कुशोक बकुला रिनपोछे कौन थे, जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लद्दाख के लोगों में राष्ट्रवाद की भावना भरने और अलगावाद की सभी कोशिशों को नाकाम करने का श्रेय दिया. लद्दाख के बुजुर्गों के मुताबिक रिनपोछे जवाहरलाल नेहरू के करीबी सहयोगी थे. बौद्ध भिक्षु और धार्मिक नेता रिनपोछे को 1949 में नेहरू ने चुना था, जब वो लद्दाख के दौरे पर गए थे.
ये वो दौर था, जिससे कुछ समय पहले ही जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तानी कबीलाई हमलावरों ने हमला किया था. स्थानीय बुजुर्गों के मुताबिक उस वक्त रिनपोछे ने सुनिश्चित किया था कि लद्दाख धार्मिक आधार पर न बंटे.
रिनपोछे को जानने वाले कहते हैं कि उन्होंने हमेशा यह कोशिश की कि लद्दाखी पहचान धर्म से ऊपर उठकर बने. रिनपोछे को बकुला के 19वें अवतार के रूप में माना जाता है. बकुला भगवान बुद्ध के 16 शिष्यों में से एक थे.
रिनपोछे का जन्म लद्दाख के महतो गांव में राजसी परिवार में हुआ. 1949 तक रिनपोछे राजनीति के लिए अजनबी थे. तब नेहरू ने उन्हें सार्वजनिक जीवन का हिस्सा बनने और लद्दाख के लोगों की सेवा के लिए प्रेरित किया. बौद्ध भिक्षु थुस्पतान पालदान, पांच वर्ष की उम्र से रिनपोछे के छात्र रहे. उनका कहना है कि नेहरू ने उनकी पहचान नेता के तौर पर की थी.
पालदान ने कहा, “पंडित नेहरू ने उनसे राजनीति में शामिल होने का आग्रह किया. हालांकि वो पहले ऐसा करने के इच्छुक नहीं थे लेकिन फिर नेशनल कॉन्फ्रेंस में शामिल हो गए. बाद में उन्होंने कांग्रेस में जाने का फैसला किया.”
लेह में सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ बुद्धिस्ट स्टडीज के रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ जामयांग ग्यालत्सन उसी गांव के हैं, जहां के रिनपोछे थे. ग्यालत्सन कहते हैं, “शुरू में वो राजनीति में शामिल होने को लेकर हिचक रखते थे, लेकिन वह प्रधानमंत्री को नहीं कह सकते थे. बाद में वे नेहरू के परिवार के सदस्य की तरह हो गए."
लद्दाखी स्वायत्तता के चैंपियन थे रिनपोछे
पालदान और ग्यालत्सन दोनों कहते हैं कि रिनपोछे लद्दाखी स्वायत्तता के चैंपियन थे और हमेशा चाहते थे कि लद्दाख एक केंद्र शासित प्रदेश हो और उसकी अपनी पहचान हो. दोनों कहते हैं कि पहले लद्दाख स्वायत्त पर्वत विकास परिषद और फिर पिछले साल लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश के दर्जे से यह सामने आया.
प्रो ग्यालत्सन के मुताबिक 1956 में नेहरू ने रिनपोछे के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल तिब्बत भेजा था जिससे कि वहां चीनी रणनीति को समझा जा सके.
ग्यालत्सन ने कहा, “जब प्रतिनिधिमंडल वापस आया तो रिनपोछे ने नेहरू को बताया कि चीन न सिर्फ तिब्बत पर बल्कि भारतीय क्षेत्र पर भी कब्जा कर लेगा. नेहरू ने उस पर विश्वास नहीं किया. उन्होंने मेरे साथ बहुत बाद में यह बात साझा की और कहा कि अगर नेहरू ने माना होता तो चीजें अलग होतीं.”
रिनपोछे जम्मू-कश्मीर में 10 साल तक लद्दाख मामलों के मंत्री रहे और बाद में लद्दाख से पहले सांसद बने. ग्यालत्सन ने कहा, "उन्होंने शिक्षा की पहुंच छोटे बच्चों तक सुनिश्चित की और साथ ही यहां स्कूल खुलवाने के लिए काम किया."
शुक्रवार को लद्दाख में निमू में सैनिकों से अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि इस भूमि के लोगों ने सभी अलगाववादी कोशिशों को कुशोक बकुला रिनपोछे की वजह से मात दी. प्रधानमंत्री ने कहा कि युवकों को सेना के लद्दाख स्काउट्स में शामिल होने की प्रेरणा रिनपोछे से मिली.
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पालदान ने बताया कि 1961 में नेहरू ने दिल्ली लद्दाख इंस्टीट्यूट का उद्घाटन किया तो उन्हें कुछ छात्रों के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री की ओर से 75 रुपये की छात्रवृत्ति दी गई. पालदान ने कहा “जब नेहरू जी की मृत्यु हुई तो मैं दिल्ली लद्दाख इंस्टीट्यूट के छात्रों में से एक था, जिन्होंने प्रधान मंत्री के आधिकारिक निवास, तीन मूर्ति भवन में प्रार्थना की थी.”
रिनपोछे को भारतीय अल्पसंख्यक आयोग का सदस्य भी नियुक्त किया गया था. राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए उन्हें मंगोलिया में राजदूत नियुक्त किया गया. रिनपोछे वर्ष 2000 में वह सेवानिवृत्त जीवन जीने के लिए लद्दाख वापस आ गए. और 2003 में 86 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ. लेकिन उनकी विरासत पीढ़ियों तक जीवित रहेगी और उन्हें आधुनिक लद्दाख के निर्माता के तौर पर याद किया जाता रहेगा.
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अभिषेक भल्ला