आज चर्चित कवि मंगलेश डबराल का जन्मदिन है. इस अवसर पर साहित्य आजतक उनकी कुछ चुनी हुई कविताएं उनके प्रशंसकों और अपने पाठकों के लिए उनके काव्य संकलन 'पहाड़ पर लालटेन' से प्रस्तुत कर रहा. उनके इस संकलन के पहले संस्करण में प्रख्यात कवि पंकज सिंह ने यह टिप्पणी लिखी थी, ‘‘मंगलेश की कविताएँ जहाँ एक ओर समकालीन जीवन के अँधेरों में घूमती हुई अपने सघन और तीव्र संवेदन से जीवित कर्मरत मनुष्यों तथा दृश्य और ध्वनि बिंबों की रचना करती हैं और हमारी सामूहिक स्मृति के दुखते हिस्सों को उजागर करती हैं, वहीं वे उस उजाले को भी आविष्कृत करती हैं जो अवसाद के समानांतर विकसित हो रही जिजीविषा और संघर्षों से फूटता उजाला है."
अपने अनेक समकालीन जनवादी कवियों से मंगलेश कई अर्थों में भिन्न और विशिष्ट है. उसकी कविताओं में ऐतिहासिक समय में सुरक्षित गति और लय का एक निजी समय है, जिसमें एक खास किस्म के शांत अंतराल हैं, पर ये शांत कविताएँ नहीं हैं, इन कविताओं की आत्मा में पहाड़ों से आए एक आदमी के सीने में जलती-धुकधुकाती लालटेन है जो मौजूदा अंधड़ भरे सामाजिक स्वभाव के बीच अपने उजाले के संसार में चीजों को बटोरना-बचाना चाह रही है और चीजों तथा स्थितियों को नये संयोजन में नयी पहचान दे रही है.
‘‘कविता के समकालीन परिदृश्य में पहाड़ पर लालटेन की कविताएँ हमें एक विरल और बहुत सच्चे अर्थों में मानवीय कवि-संसार में ले जाती हैं जिसमें बचपन है, छूटी जगहों की यादें हैं, अँधेरे-उजालों में खुलती खिड़कियाँ हैं, आसपास घिर आई रात है, नींद है, स्वप्न-दुस्वप्न हैं, ‘सम्राज्ञी’ का एक विरूप मायालोक है मगर यह सब ‘एक नए मनुष्य की गंध से’ भरा हुआ है और ‘सड़कें और टहनियाँ, पानी और फूल और रोशनी और संगीत तमाम चीज़ें हथियारों में बदल गई हैं.’
‘‘पहाड़ों के साफ पानी जैसी पारदर्शिता इन कविताओं का गुण है जिसके भीतर और आरपार हलचल करते हुए जीवन को हम साफ-साफ देख सकते हैं.’’
1.
पहाड़ पर लालटेन
जंगल में औरते हैं
लकड़ियों के गट्ठर के नीचे बेहोश
जंगल में बच्चे हैं
असमय दफ़नाये जाते हुए
जंगल में नंगे पैर चलते बूढ़े हैं
डरते-खांसते अंत में गायब हो जाते हुए
जंगल में लगातार कुल्हाड़ियां चल रही है।
जंगल में सोया है रक्त
धूप में तपती हुई चट्टानों के पीछे
वर्षों के आर्तनाद हैं
और थोड़ी-सी घास है बहुत प्राचीन
पानी में हिलती हुई
अगले मौसम के जबड़े तक पहुंचते पेड़
रातोंरात नंगे होते हैं
सुई की नोक जैसे सन्नाटे में
जली हुई धरती करवट लेती है
और एक विशाल चक्के की तरह घूमता है आसमान
जिसे तुम्हारे पूर्वज लाये थे यहां तक
वह पहाड़ दुख की तरह टूटता आता है हर साल
सारे वर्ष सारी सदियां
बर्फ़ की तरह जमती जाती हैं दुःस्वप्न आँखों में।
तुम्हारी आत्मा में
चूल्हों के पास पारिवारिक अंधकार में
बिखरे हैं तुम्हारे लाचार शब्द
अकाल में बटोरे गये दानों जैसे शब्द
दूर एक लालटेन जलती है पहाड़ पर
एक तेज़ आंख की तरह
टिमटिमाती धीरे-धीरे आग बनती हुई
देखो अपने गिरवी रखे हुए खेत
बिलखती स्त्रियों के उतारे गये गहने
देखो भूख से बाढ़ से महामारी से मरे हुए
सारे लोग उभर आये हैं चट्टानों से
दोनों हाथों से बेशुमार बर्फ़ झाड़कर
अपनी भूख को देखो
जो एक मुस्तैद पंजे में बदल रही है
जंगल से लगातार एक दहाड़ आ रही है
और इच्छाएं दांत पैने कर रही है
पत्थरों पर.
2.
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