जयंती विशेषः 'सबसे ऊंची प्रेम सगाई' सहित सूरदास के 5 पद
भक्ति धारा में ईश्वर के सगुण रूप के उपासक महाकवि सूरदास के आराध्य श्री कृष्ण थे. उनका मन ईश्वर में इस कदर रमा था कि वह अपने पद खुद लिखकर भक्ति भाव से गाते थे. वैशाख शुक्ल पंचमी को उनकी जयंती पर साहित्य आजतक पर पढ़ें उनके कुछ बेहद प्रभावी पद, अर्थ सहित
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महाकवि सूरदास की प्रतिमा [ सौजन्यः brajdiscovery.org ]
भक्ति धारा में ईश्वर के सगुण रूप के उपासक महाकवि सूरदास के आराध्य श्री कृष्ण थे. उनका मन ईश्वर में इस कदर रमा था कि वह अपने पद खुद लिखकर भक्ति भाव से गाते थे. वैशाख शुक्ल पंचमी को उनकी जयंती पर साहित्य आजतक पर पढ़ें उनके कुछ बेहद प्रभावी पद, अर्थ सहित
1. मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे
मेरो मन अनत कहां सुख पावै। जैसे उड़ि जहाज की पंछी, फिरि जहाज पै आवै॥ कमल-नैन को छांड़ि महातम, और देव को ध्यावै। परम गंग को छांड़ि पियासो, दुरमति कूप खनावै॥ जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो, क्यों करील-फल भावै। 'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै॥
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भावार्थ: यहां भक्त की भगवान् के प्रति अनन्यता की ऊंची अवस्था दिखाई गई है. जीवात्मा परमात्मा की अंश-स्वरूपा है. उसका विश्रान्ति-स्थल परमात्मा ही है, अन्यत्र उसे सच्ची सुख-शान्ति मिलने की नहीं. प्रभु को छोड़कर जो इधर-उधर सुख खोजता है, वह मूढ़ है. कमल-रसास्वादी भ्रमर भला करील का कड़वा फल चखेगा ? कामधेनु छोड़कर बकरी को कौन मूर्ख दुहेगा ?
2. अब हों नाच्यौ बहुत गोपाल
अब हों नाच्यौ बहुत गोपाल। काम क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ विषय की माल॥ महामोह के नूपुर बाजत, निन्दा सब्द रसाल। भरम भर्यौ मन भयौ पखावज, चलत कुसंगति चाल॥ तृसना नाद करति घट अन्तर, नानाविध दै ताल। माया कौ कटि फैंटा बांध्यो, लोभ तिलक दियो भाल॥ कोटिक कला काछि दिखराई, जल थल सुधि नहिं काल। सूरदास की सबै अविद्या, दूरि करौ नंदलाल॥
भावार्थ: संसार के प्रवृति मार्ग पर भटकते-भटकते जीव अन्त में प्रभु से कहता है, तुम्हारी आज्ञा से बहुत नाच मैंने नाच लिया. अब इस प्रवृति से मुझे छुटकारा दे दो, मेरा सारा अज्ञान दूर कर दो. वह नृत्य कैसा? काम-क्रोध के वस्त्र पहने. विषय की माला पहनी. अज्ञान के घुंघरू बजे. परनिन्दा का मधुर गान गाया. भ्रमभरे मन ने मृदंग का काम दिया. तृष्णा ने स्वर भरा और ताल तद्रुप दिये. माया का फेंटा कस लिया था. माथे पर लोभ का तिलक लगा लिया था. तुम्हें रिझाने के लिए न जाने कितने स्वांग रचे. कहां-कहां नाचना पड़ा, किस-किस योनि में चक्कर लगाना पड़ा. न तो स्थान का स्मरण है, न समय का. किसी तरह अब तो रीझ जाओ, नंदनंदन.
शब्दार्थ :- चोलना = नाचने के समय का घेरदार पहनावा। पखावज =मृदंग। विषय = कुवासना। फैंटा =कमरबंद। अविद्या =अज्ञान।
3. मो सम कौन कुटिल खल कामी
मो सम कौन कुटिल खल कामी। जेहिं तनु दियौ ताहिं बिसरायौ, ऐसौ नोनहरामी॥ भरि भरि उदर विषय कों धावौं, जैसे सूकर ग्रामी। हरिजन छांड़ि हरी-विमुखन की निसदिन करत गुलामी॥ पापी कौन बड़ो है मोतें, सब पतितन में नामी। सूर, पतित कों ठौर कहां है, सुनिए श्रीपति स्वामी॥
शब्दार्थ: कुटिल = कपटी। बिसरायौ = भूल जाना. विषय = सांसारिक वासनाएं। ग्रामी सूकर =गांव का सूअर। श्रीपति = श्रीकृष्ण से आशय है।
4.
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निरगुन कौन देश कौ बासी।
निरगुन कौन देश कौ बासी। मधुकर, कहि समुझाइ, सौंह दै बूझति सांच न हांसी॥ को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि को दासी। कैसो बरन, भेष है कैसो, केहि रस में अभिलाषी॥ पावैगो पुनि कियो आपुनो जो रे कहैगो गांसी। सुनत मौन ह्वै रह्यौ ठगो-सौ सूर सबै मति नासी॥
भावार्थः गोपियां ऐसे ब्रह्म की उपासिकाएं हैं, जो उनके लोक में उन्हीं के समान रहता हो, जिनके पिता भी हो, माता भी हो और स्त्री तथा दासी भी हो. उसका सुन्दर वर्ण भी हो, वेश भी मनमोहक हो और स्वभाव भी सरस हो. इसी लिए वे उद्धव से पूछती हैं, " अच्छी बात है, हम तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म से प्रीति जोड़ लेंगी, पर इससे पहले हम तुम्हारे उस निर्गुण का कुछ परिचय चाहती हैं. वह किस देश का रने वाला है, उसके पिता का क्या नाम है, उसकी माता कौन है, कोई उसकी स्त्री भी है, रंग गोरा है या सांवला, वह किस देश में रहता है, उसे क्या-क्या वस्तुएं पसंद हैं, यह सब बतला दो. फिर हम अपने श्यामसुन्दर से उस निर्गुण की तुलना करके बता सकेंगी कि वह प्रीति करने योग्य है या नहीं." 'पावैगो....गांसी,' जो हमारी बातों का सीधा-सच्चा उत्तर न देकर चुभने वाली व्यंग्य की बाते कहेगा, उसे अपने किए का फल मिल जायगा.
शब्दार्थ :- निरगुन = त्रिगुण से रहित ब्रह्म। सौंह =शपथ, कसम। बूझति =पूछती हैं। जनक =पिता। वरन =वर्ण, रंग। गांसी = व्यंग, चुभने वाली बात।
5. सबसे ऊंची प्रेम सगाई।
दुर्योधन की मेवा त्यागी, साग विदुर घर पाई॥ जूठे फल सबरी के खाये बहुबिधि प्रेम लगाई॥ प्रेम के बस नृप सेवा कीनी आप बने हरि नाई॥ राजसुयज्ञ युधिष्ठिर कीनो तामैं जूठ उठाई॥ प्रेम के बस अर्जुन-रथ हाँक्यो भूल गए ठकुराई॥ ऐसी प्रीत बढ़ी बृन्दाबन गोपिन नाच नचाई॥ सूर क्रूर इस लायक नाहीं कहँ लगि करौं बड़ाई॥
भावार्थ: सूरदास जी कहते हैं कि परस्पर प्रेम का रिश्ता ही भगवान की दृष्टि में बड़ा रिश्ता है. अभिमान के साथ आदर देने वाले दुर्योधन की परोसी हुई मेवा को त्यागकर भगवान कृष्ण ने विदुर द्वारा प्रेम और आदर के साथ हरी पत्तियों से बनाया साग ग्रहण किया. प्रेम के वशीभूत राम ने शबरी नाम की भील स्त्री के जूठे बेर खाए थे. प्रेम के वशीभूत ही भगवान कृष्ण अपने भक्त नरसिंह मेहता के नाई अर्थात् संदेशवाहक बनकर गए थे. प्रेम के वशीभूत ही उन्होंने युधिष्ठिर द्वारा किए गए राजसूय यज्ञ में जूठी पत्तलें स्वयं उठाई थीं. प्रेम के कारण ही महाभारत-युद्ध के दौरान उन्होंने अर्जुन के रथ का सारथि बनना स्वीकार किया था. गोपियों के निष्काम-प्रेम के तो भगवान इतने वशीभूत हो गये कि उनके कहे अनुसार ही नाचते थे अर्थात् जैसा वह कहती थीं वैसा ही वे करते थे. सूरदास कहते हैं कि मेरा मन तो कठोर है, उसमें प्रेम नहीं है इसलिए मैं भगवान की प्रशंसा भी बहुत अधिक नहीं कर पाता हूँ.
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