प्रगतिशील काव्य-धारा के चिंतक कवि केदारनाथ अग्रवाल की आज जयंती है. राजकमल प्रकाशन ने उनकी चुनी हुई कविताओं का संकलन केदारनाथ अग्रवालः प्रतिनिधि कवितायें नाम से छापा है. मानव संवेदना व श्रम के इस चितेरे कवि की जयंती पर साहित्य आजतक पढ़िए उनकी चुनी हुई कविताएं.
कविता- 1
वे किशोर नयन
उसके वे नयन जो किशोर हैं,
रूप के विभोर जो चकोर हैं,
ऐसा कुछ
आज मुझे भा गए-
कि बावरा बना गए !
आह! मुझे
प्यार की पुकार से
निहार गए,
और मुझे
म्लान हुए हार-सा
उतार गए .
कविता-2
सब चलता है लोकतंत्र में
हे मेरी तुम!
सब चलता है.
लोकतंत्र में,
चाकू - जूता - मुक्का - मूसल
और बहाना.
हे मेरी तुम!
भूल-भटक कर भ्रम फैलाये,
गलत दिशा में
दौड़ रहा है बुरा जमाना.
हे मेरी तुम!
खेल-खेल में खेल न जीते,
जीवन के दिन रीते बीते,
हारे बाजी लगातार हम,
अपनी गोट नहीं पक पाई,
मात मुहब्बत ने भी खाई.
हे मेरी तुम!
आओ बैठो इसी रेत पर,
हमने-तुमने जिस पर चलकर
उमर गँवाई.
कविता- 3
धूप
धूप चमकती है चाँदी की साड़ी पहने
मैके में आयी बेटी की तरह मगन है
फूली सरसों की छाती से लिपट गयी है
जैसे दो हमजोली सखियाँ गले मिली हैं
भैया की बाहों से छूटी भौजाई-सी
लहंगे को लहराती लचती हवा चली है
सारंगी बजी है खेतों की गोदी में
दल के दल पक्षी उड़ते हैं मीठे स्वर के
अनावरण यह प्राकृत छवि की अमर भारती
रंग-बिरंगी पंखुरियों की खोल चेतना
सौरभ से महं-महं महकाती है दिगंत को
मानव मन को भर देती है दिव्य दीप्ति से
शिव के नंदी-सा नदियों में पानी पीता
निर्मल नभ अवनी के ऊपर बिसुध खड़ा है.
काल काग की तरह ठूंठ पर गुमसुम बैठा
खोयी आँखों देख रहा है दिवास्वप्न को.
कविता- 4
सच
सच
अब नहीं जाता
अदालत में,
खाल खिंचवाने
मूंड मुंडवाने
हाड़ तोड़वाने,
खून चुसवाने.
सच,
अब झाँक नहीं पाता
अदालत में
न्याय नहीं पाता
अदालत में!
कविता- 5
दिन, नदी और आदमी
दिन ने नदी को-
नदी ने दिन को-
प्यार किया.
दोनों ने
एक
दूसरे को जिया,
एक दूसरे को जी भर कर पिया.
आदमी ने
दिन को काटा
नदी के पानी को बाँटा.
***
पुस्तकः प्रतिनिधि कविताएं
लेखक: केदारनाथ अग्रवाल
विधाः कविता
भाषा: हिंदी
प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन
मूल्यः पेपरबैक 60/- रुपए
पृष्ठ संख्या: 150
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