सुप्रीम कोर्ट ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) के अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा देने के मामले को मंगलवार को सात सदस्यीय संविधान पीठ के पास भेज दिया. इस मामले की सुनवाई देश के मुख्य न्यायाधीश रंजन गेागोई, न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की पीठ कर रही थी. यह पीठ अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के इस सुझाव पर सहमत हो गई कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर विस्तार से विचार की जरूरत है.
हाई कोर्ट के इसी फैसले के तहत इस यूनिवर्सिटी का अल्पसंख्यक दर्जा खत्म हो गया था. विश्वविद्यालय की ओर से मंगलवार को वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन पेश हुए. उन्होंने कहा कि इस मामले में उठा यह मुद्दा काफी अहम है क्योंकि 2002 में टीएमए पई प्रकरण में सात सदस्यीय संविधान पीठ ने इस पहलू पर विचार नहीं किया था कि अल्पसंख्यक संस्थान स्थापित करने की क्या अनिवार्यताएं होंगी.
उन्होंने कहा कि चूंकि अल्पसंख्यक संस्थाओं से संबंधित अनेक विषयों पर विचार करने वाले टीएमए पई मामले में इस सवाल पर विचार नहीं हुआ है, इसलिए इस पर विचार करने की जरूरत है. राजीव धवन की इस दलील को नोट करते हुए पीठ ने कहा कि इस विषय पर सुविचारित निर्णय की जरूरत है. इसलिए यह मामला सात सदस्यीय पीठ को सौंपा जाता है.
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अलावा तत्कालीन यूपीए सरकार ने भी 2006 के हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी लेकिन 2016 में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने शीर्ष अदालत से कहा कि वह यह अपील वापस लेगी क्योंकि पूर्ववर्ती सरकार का दृष्टिकोण गलत था.
केन्द्र की भाजपा सरकार का कहना था कि 1968 में अजीज बाशा प्रकरण में पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा था कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अल्पसंख्यक संस्थान नहीं बल्कि केन्द्रीय विश्वविद्यालय है. संविधान पीठ के 1968 के फैसले के बाद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (संशोधन) कानून, 1981 लागू हुआ था. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने जनवरी, 2006 में उस कानून के रद्द कर दिया था जिसके तहत यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक दर्जा प्रदान किया गया था.
(PTI से इनपुट के साथ)
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