जयंती विशेषः भवानी प्रसाद मिश्र की कविता; दरिंदा, जंगल के राजा, सतपुड़ा के घने जंगल

भवानी प्रसाद मिश्र के जन्मदिन पर हम आज उनकी तीन उम्दा कविताएं दरिंदा, जंगल के राजा, सतपुड़ा के घने जंगल 'साहित्य आजतक' के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे. 

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कवि भवानी प्रसाद मिश्र कवि भवानी प्रसाद मिश्र

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 29 मार्च 2019,
  • अपडेटेड 5:08 PM IST

आज कवि भवानी प्रसाद मिश्र का जन्मदिन है. प्रकृति, समाज उनके जीवन का हिस्सा था. वह गांधीवादी थे और उनका सीधा-सादा सरल व्यक्तित्व अपनी माटी की खूशबू लिए था. वह मध्यप्रदेश के होशंगाबाद में पैदा हुए थे. उन्होंने बुनी हुई रस्सी, दरिंदा, खुशबू के शिलालेख, जंगल के राजा जैसी बेहतरीन कविताएं लिखीं. बीसवीं सदी के तीसरे दशक से लेकर नौवें दशक की शुरुआत तक कवि भवानी प्रसाद मिश्र की अनथक संवेदनाएं लगातार कविता के रूप में हिंदी साहित्य को समृद्ध करती रहीं.

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भवानी प्रसाद मिश्र के जन्मदिन पर हम आज उनकी तीन उम्दा कविताएं दरिंदा, जंगल के राजा, सतपुड़ा के घने जंगल 'साहित्य आजतक' के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे. 

1.

दरिंदा

दरिंदा

आदमी की आवाज़ में

बोला

स्वागत में मैंने

अपना दरवाज़ा

खोला

और दरवाज़ा

खोलते ही समझा

कि देर हो गई

मानवता

थोड़ी बहुत जितनी भी थी

ढेर हो गई !

2.

जंगल के राजा

जंगल के राजा, सावधान

जंगल के राजा, सावधान !

ओ मेरे राजा, सावधान !

कुछ अशुभ शकुन हो रहे आज.

जो दूर शब्द सुन पड़ता है,

वह मेरे जी में गड़ता है,

रे इस हलचल पर पड़े गाज.

ये यात्री या कि किसान नहीं,

उनकी-सी इनकी बान नहीं,

चुपके चुपके यह बोल रहे.

यात्री होते तो गाते तो,

आगी थोड़ी सुलगाते तो,

ये तो कुछ विष-सा बोल रहे.

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वे एक एक कर बढ़ते हैं,

लो सब झाड़ों पर चढ़ते हैं,

राजा ! झाड़ों पर है मचान.

जंगल के राजा, सावधान !

ओ मेरे राजा, सावधान !

राजा गुस्से में मत आना,

तुम उन लोगों तक मत जाना ;

वे सब-के-सब हत्यारे हैं.

वे दूर बैठकर मारेंगे,

तुमसे कैसे वे हारेंगे,

माना, नख तेज़ तुम्हारे हैं.

"ये मुझको खाते नहीं कभी,

फिर क्यों मारेंगे मुझे अभी ?"

तुम सोच नहीं सकते राजा.

तुम बहुत वीर हो, भोले हो,

तुम इसीलिए यह बोले हो,

तुम कहीं सोच सकते राजा .

ये भूखे नहीं पियासे हैं,

वैसे ये अच्छे खासे हैं,

है 'वाह वाह' की प्यास इन्हें.

ये शूर कहे जायँगे तब,

और कुछ के मन भाएँगे तब,

है चमड़े की अभिलाष इन्हें,

ये जग के, सर्व-श्रेष्ठ प्राणी,

इनके दिमाग़, इनके वाणी,

फिर अनाचार यह मनमाना!

राजा, गुस्से में मत आना,

तुम उन लोगों तक मत जाना.

3.

सतपुड़ा के घने जंगल

सतपुड़ा के घने जंगल.

नींद मे डूबे हुए से

ऊँघते अनमने जंगल.

झाड ऊँचे और नीचे,

चुप खड़े हैं आँख मीचे,

घास चुप है, कास चुप है

मूक शाल, पलाश चुप है.

बन सके तो धँसो इनमें,

धँस न पाती हवा जिनमें,

सतपुड़ा के घने जंगल

ऊँघते अनमने जंगल.

सड़े पत्ते, गले पत्ते,

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हरे पत्ते, जले पत्ते,

वन्य पथ को ढँक रहे-से

पंक-दल मे पले पत्ते.

चलो इन पर चल सको तो,

दलो इनको दल सको तो,

ये घिनोने, घने जंगल

नींद मे डूबे हुए से

ऊँघते अनमने जंगल.

अटपटी-उलझी लताऐं,

डालियों को खींच खाऐं,

पैर को पकड़ें अचानक,

प्राण को कस लें कपाऐं.

सांप सी काली लताऐं

बला की पाली लताऐं

लताओं के बने जंगल

नींद मे डूबे हुए से

ऊँघते अनमने जंगल.

मकड़ियों के जाल मुँह पर,

और सर के बाल मुँह पर

मच्छरों के दंश वाले,

दाग काले-लाल मुँह पर,

वात- झन्झा वहन करते,

चलो इतना सहन करते,

कष्ट से ये सने जंगल,

नींद मे डूबे हुए से

ऊँघते अनमने जंगल.

अजगरों से भरे जंगल.

अगम, गति से परे जंगल

सात-सात पहाड़ वाले,

बड़े छोटे झाड़ वाले,

शेर वाले बाघ वाले,

गरज और दहाड़ वाले,

कम्प से कनकने जंगल,

नींद मे डूबे हुए से

ऊँघते अनमने जंगल.

इन वनों के खूब भीतर,

चार मुर्गे, चार तीतर

 पाल कर निश्चिन्त बैठे,

विजनवन के बीच बैठे,

झोंपडी पर फ़ूंस डाले

गोंड तगड़े और काले.

जब कि होली पास आती,

सरसराती घास गाती,

और महुए से लपकती,

मत्त करती बास आती,

गूंज उठते ढोल इनके,

गीत इनके, बोल इनके

सतपुड़ा के घने जंगल

नींद मे डूबे हुए से

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उँघते अनमने जंगल.

जागते अँगड़ाइयों में,

खोह-खड्डों खाइयों में,

घास पागल, कास पागल,

शाल और पलाश पागल,

लता पागल, वात पागल,

डाल पागल, पात पागल

मत्त मुर्गे और तीतर,

इन वनों के खूब भीतर.

क्षितिज तक फ़ैला हुआ सा,

मृत्यु तक मैला हुआ सा,

क्षुब्ध, काली लहर वाला

मथित, उत्थित जहर वाला,

मेरु वाला, शेष वाला

शम्भु और सुरेश वाला

एक सागर जानते हो,

उसे कैसा मानते हो?

ठीक वैसे घने जंगल,

नींद मे डूबे हुए से

ऊँघते अनमने जंगल.

धँसो इनमें डर नहीं है,

मौत का यह घर नहीं है,

उतर कर बहते अनेकों,

कल-कथा कहते अनेकों,

नदी, निर्झर और नाले,

इन वनों ने गोद पाले।

लाख पंछी सौ हिरन-दल,

चाँद के कितने किरन दल,

झूमते बन-फ़ूल, फ़लियाँ,

खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,

हरित दूर्वा, रक्त किसलय,

पूत, पावन, पूर्ण रसमय

सतपुड़ा के घने जंगल,

लताओं के बने जंगल.

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