजरती हवाओं की सरसर गली में ज्यों कह जाय इशारों के आशय, हवाओं की लहरों के आकार - किन्हीं ब्रह्मराक्षसों के निराकार अनाकार मानो बहस छेड़ दें बहस जैसे बढ़ जाय निर्णय पर चली आय वैसे शब्द बार-बार गलियों की आत्मा में बोलते हैं एकाएक अँधेरे के पेट में से ज्वालाओं की आँत बाहर निकल आय वैसे, अरे, शब्दों की धार एक बिजली के टॉर्च की रोशनी की मार एक बरगद के खुरदरे अजगरी तने पर फैल गयी अकस्मात् बरगद के खुरदरे अजगरी तने पर फैल गये हाथ दो मानो हृदय में छिपी हुई बातों ने सहसा अँधेरे से बाहर आ भुजाएँ पसारी हों फैले गये हाथ दो चिपका गये पोस्टर बाँके तिरछे वर्ण और लाल नीले घनघोर हड़ताली अक्षर
इन्हीं हलचलों के ही कारण तो सहसा बरगद में पले हुए पंखों की डरी हुई चौंकी हुई अजीब-सी गंदी फड़फड़ अँधेरे की आत्मा से करते हुए शिकायत काँव-काँव करते हुए पक्षियों के जमघट उड़ने लगे अकस्मात् मानो अँधेरे के हृदय में संदेही शंकाओं के पक्षाघात !! मद्धिम चाँदनी में एकाएक एकाएक खपरैलों पर ठहर गयी बिल्ली एक चुपचाप रजनी के निजी गुप्तचरों की प्रतिनिधि पूँछ उठाये वह जंगली तेज आँख फैलाये यमदूत-पुत्री-सी (सभी देह स्याह, पर पंजे सिर्फ श्वेत और खून टपकाते हुए नाखून) देखती है मार्जार चिपकाता कौन है मकानों की पीठ पर अहातों की भीत पर बरगद की अजगरी डालों के फंदों पर अँधेरे के कंधों पर चिपकाता कौन है ? चिपकाता कौन है हड़ताली पोस्टर बड़े-बड़े अक्षर बाँके-तिरछे वर्ण और लंबे-चौड़े घनघोर लाल-नीले भयंकर हड़ताली पोस्टर !! टेढ़े-मुँह चाँद की ऐयारी रोशनी भी खूब है मकान-मकान घुस लोहे के गजों की जाली के झरोखों को पार कर लिपे हुए कमरे में जेल के कपड़े-सी फैली है चाँदनी, दूर-दूर काली-काली धारियों के बड़े-बड़े चौखट्टों के मोटे-मोटे कपड़े-सी फैली है लेटी है जालीदार झरोखे से आयी हुई जेल सुझाती हुई ऐयारी रोशनी !! अँधियाले ताल पर काले घिने पंखों के बार-बार चक्करों के मँडराते विस्तार घिना चिमगादड़-दल भटकता है चारों ओर मानो अहं के अवरुद्ध अपावन अशुद्ध घेरे में घिरे हुए नपुंसक पंखों की छटपटाती रफ्तार घिना चिमगादड़-दल भटकता है प्यासा-सा, बुद्धि की आँखों में स्वार्थों के शीशे-सा !!
बरगद को किंतु सब पता था इतिहास, कोलतारी सड़क पर खड़े हुए सर्वोच्च गांधी के पुतले पर बैठे हुए आँखों के दो चक्र यानी कि घुग्घू एक - तिलक के पुतले पर बैठे हुए घुग्घू से बातचीत करते हुए कहता ही जाता है - "...मसान में... मैंने भी सिद्धि की। देखो मूठ मार दी मनुष्यों पर इस तरह..." तिलक के पुतले पर बैठे हुए घुग्घू ने देखा कि भयानक लाल मूँठ काले आसमान में तैरती-सी धीरे-धीरे जा रही
उद्गार-चिह्नाकार विकराल तैरता था लाल-लाल !! देख, उसने कहा कि वाह-वाह रात के जहाँपनाह इसीलिए आज-कल दिल के उजाले में भी अँधेरे की साख है रात्रि की काँखों में दबी हुई संस्कृति-पाखी के पंख है सुरक्षित !! ...पी गया आसमान रात्रि की अँधियाली सच्चाइयाँ घोंट के, मनुष्यों को मारने के खूब हैं ये टोटके ! गगन में कर्फ्यू है, जमाने में जोरदार जहरीली छिः थूः है !! सराफे में बिजली के बूदम खंभों पर लटके हुए मद्धिम दिमाग में धुंध है, चिंता है सट्टे की हृदय-विनाशिनी !! रात्रि की काली स्याह कड़ाही से अकस्मात् सड़कों पर फैल गयी सत्यों की मिठाई की चाशनी !!
टेढ़े-मुँह चाँद की ऐयारी रोशनी भीमाकार पुलों के ठीक नीचे बैठकर, चोरों-सी उचक्कों-सी नालों और झरनों के तटों पर किनारे-किनारे चल, पानी पर झुके हुए पेड़ों के नीचे बैठ, रात-बे-रात वह मछलियाँ फँसाती है आवारा मछुओं-सी शोहदों-सी चाँदनी सड़कों के पिछवाड़े टूटे-फूटे दृश्यों में, गंदगी के काले-से नाले के झाग पर बदमस्त कल्पना-सी फैली थी रात-भर सेक्स के कष्टों के कवियों के काम-सी ! किंग्सवे में मशहूर रात की है जिंदगी ! सड़कों की श्रीमान् भारतीय फिरंगी दुकान, सुगंधित प्रकाश में चमचमाता ईमान रंगीन चमकती चीजों के सुरभित स्पर्शों में शीशों की सुविशाल झाँइयों के रमणीय दृश्यों में बसी थी चाँदनी खूबसूरत अमरीकी मैग्जीन-पृष्ठों-सी खुली थी, नंगी-सी नारियों के उघरे हुए अंगों के विभिन्न पोजों में लेटी थी चाँदनी सफे़द अंडरवीयर-सी, आधुनिक प्रतीकों में फैली थी चाँदनी ! कर्फ्यू नहीं यहाँ, पसंदगी...संदली, किंग्सवे में मशहूर रात की है जिंदगी
अजी, यह चाँदनी भी बड़ी मसखरी है !! तिमंजले की एक खिड़की में बिल्ली के सफे़द धब्बे-सी चमकती हुई वह समेटकर हाथ-पाँव किसी की ताक में बैठी हुई चुपचाप धीरे से उतरती है रास्तों पर पथों पर; चढ़ती है छतों पर गैलरी में घूम और खपरैलों पर चढ़कर नीमों की शाखों के सहारे आँगन में उतरकर कमरों में हलके-पाँव देखती है, खोजती है - शहर के कोनों के तिकोने में छुपी हुई चाँदनी सड़क के पेड़ों के गुंबदों पर चढ़कर महल उलाँघ कर मुहल्ले पार कर गलियों की गुहाओं में दबे-पाँव खुफिया सुराग में गुप्तचरी ताक में जमी हुई खोजती है कौन वह कंधों पर अँधेरे के चिपकाता कौन है भड़कीले पोस्टर, लंबे-चौड़े वर्ण और बाँके-तिरछे घनघोर लाल-नीले अक्षर। कोलतारी सड़क के बीचो-बीच खड़ी हुई गांधी की मूर्ति पर बैठे हुए घुग्घू ने गाना शुरु किया, हिचकी की ताल पर साँसों ने तब मर जाना शुरू किया, टेलीफोन-खंभों पर थमे हुए तारों ने सट्टे के ट्रंक-कॉल-सुरों में थर्राना और झनझनाना शुरु किया ! रात्रि का काला-स्याह कन-टोप पहने हुए आसमान-बाबा ने हनुमान-चालीसा डूबी हुई बानी में गाना शुरु किया। मसान के उजाड़ पेड़ों की अँधियाली शाख पर लाल-लाल लटके हुए प्रकाश के चीथड़े - हिलते हुए, डुलते हुए, लपट के पल्लू। सचाई के अध-जले मुर्दों की चिताओं की फटी हुई, फूटी हुई दहक में कवियों ने बहकती कविताएँ गाना शुरु किया। संस्कृति के कुहरीले धुएँ से भूतों के गोल-गोल मटकों से चेहरों ने नम्रता के घिघियाते स्वाँग में दुनिया को हाथ जोड़ कहना शुरु किया - बुद्ध के स्तूप में मानव के सपने गड़ गये, गाड़े गये !! ईसा के पंख सब झड़ गये, झाड़े गये !! सत्य की देवदासी-चोलियाँ उतारी गयीं उघारी गयीं, सपनों की आँतें सब चीरी गयीं, फाड़ी गयीं !! बाकी सब खोल है, जिंदगी में झोल है !! गलियों का सिंदूरी विकराल खड़ा हुआ भैरों, किंतु, हँस पड़ा खतरनाक चाँदनी के चेहरे पर गलियों की भूरी खाक उड़ने लगी धूल और सँवलायी नंगी हुई चाँदनी ! और, उस अँधियाले ताल के उस पार नगर निहारता-सा खड़ा है पहाड़ एक लोहे की नभ-चुंबी शिला का चबूतरा लोहांगी कहाता है कि जिसके भव्य शीर्ष पर बड़ा भारी खंडहर खंडहर के ध्वंसों में बुजुर्ग दरख्त एक जिसके घने तने पर लिक्खी है प्रेमियों ने अपनी याददाश्तें, लोहांगी में हवाएँ दरख्त में घुसकर पत्तों से फुसफुसाती कहती हैं नगर की व्यथाएँ सभाओं की कथाएँ मोर्चों की तड़प और मकानों के मोर्चे मीटिंगों के मर्म-राग अंगारों से भरी हुई प्राणों की गर्म राख गलियों में बसी हुई छायाओं के लोक में छायाएँ हिलीं कुछ छायाएँ चली दो मद्धिम चाँदनी में भैरों के सिंदूरी भयावने मुख पर छायीं दो छायाएँ छरहरी छाइयाँ !! रात्रि की थाहों में लिपटी हुई साँवली तहों में जिंदगी का प्रश्नमयी थरथर थरथराते बेकाबू चाँदनी के पल्ले-सी उड़ती है गगन-कंगूरों पर। पीपल के पत्तों के कंप में चाँदनी के चमकते कंप से जिंदगी की अकुलायी थाहों के अंचल उड़ते हैं हवा में !! गलियों के आगे बढ़ बगल में लिये कुछ मोटे-मोटे कागजों की घनी-घनी भोंगली लटकाये हाथ में डिब्बा एक टीन का डिब्बे में धरे हुए लंबी-सी कूँची एक जमाना नंगे-पैर कहता मैं पेंटर शहर है साथ-साथ कहता मैं कारीगर - बरगद की गोल-गोल हड्डियों की पत्तेदार उलझनों के ढाँचों में लटकाओ पोस्टर, गलियों के अलमस्त फकीरों के लहरदार गीतों से फहराओ चिपकाओ पोस्टर कहता है कारीगर। मजे में आते हुए पेंटर ने हँसकर कहा - पोस्टर लगे हैं, कि ठीक जगह तड़के ही मजदूर पढ़ेंगे घूर-घूर, रास्ते में खड़े-खड़े लोग-बाग पढ़ेंगे जिंदगी की झल्लायी हुई आग ! प्यारे भाई कारीगर, अगर खींच सकूँ मैं - हड़ताली पोस्टर पढ़ते हुए लोगों के रेखा-चित्र, बड़ा मजा आयेगा। कत्थई खपरैलों से उठते हुए धुएँ रंगों में आसमानी सियाही मिलायी जाय, सुबह की किरनों के रंगों में रात के गृह-दीप-प्रकाश को आशाएँ घोलकर हिम्मतें लायी जायँ, स्याहियों से आँखें बने आँखों की पुतली में धधक की लाल-लाल पाँख बने, एकाग्र ध्यान-भरी आँखों की किरनें पोस्टरों पर गिरें - तब कहो भाई कैसा हो ? कारीगर ने साथी के कंधे पर हाथ रख कहा तब - मेरे भी करतब सुनो तुम, धुएँ से कजलाये कोठे की भीत पर बाँस की तीली की लेखनी से लिखी थी राम-कथा व्यथा की कि आज भी जो सत्य है लेकिन, भाई, कहाँ अब वक्त है !! तसवीरें बनाने की इच्छा अभी बाकी है - जिंदगी भूरी ही नहीं, वह खाकी है। जमाने ने नगर के कंधे पर हाथ रख कह दिया साफ-साफ पैरों के नखों से या डंडे की नोक से धरती की धूल में भी रेखाएँ खींचकर तसवीरें बनाती हैं बशर्ते कि जिंदगी के चित्र-सी बनाने का चाव हो श्रद्धा हो, भाव हो। कारीगर ने हँसकर बगल में खींचकर पेंटर से कहा, भाई चित्र बनाते वक्त सब स्वार्थ त्यागे जायँ, अँधेरे से भरे हुए जीने की सीढ़ियाँ चढ़ती-उतरती जो अभिलाषा - अंध है ऊपर के कमरे सब अपने लिए बंद हैं अपने लिए नहीं वे !! जमाने ने नगर से यह कहा कि गलत है यह, भ्रम है हमारा अधिकार सम्मिलित श्रम और छीनने का दम है। फिलहाल तसवीरें इस समय हम नहीं बना पायेंगे अलबत्ता पोस्टर हम लगा जाएँगे। हम धधकायेंगे। मानो या मानो मत आज तो चंद्र है, सविता है, पोस्टर ही कविता है !! वेदना के रक्त से लिखे गये लाल-लाल घनघोर धधकते पोस्टर गलियों के कानों में बोलते हैं धड़कती छाती की प्यार-भरी गरमी में भाफ-बने आँसू के खूँखार अक्षर !! चटाख से लगी हुई रायफली गोली के धड़ाकों से टकरा प्रतिरोधी अक्षर जमाने के पैगंबर टूटता आसमान थामते हैं कंधों पर हड़ताली पोस्टर कहते हैं पोस्टर - आदमी की दर्द-भरी गहरी पुकार सुन पड़ता है दौड़ जो आदमी है वह खूब जैसे तुम भी आदमी वैसे मैं भी आदमी, बूढ़ी माँ के झुर्रीदार चेहरे पर छाये हुए आँखों में डूबे हुए जिंदगी के तजुर्बात बोलते हैं एक साथ जैसे तुम भी आदमी वैसे मैं भी आदमी, चिल्लाते हैं पोस्टर। धरती का नीला पल्ला काँपता है यानी आसमान काँपता है, आदमी के हृदय में करुणा कि रिमझिम, काली इस झड़ी में विचारों की विक्षोभी तडित् कराहती क्रोध की गुहाओं का मुँह खोले शक्ति के पहाड़ दहाड़ते काली इस झड़ी में वेदना की तडित् कराहती मदद के लिए अब, करुणा के रोंगटों में सन्नाटा दौड़ पड़ता आदमी, व आदमी के दौड़ने के साथ-साथ दौड़ता जहान और दौड़ पड़ता आसमान !!
मुहल्ले के मुहाने के उस पार बहस छिड़ी हुई है, पोस्टर पहने हुए बरगद की शाखें ढीठ पोस्टर धारण किये भैंरों की कड़ी पीठ भैंरों और बरगद में बहस खड़ी हुई है जोरदार जिरह कि कितना समय लगेगा सुबह होगी कब और मुश्किल होगी दूर कब समय का कण-कण गगन की कालिमा से बूँद-बूँद चू रहा तडित्-उजाला बन !!
जय प्रकाश पाण्डेय