कविता संग्रहः स्त्री का सवाल पूछती कविताएं

इन पांचों कवयित्रियों के पास कविता के अलग-अलग रंग और भावबोध हैं. ये सभी पितृसत्ता को चुनौती देती हैं, स्त्री के अधिकारों की रक्षा का आह्वान करती हैं और स्त्री के जीवन में सच्चे प्रेम की तलाश भी करती हैं.

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अनुराधा सिंह अनुराधा सिंह

संध्या द्विवेदी

  • नई दिल्ली,
  • 19 सितंबर 2018,
  • अपडेटेड 4:28 PM IST

नब्बे के दशक में जब गगन गिल, अनामिका, सविता सिंह और कात्यायनी जैसी कवयित्रियां समकालीन हिंदी कविता के परिदृश्य पर आई थी, तब उन्होंने कविता में पुरुषों का वर्चस्व तोड़ दिया था. हिंदी कविता का पसमंजर बदलकर उन्होंने पुरुषों की कविताओं से अलग शिल्प, भाषा और विषय से हिंदी को समृद्ध किया था. उसके बाद 21वीं सदी में निर्मला पुतुल, देवयानी भारद्वाज, लीना मल्होत्रा राव, बाबुषा कोहली जैसी अनेक कवयित्रियों ने स्त्री विमर्श को नया आयाम दिया.

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इस तरह समकालीन हिंदी कविता में स्त्री स्वर की प्रधानता दिखाई पडऩे लगी. इस उभार के कारण आज करीब बीसेक कवयित्रियां इन दिनों सक्रिय हैं. एक दो वर्ष के भीतर भी कई और कवयित्रियों के संग्रह सामने आए हैं जिनमें अनुराधा सिंह, सुजाता, रश्मि भारद्वाज, स्वाति श्वेता और प्रकृति करगेती भी शामिल हैं.

इन सभी युवा कवयित्रियों के प्रथम संग्रह आस-पास ही प्रकाशित हुए हैं जिन्होंने समकालीन कविता प्रेमियों का ध्यान अपनी ओर खींचा है. ये कवयित्रियां सोशल मीडिया पर भी सक्रिय हैं और अपने विचार समय-समय पर प्रकट भी करतीं हैं तथा समाज में घट रही घटनाओं पर तत्काल हस्तक्षेप भी करतीं हैं.

इन पांचों कवयित्रियों के पास कविता के अलग-अलग रंग और भावबोध हैं पर एक चीज जो सामान्य है वह यह कि ये सभी पितृसत्ता को चुनौती देती हैं तथा स्त्री को हर तरह के शोषण से मुक्त कर उनके अधिकारों की रक्षा का आह्वान करती हैं तथा स्त्री के जीवन में सच्चे प्रेम की तलाश भी करतीं हैं. वे प्रेम विवाह के पारंपरिक अर्थों से अलग नई परिभाषाएं भी गढ़ती हैं.

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ईश्वर नहीं, नींद चाहिए अनुराधा सिंह का संग्रह स्त्री विमर्श को एक परिपक्व दृष्टि से प्रस्तुत करता है जिसमे गहरे मनोवेग के साथ विनम्र स्वर में स्त्री की अस्मिता को रेखांकित किया गया है. वे पुरुष समाज से यह प्रश्न भी करती हैं कि क्या चाहते हो स्त्री से.

यानी कवयित्री स्त्री से तमाम तरह की अपेक्षा करने वाले पुरुषों के सामने प्रश्न करते हुए कहती हैं—वह हर भूमिका में तुम्हारे भीतर छिपा/प्रेमी ढूंढ़ती हैं/तुम जाने क्या-क्या चाहते हो स्त्री से.

अनुराधा अपनी कविता में यह भी कहती हैं कि स्त्रियों का दुख इतना गहरा है जिसे वे अब किसी से कहना भी नहीं चाहती हैं, वे अपनी लड़ाई अकेले लडऩा चाहती हैं. वे बाजार और धर्म तथा राजनैतिक शक्तियों का भी तिरस्कार करती हैं.

ब्रह्मसत्य, मैं फिर बेहतर थी, खुर्दबीन, सृष्टि जो हमने रची जैसी अनेक कविताओं में अनुराधा की चिंताओं को देखा जा सकता है. महादेवी वर्मा की नीर भरी बदली का दुरूख आज भी जारी है. इस अर्थ में वे खुद को उस परंपरा से भी जोड़ती हैं लेकिन उनका यह दुख केवल करुणा पैदा नहीं करता बल्कि पाठक को विचलित भी करता है.

अनुराधा की कविता में पाठकों के साथ एक गहरी आत्मीयता के साथ-साथ एक स्नेहिल लगाव भी है. उनमें किसी तरह का कोई प्रदर्शन नहीं है. वे एकांत भाव से कविता रचती हैं जिनमे कोई शोर-शराबा या हड़बड़ी नहीं है. उनकी कविता के राजनैतिक अर्थ भी हैं जो उनके मुहावरे में नजर आते हैं पर वे उन राजनैतिक अर्थों को काव्यमय तरीके से कहती हैं.

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उनके संग्रह का शीर्षक ही समकालीन राजनीति का एक वक्तव्य है उन्हें ईश्वर नहीं, नींद चाहिए. वे धर्म और राज्य के गठजोड़ से पैदा होने वाली अशांति से परिचित हैं इसलिए उन्हें नींद चाहिए जो मनुष्य को गहरा सुकून देती है. अनुराधा की कविता भी पाठकों को एक सुकून देती है.

सुजाता भी अनुराधा की तरह महानगरीय संवेदना की कवयित्री हैं पर थोड़ी भिन्न. उनके लिए कविता अनंतिम मौन के बीच है. पर वहां प्रतिरोध भी है. उनकी कविता का शीर्षक ही प्रतिरोध है जिसमें वे एक नदी के भीतर चट्टान की तरह खुद को व्यक्त करती हैं. उनकी लड़ाई घर से ही शुरू होती है न्न्योंकि घर एक दुस्वप्न है. वे घर में फैले इस रेत को हटाकर प्रेम खोजती हैं. दुख उनके यहां भी है पर करुणा जगाना उनका उद्देश्य नहीं.

अनुराधा अपनी कविता में जो सवाल करती  हैं एक स्त्री से तुम क्या चाहते हो, सुजाता उसका जवाब अपनी कविता औसत औरत में देती हैं. वे कहती हैं—तुम्हें चाहिए एक औसत औरत/न कम न ज्यादा/बिल्कुल नमक की तरह/उसके जबान हों/उसके दिल भी हों/उसके सपने हों...सुजाता एक संपूर्ण स्त्री के पक्ष में हैं. वे कहती भी हैं—देह और मन के एकलय हो जाने का/दुर्लभ क्षण/जिसे लेना/हो जाना एक संपूर्ण स्त्री.

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इन सभी कवयित्रियों में देह से परे प्रेम की अविकल खोज दिखाई देती है. सुजाता में एक अदम्य आत्मविश्वास और संघर्ष की कामना नजर आती है. वे नहीं मरूंगी जैसी कविता से पितृसत्ता को चुनौती भी देती हैं. उनकी कविता कात्यायनी की तरह निडर स्त्री की कविता है.

वे यह भी कहती हैं—रोटी को गोल बना सकने के लिए/चाहिए होता है अनंत धैर्य/बनना पड़ता है एक स्त्री. सुजाता की यह कविता अनामिका की कविताओं की याद दिलाती है जिसमें स्त्री के अनंत धैर्य का बखान है.

रश्मि भारद्वाज अपने संग्रह एक अतिरिक्त अ में स्त्रियों को लेकर समाज में गढ़ी गई कहानियों को अनावृत करती हैं. उनकी एक चर्चित कविता है चरित्रहीन, जिसमें वे उस पुरुष समाज की मानसिकता को उजागर करती हैं जिसमें अपने हक के लिए लडऩे वाली स्त्रियों को चरित्रहीन बताया जाता है. रश्मि ने भी अनुराधा और सुजाता की तरह इस पितृसत्ता पर प्रश्न किए हैं. उनके संग्रह में भी प्रेम को लेकर अनेक कविताएं हैं.

स्त्रियों के प्रेम में पुरुष कवियों के प्रेम की देह लिप्सा या कोरी भावुकता नहीं है. रश्मि ने अपनी भूमिका में लिखा है, "मेरी लेखनी तभी सार्थक होगी अगर मेरी बेचैनी, मेरी तलाश बस मुझ तक नहीं सिमट जाए. उसका कुछ अंश आप तक पहुंचे.'' रश्मि के यहां ईश्वर अनुराधा के ईश्वर से अलग है. वह नकारात्मक नहीं बल्कि सकारात्मक अर्थों में है. वे कहती हैं—बचपन को रचते रहना जिद है ईश्वर की/...बचपन को रचना प्रतिरोध है ईश्वर का.

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स्वाति श्वेता अपने संग्रह ये दिन कर्फ्यू के हैं में मुल्क की व्यथा को आक्रोश और दुख के साथ लिखती हैं. उनकी कविता की भाषा और मुहावरे अनुराधा, रश्मि और सुजाता से अलग हैं. वे समकालीन कविता की मुख्यधारा के स्वीकृत शिल्प से अलग शिल्प रचती हैं इसलिए उनमें वह हुनर भले न दीखे पर वे अपने कथ्य को लेकर सजग और मुखर हैं और प्रतिबद्ध भी. युद्ध जारी रहेगा कविता में वे सुजाता की तरह दृढ़ स्वर में अपनी बात कहती हैं. स्वाति के यहां भाषा थोड़ी अनगढ़ है या यूं कहें कि वे कथ्य के दबाव में अपनी भाषा पर कम ध्यान देती हैं.

प्रकृति करगेती हिंदी की सबसे युवा कवयित्री हैं जिनका पहला संग्रह शहर और शिकायतें आया है. वे अपनी नई काव्य भाषा और शिल्प की तलाश में हैं. लेकिन वे भी अपनी कविताओं में स्त्री को शब्द रूप देने की बात कहती हैं क्योंकि शब्द में ही अभिव्यक्ति है.

उनके यहां तो खामोशियों के भी परदे हैं जिनमें वे अनकही बातों को भी खोजने का प्रयास करतीं हैं. नींद तैरती रही, अब हम बच्चे तो नहीं, तुम्हारी इज्जत नहीं मैं, बुत के अंदर और गालिब उठता है अपनी कब्र से जैसी कविताओं से एक संभावनाशील कवयित्री के संकेत मिलते हैं.

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ये पांचों कवयित्रियां जीवन को खुले ढंग से अभिव्यक्त करने की पैरवी करती हैं. यह नई स्त्री की अस्मिता और नया विमर्श है.

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