बढ़ रही हैं कॉन्ट्रैक्ट पर नौकरियां, कामगारों को कैसे मिलेगी सुरक्षा?

ASI की 2016-17 की वार्षिक रिपोर्ट कहती है कि संगठित क्षेत्र की उत्पादन इकाइयों के साथ बीड़ी-सिगरेट आदि के उत्पादन में लगे कुल श्रमिकों में कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स की संख्या बढ़ रही है.

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प्रतीकात्म (फाइल फोटो) प्रतीकात्म (फाइल फोटो)

प्रसन्ना मोहंती

  • नई दिल्ली,
  • 19 जुलाई 2019,
  • अपडेटेड 7:08 PM IST

अब नौकरियों में कॉन्ट्रैक्ट का चलन बढ़ रहा है. अर्थशास्त्री और लेबर यूनियनों का मानना है कि इसका उल्टा असर होगा और उत्पादकता प्रभावित होगी, जबकि उद्योग जगत इसकी वकालत कर रहा है.

ऐसे समय में जब सरकार असंगठित क्षेत्र के कामगारों को सामाजिक और कानूनी सुरक्षा मुहैया कराकर उनके जीवन स्तर में सुधार करने जा रही है, उसी समय केंद्र और राज्य में संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है.

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बढ़ रहा है कॉन्ट्रैक्ट का चलन

इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशन (ICRIER) की प्रो. ऋचा कपूर कहती हैं कि संगठित क्षेत्र में अब ज्यादा से ज्यादा भर्तियां कॉन्ट्रैक्ट पर हो रही हैं. वे सीमित समय के लिए कॉन्ट्रैक्ट पर लोगों को रख रहे हैं. ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि इससे उसी नौकरी और उसी काम के लिए कम पैसे देने पड़ते हैं. ऐसा करने पर श्रमिक मोलभाव की स्थिति में नहीं होता.

अपने हालिया अध्ययन में उन्होंने भारत में कामगारों के कॉन्ट्रैक्ट के बारे दर्शाया है कि संगठित उत्पादन क्षेत्र में कामगारों की संख्या बढ़ रही है. ऐसे उपक्रम जो फैक्ट्रीज एक्ट 1948 के रजिस्टर हैं, उनमें 2000-01 में कामगारों की संख्या 77 लाख थी जो 2015-16 में 1.37 करोड़ हो गई. ऐसा इसलिए है कि क्योंकि इस क्षेत्र में कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले कामगारों की संख्या बढ़ी है.

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एनुअल सर्वे ऑफ इंडस्ट्रीज (ASI) के सर्वे के मुताबिक, 2000-01 में कॉन्ट्रैक्ट बर्कर्स की संख्या 15.5% थी जो कि 2015-16 में बढ़कर 27.9% हो गई.

ऋचा कपूर कहती हैं कि कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स को आराम से निकाला जा सकता है, कोई जॉब सिक्योरिटी नहीं होती, स्वास्थ्य से जुड़ी सुरक्षा न के बराबर होती है, स्थायी कामगारों से तुलना करें तो किसी तरह की सुरक्षा नहीं होती. (हालांकि, यह जरूरी नहीं है कि स्थायी कर्मचारियों को सुरक्षा मिली ही हो.)

ASI की 2016-17 की वार्षिक रिपोर्ट कहती है कि संगठित क्षेत्र की उत्पादन इकाइयों के साथ बीड़ी-सिगरेट आदि के उत्पादन में लगे कुल श्रमिकों में कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स की संख्या बढ़ रही है. इन क्षेत्रों में 2012-13 में कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स की संख्या 34% प्रतिशत थी, जो 2016-17 में बढ़कर 36% हो गई.

अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की 2019 की रिपोर्ट 'स्टेट ऑफ वर्किंग इन इंडिया' कहती है, 'अब हर तरह की उत्पादन इकाइयों में कॉन्ट्रैक्ट वर्करों की संख्या बढ़ रही है. मानेसर और गुड़गांव के मारुति सुजुकी प्लांट में ऐसे वर्करों की संख्या 70-80% है जो कॉन्ट्रैक्ट पर रखे गए हैं.'

कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (CII) के प्रवक्ता एमएस उन्नीकृष्णन इससे सहमति जताते हुए कहते हैं, 'यह सही है कि कॉन्ट्रैक्ट वर्कर की संख्या तेजी से बढ़ रही है. कुछ क्षेत्रों जैसे ऑटोमोबाइल में 70 से 80% कॉन्ट्रैक्ट वर्कर हैं, हालांकि लेकिन पूरे उद्योग में का औसत देखें तो ऐसे वर्करों की संख्या 10 से 30% तक है. इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं कि अस्थायी कर्मियों को अगर अस्थायी कर दिया जाता है तो उनकी उत्पादकता कम हो जाती है.'

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उन्होंने कहा, 'वे कई मामलों में सहयोगी रुख नहीं अपनाते. आधुनिकीकरण, नई तकनीकों के प्रयोग में सहयोग नहीं करते. उनके सगठनों के कारण उन्हें मैनेज कर पाना कठिन होता है. वे ऑटोमोबाइल सेक्टर का उदाहरण देते हुए कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम का बचाव करते हुए कहते हैं कि इस सेक्टर में सबसे ज्यादा कॉन्ट्रैक्ट वर्कर हैं और इसकी उत्पादकता भी सबसे ज्यादा है.'

आंकड़े मौजूद नहीं

सिर्फ संगठित क्षेत्र में ही कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम नहीं बढ़ रहा है, बल्कि सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में भी यह बढ़ रहा है. भारतीय मजदूर संघ (BMS) के पवन कुमार दिल्ली के बदरपुर में मौजूद एनटीपीसी की थर्मल पॉवर यूनिट का उदाहरण देते हैं जो पिछले अक्टूबर में बंद हो गई. वे कहते हैं कि BMS यह जानकर हैरान रह गया कि इस इकाई मात्र 148 कर्मचारी स्थायी थे, जबकि यहां पर 2500 से ज्यादा श्रमिक कॉन्ट्रैक्ट पर काम कर रहे थे.

ASI का आंकड़ा सिर्फ उन इकाइयों का है जो संगठित क्षेत्र में आती हैं. इस आंकड़े में वे कामगार शामिल नहीं हैं जो केंद्र, राज्य सरकार या सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में कॉन्ट्रैक्ट पर हैं. समग्र रूप में देखें तो यह पता नहीं है कि संगठित अर्थव्यवस्था में कितने कर्मी कॉन्ट्रैक्ट पर काम कर रहे हैं, जबकि सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम तेजी से बढ़ रहा है.

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जमशेदपुर स्थित XLRI के जेवियर स्कूल ऑफ मैनेजमेंट के प्रो. केआर श्याम सुंदर कहते हैं कि पूरी संगठित अर्थव्यवस्था में कॉन्ट्रैक्ट पर कितने कामगार काम करते हैं इसका कोई आंकड़ा मौजूद नहीं है. उस पर 2012 सरकार ने भी संगठित क्षेत्र में रोजगार का आंकड़ा प्रकाशित करना बंद कर दिया है. 2018-19 के आर्थिक सर्वे में भी यह देखा जा सकता है जो यह सिर्फ संगठित रोजगार की सूचना देता है, लेकिन कॉन्ट्रैक्ट रोजगार का जिक्र तक नहीं करता.

वे हैरानी जताते हैं कि संगठित रोजगार के आंकड़े जारी करना बंद कर दिया गया जबकि यह कानूनन अनिवार्य है. यहां त​क कि जब संगठित रोजगार कम हो रहा है, तब भी इसके आंकड़े न तो एकत्र किए जाते हैं, न ही जारी किए जाते हैं.

कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम का प्रभाव

कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम पर लेबर यूनियनों की राय निराशाजनक है. BMS के अध्यक्ष सीके साजीनारायण कहते हैं, 'यह न केवल श्रमिकों के जीवन स्तर को नष्ट कर देगा, बल्कि उत्पादकता और औद्योगिक विकास को भी प्रभावित करेगा.' उनके मुताबिक, ऐसा इसलिए क्योंकि कॉन्ट्रैक्ट वर्कर का मतलब है कि कम मेहनताना, कम कौशल, काम करने की खराब परिस्थितियां, नौकरी का स्थायित्व नहीं, इसका नतीजा यह होगा कि काम की गुणवत्ता कम होगी और उत्पादकता कम होगी.

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हालांकि, उद्योग जगत की राय लेबर यूनियनों से जुदा है, लेकिन अर्थशास्त्रियों की राय लेबर यूनियनों के साथ है. प्रो. सुंदर मई 2019 में जारी हुए 2017-18 के पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे (PLFS) का जिक्र करते हुए कहते हैं, 'गैर कृषि क्षेत्र में 2004-5 में 59% कामगार ऐसे थे जिनको रेग्युलर वेतन तो मिलता था, लेकिन कोई लिखित अनुबंध नहीं था, 2017-18 में यह संख्या 71.1% हो गई है.' इसका मतलब कामगारों में अस्थिरता बढ़ रही है. इसी दौरान पेड लीव नहीं पाने वालों की संख्या भी 46% से बढ़कर 54% हो गई है. 2017-18 में 49.6% कामगार ऐसे हैं जिन्हें कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती.

वे कहते हैं, 'सं​गठित क्षेत्र का हतोत्साहन, अस्थिरता और नौकरियां कम करके लोगों की उत्पादन क्षमता को कम किया जा रहा है. जब लोग अपने बच्चों के शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च नहीं कर सकते तो कार्यस्थल पर उनकी उत्पादन क्षमता और मानव पूंजी के रूप में उनकी गुणवत्ता में गिरावट आती है.'

प्रो. कपूर का कहना है कि उद्योग जगत कामगारों को कॉन्ट्रैक्ट पर रखने की रणनीति इसलिए अपनाता है, ​क्योंकि इससे वे मोलभाव करने की स्थिति में नहीं होते और उन्हें कम वेतन पर रखा जा सकता है. स्थायी कामगारों की अपेक्षा कॉन्ट्रैक्ट पर रखे गए कामगारों को कम पैसा देना पड़ता है.

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क्या यह अर्थव्यवस्था को बढ़ाने में मददगार होगा? प्रो. कपूर के मुताबिक, अगर कार्यकाल को लेकर स्थायित्व नहीं होगा और वेतन कम होगा तो वर्कर्स के साथ फर्मों की भी उत्पादन क्षमता प्रभावित होगी.

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