क्या इन्हें मिली मुसलमान होने की सजा?

उत्तर प्रदेश में पिछले दिनों रिहा हुए लोगों की कहानी ने फिर उजागर किया कि पुलिस आतंकवाद के नाम पर बेगुनाह अल्पसंख्यकों को कैसे फंसाती है.

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जनवरी में रिहा हुए अजीजुर्रहमान, अली अकबर और शेख मुख्तार जनवरी में रिहा हुए अजीजुर्रहमान, अली अकबर और शेख मुख्तार

केशव कुमार / सरोज कुमार

  • नई दिल्ली,
  • 20 अप्रैल 2016,
  • अपडेटेड 9:36 PM IST

आगरा की जिला अदालत ने साल 2000 के आगरा धमाके के आरोपी गुलजार अहमद वानी को 16 साल बाद बीती 18 अप्रैल को बरी कर दिया. एडिशनल सेशंस जज (1) अजीत सिंह ने अपने फैसले में कहा कि आरोपी के खिलाफ अभियोजन पक्ष कोई सबूत नहीं पेश कर सकी. उस साल 14 अगस्त को आगरा, बाराबंकी, कानपुर और लखनऊ में धमाके हुए थे. पुलिस ने कश्मीर निवासी गुलजार को इसका मास्टरमाइंड बताया था.

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इस साल जनवरी और फरवरी में भी उत्तर प्रदेश में कुछ अन्य कथित आतंकी मामलों के आरोपी मुसलमान रिहा हो चुके हैं. उन्हें नाकरदा गुनाह (जो अपराध किया नहीं) की सजा मिली. जनवरी 2016 की 14 तारीख को 39 साल के शेख मुख्तार हुसैन देशविरोधी नारेबाजी से जुड़े केस में बरी होकर रिहा हुए. यूपी पुलिस ने उन पर पहले तो 23 जून, 2007 को लखनऊ में आतंकी साजिश का आरोप लगाया था और फिर 2008 में देशविरोधी नारा लगाने का आरोप लगा कर राजद्रोह का केस ठोक दिया था. करीब आठ साल पहले जब पूर्वी मेदिनापुर, पश्चिम बंगाल के मुख्तार को गिरफ्तार किया गया था तो उनकी बेटी माबिया महज नौ साल की थी. रिहाई के बाद वे घर पहुंचे तो माबिया बेहद खुश दिखी. उन्हें अब 17 साल की हो चुकी बिटिया की शादी की चिंता खाए जा रही है. उनका बेटा दर्जी का काम करता है और बीवी हबीबा दूसरों के घरों में काम करके परिवार चलाती हैं. जाहिर है, इतने अरसे तक जेल में बंद रहे मुख्तार को रिहाई के बाद भी भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा है.

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ऐसी ही दास्तान पश्चिम बंगाल के उत्तरी 24 परगना के बशीरहाट के 31 साल के अजीजुर्रहमान की है. वे पुलिसिया टॉर्चर को याद करते ही सिहर उठते हैं, उन्होंने कहा, 'पुलिस हमें बिजली के झटके देती, नाक से पानी पिलाती और नंगा करके गुप्तांग में पेट्रोल तक डालती थी.' अजीजुर्रहमान की बीवी ने इस दौरान मजदूरी करके अपने दो बेटों को पाला-पोसा है. पिछली 4 फरवरी को यूपी के शामली निवासी मोहम्मद इकबाल को भी अदालत ने आतंकी साजिश के आरोप से बरी कर रिहा कर दिया. इकबाल अपने सिर में कटे का निशान दिखाते हुए दावा करते हैं, 'मुझे महसूस होता है कि मेरे सिर में पुलिस ने माइक्रोचिप लगा दिया है, अब तो उसे निकलवाया जाए.' जाहिर है, आतंक के आरोप से तो ये बेदाग छूट गए हैं, पर दर्द के निशान उनके अंदर तक धंसे हुए हैं.

फर्जी मामलों का फसाना
यूपी एसटीएफ ने मुख्तार और अजीर्जुरहमान के अलावा प्रदेश के बिजनौर के नौशाद और पश्चिम बंगाल के जलालुद्दीन, मो. अली अकबर हुसैन और नूर इस्लाम को पाकिस्तान के आतंकी संगठन हरकत-उल-जेहाद अल इस्लामी का सदस्य बताते हुए 23 जून, 2007 को लखनऊ में विस्फोटक सामग्री के साथ आतंकी साजिश को अंजाम देने के आरोप में गिरफ्तार दिखाया था. वहीं पीड़ितों का कहना है कि उन्हें उनके घर से उठाया गया था. इस मामले में लखनऊ की एक अदालत ने पिछले साल 29 अक्तूबर को आरोपियों को दोषमुक्त करार दिया और कहा, 'पुलिस की पूरी कार्रवाई, मुठभेड़, हथियार और विस्फोटक की बरामदगी की कहानी फर्जी, बनावटी और प्लांट की गई है.'

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उसके बाद यूपी पुलिस ने अगस्त, 2008 में मुख्तार, अजीर्जुरहमान, नौशाद, अली अकबर और नूर इस्लाम पर लखनऊ में पेशी के दौरान 'देश विरोधी' और 'पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारे लगाने का आरोप लगाकर देशद्रोह का मुकदमा ठोक दिया था. आखिरकार इस मामले को भी पिछली 14 जनवरी को अदालत ने झूठा करार दिया और इन सभी को बरी कर दिया. हालांकि नूर इस्लाम इसी केस से जुड़े एक और मामले—2007 में ही उन्नाव में विस्फोटक रखने के आरोप में फिलहाल बंद है. जलालुद्दीन 2001 में खादिम कंपनी के मालिक पार्थ रॉय के चर्चित अपहरण केस में पश्चिम बंगाल में जेल में है. पूर्व आईजी एस. दारापुरी कहते हैं, 'अदालत के फैसले से साफ है कि विस्फोटकों-हथियारों को पुलिस ने ही इम्प्लांट किया था. पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों के साथ-साथ कहीं-कहीं सरकार में भी अल्पसंख्यकों के प्रति पूर्वाग्रह होता है, जिनकी वजह से उन्हें फंसाया जाता है. उनकी ब्रांडिंग ही ऐसी कर दी गई है कि वे आसान टारगेट होते हैं.'

वहीं यूपी के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह की दलील है, 'पुलिस पूर्वाग्रह के काम नहीं करती. आरोपियों के खिलाफ मजबूत सबूत रहे होंगे, तभी पुलिस ने उनके खिलाफ चार्जशीट दाखिल की. बाद में अदालत में सही से सबूत पेश नहीं किए गए होंगे, जिससे आरोपी छूट गए.' कथित मुठभेड़ वाले दिन यानी 23 जून, 2007 को ही वे प्रदेश के डीजीपी नियुक्त हुए थे. राज्य सरकार ने पिछले साल अक्तूबर और इस साल जनवरी में आए अदालती फैसले के खिलाफ अपील नहीं की है.

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इंसाफ की लड़ाई
इन रिहाइयों में वकील मोहम्मद शुएब की अहम भूमिका है. नवंबर, 2007 में लखनऊ, फैजाबाद और वाराणसी की कचहरी में बम विस्फोट के बाद बार एसोसिएशन ने आतंकी गतिविधियों के आरोप में गिरफ्तार लोगों के केस न लड़ने का फरमान जारी किया था, लेकिन 68 साल के मो. शुएब ने इसे न्याय के अधिकार के खिलाफ बताते हुए उनका केस लड़ने का फैसला किया था. उनके साथ सामाजिक कार्यकर्ता राजीव यादव, शाहनवाज आलम और उनके कुछ साथियों ने सांगठनिक तौर पर जेल में बंद बेगुनाहों की रिहाई की कोशिश शुरू की. इसी मकसद से उन्होंने 2012 में रिहाई मंच की स्थापना की. इस मंच के जरिए कई केसों में अब तक दर्जन भर से ज्यादा बेगुनाहों को रिहा करवाया जा चुका है. मंच के मुताबिक उसे समय-समय पर सरकार और अन्य हिंदुत्ववादी ताकतों के विरोध का सामना भी करना पड़ता है. मंच के प्रवक्ता राजीव यादव कहते हैं, 'हम इंसाफ की लड़ाई से पीछे हटने वाले नहीं.'

उदासीन सरकार
यूपी में साल 2012 में सत्तासीन होने से पहले सपा ने चुनावी वादा किया था कि वह जेल में बंद बेगुनाह मुसलमानों को रिहा कराएगी, लेकिन उसने अदालती अड़चनों का हवाला देकर कोई ठोस पहल नहीं की. उसने पीड़ितों के पुनर्वास की भी कोई व्यवस्था नहीं की, जबकि राज्य की ओर से गठित निमिष आयोग ने ऐसी सिफारिशें की थी. कचहरी बम धमाकों के आरोप में जौनपुर के खालिद मुजाहिद और आजमगढ़ के तारिक कासमी को दिसंबर, 2007 में कथित तौर पर बाराबंकी रेलवे स्टेशन से गिरफ्तार किया गया था. इसकी जांच के लिए गठित निमिष आयोग ने इसे सही नहीं पाया. मुजाहिद की 2013 में पुलिस हिरासत में ही मौत हो गई. उसके परिवारवालों का आरोप है कि इसके लिए पुलिस अधिकारी दोषी हैं. वहीं साल 2007 में आरडीएक्स बरामदगी के केस में करीब सात साल बंद रहने के बाद रिहा होने वाले बिजनौर के नासिर के बड़े भाई बताते हैं, 'मुख्यमंत्री अखिलेश यादव नासिर से मिले थे और मदद का वादा भी किया था पर सरकार ने कोई मदद नहीं की.' नासिर परचून की दुकान खोल आजीविका चला रहे हैं. लेकिन शेख मुख्तार अपनी हालत बताते हुए रुआंसे हो जाते हैं, 'जो सरकार बेगुनाहों को फंसाती है, उससे क्या उम्मीद की जाए.'

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कुछ महीने पहले ही गुजरात के भुज में डीजीपी स्तर की कॉन्फ्रेंस में तेलंगाना के डीजीपी अनुराग शर्मा ने अपने प्रेजेंटेशन में कहा था कि मुसलमानों का सामाजिक-आर्थिक हिस्सेदारी में पीछे छूटना और उनकी बेतरतीब गिरफ्तारी युवा मुसलमानों में अतिवाद को जन्म देती है. हाल ही में राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी ने देश के कई हिस्सों से अल्पसंख्यक समुदाय के दर्जनों लोगों को संदिग्ध आतंकी बताकर गिरफ्तार किया है. उत्तराखंड से गिरफ्तार एक मुसलमान युवक के भाई कहते हैं, 'अगर मेरा भाई दोषी है तो उसे सजा मिले. पर कहीं से भी उसके आतंकी होने की सूरत नजर नहीं आ रही.' दारापुरी कहते हैं, 'बेगुनाहों की गिरफ्तारी के खिलाफ मजबूत सार्वजनिक प्रतिरोध और दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होने से बेगुनाह अल्पसंख्यकों की गिरफ्तारी का सिलसिला जारी है.'

जाहिर है, आंतक के नाम पर मुसलमान हमेशा सुरक्षा एजेंसियों के निशाने पर रहे हैं. बेगुनाह साबित होने के बाद भी उन पर लगा आतंकी ठप्पा धुलता नहीं. अजीजुर्रहमान को इस ठप्पे का मलाल शायद सबसे अधिक है. वो कहते हैं, 'एक तो पुलिस ने हमारी जिंदगी बर्बाद कर दी, हमारे पास आजीविका का कोई काम नहीं और समाज, खासकर दूसरे मजहब वाले हमें संदेह की नजर से देखते हैं.' अजीजुर्रहमान का यह दर्द कई सवाल खड़े करता है और इसपर विराम लगता नहीं दिख रहा.

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