ग्लव्ज पर बने पैरा-कमांडोज के 'बलिदान' के निशान को लेकर आईसीसी और महेंद्र सिंह धोनी में से कोई झुकने को तैयार नहीं है. बीसीसीआई प्रशासकों की समिति के चेयरमैन विनोद राय ने साफ कर दिया है कि इस निशान को हटाने की जरूरत नहीं है. लेकिन क्या है बलिदान बैज और क्यों इसे पाना हर सेना के हर सैनिक का एक ख्वाब होता है. मगर इसके लिए जिस शरीर तोड़ देने वाली ट्रेनिंग से गुजरना पड़ता है, उसे सोचकर ही कई लोगों के होश उड़ जाते हैं.
सीने पर मेडल्स, गुलाबी टोपी, उस पर पैराशूट रेजीमेंट का निशान और सीने पर बलिदान बैज. सिर्फ यही पैरा-कमांडो (स्पेशल फोर्सेज) की पहचान नहीं है. सेना के सबसे घातक, काबिल, अत्याधुनिक हथियारों के अलावा बिना हथियारों के भी दुश्मनों का खात्मा करने में सक्षम होते हैं पैरा कमांडो. पैरा कमांडो बनने के लिए सभी जवानों को बतौर पैराट्रूपर्स क्वॉलिफाई करना होता है. उसमें सिलेक्ट होने के बाद वह स्पेशल फोर्सेज को चुन सकते हैं.
कौन होते हैं शामिल
भारतीय सेना में शामिल जवान ही पैराट्रूपर्स के लिए अप्लाई कर सकते हैं. इसके लिए 3 महीने का प्रोबेशन पीरियड होता है, जिसमें उन्हें कई तरह के शारीरिक और मानसिक परीक्षण से गुजरना होता है. इसमें कई जवान रिजेक्ट भी हो जाते हैं.
टेस्ट में पास होने वालों को यूपी के आगरा स्थित पैराट्रूपर्स ट्रेनिंग स्कूल भेज दिया जाता है, जहां उन्हें आसमान से 5 जंप लगानी होती है, जिसमें से एक रात को घने अंधेरे में लगाई जाती है. इसके बाद जो जवान पैरा (स्पेशल फोर्सेज) में जाना चाहते हैं, उन्हें तीन महीने की एक्स्ट्रा ट्रेनिंग करनी होती है. इसका मतलब स्पेशल फोर्सेज के लिए ट्रेनिंग 6 महीने की होती है.
ऐसी होती है ट्रेनिंग
पैरा (स्पेशल फोर्सेज) की ट्रेनिंग दुनिया में सबसे मुश्किल होती है, जिसमें जवान को हर उस दर्दनाक चीज से गुजरना पड़ता है, जिसे सोचकर ही एक आम इंसान की चीख निकल जाए. जवानों को सोने नहीं दिया जाता, भूखा रखा जाता है. मानसिक और शारीरिक तौर पर टॉर्चर किया जाता है. बुरी तरह थके होने के बावजूद ट्रेनिंग चलती रहती है. खाने को न मिले तो आसपास जो उपलब्ध हो, उसी से गुजारा करना पड़ता है. इतनी मुश्किल ट्रेनिंग को कई जवान छोड़ चले भी जाते हैं.
इतनी दर्दनाक ट्रेनिंग पूरी करने के बाद जवानों को गुलाबी टोपी दी जाती है. लेकिन इसके बाद उन्हें बेहद खास चीज मिलती है. वो होता है बलिदान बैज. लेकिन इसे हासिल करने के लिए भी जवानों को खतरनाक परीक्षा देनी होती है. पैरा कमांडोज को 'ग्लास ईटर्स' भी कहा जाता है यानी उन्हें कांच भी खाना पड़ता है. यह एक परंपरा है. टोपी मिलने के बाद उन्हें रम से भरा ग्लास दिया जाता है. इसे पीने के बाद जवानों को दांतों से ग्लास का किनारा काटकर उसे चबाकर अंदर निगलना पड़ता है. इसके बाद जवानों के सीने पर बलिदान बैज लगाया जाता है.
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