आर्थिक मंदी: कामकाजी आबादी की आय का स्तर बढ़ाना जरूरी है

निजी उपभोग में गिरावट आर्थिक विकास को पीछे खींच रही है. आय में सुधार, मांग और बचत को बढ़ाने वाले उपायों पर ध्यान देने की जरूरत है, लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है.

Advertisement
प्रतीकात्मक तस्वीर प्रतीकात्मक तस्वीर

प्रसन्ना मोहंती

  • नई दिल्ली,
  • 20 अगस्त 2019,
  • अपडेटेड 5:41 PM IST

भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी की तरफ बढ़ रही है. 2016-17 में जीडीपी विकास दर 8.2% थी, 2018-19 में वो 5.8% पर पहुंच गई है. देश के सबसे बड़े बैंक एसबीआई की रिसर्च के मुताबिक 2019-20 की पहली तिमाही में यह और नीचे जाकर 5.6% पर पहुंचने की आशंका है.

निजी उपभोग भारत के विकास की रीढ़ है. जीडीपी में इसका योगदान 60% है. लेकिन इसमें गिरावट दर्ज की जा रही है. 2018-19 की दूसरी तिमाही से इसमें लगातार गिरावट दर्ज हुई है. यह गिरावट आगे चलकर अर्थव्यवस्था को और नीचे ले जाएगी.

Advertisement

चूंकि निम्न और मध्यम आय वाली कामकाजी आबादी के लिए उपभोग का खर्च सीधे आय से जुड़ा हुआ है. यह भारत की आबादी का बड़ा हिस्सा है. इसलिए यह जरूरी है कि उपभोग की मांग को बढ़ाने के लिए लोगों की आय में सुधार किया जाए.

आय में वृद्धि, बचत और निवेश से भी जुड़ी है. आर्थिक सर्वे 2018-19 में भारत में पर्याप्त नौकरियां मुहैया कराने और देश भर में लागू होने वाली न्यूनतम मजदूरी तय करने की बहस को आगे बढ़ाने के लिए चीन का उदाहरण दिया गया है जहां उच्च स्तर की आय ने बचत दर को बढ़ावा दिया. आर्थिक सर्वे कहता कि वर्ष 2015-16 में कुल बचत, जीडीपी का 31.1% थी जो कि 2017-18 में गिरकर 30.5% हो गई. इसमें पूरी तरह से घरेलू क्षेत्र की बचत का योगदान होता है जो 2011-12 में जीडीपी का 23.6% थी और 2017-18 में घटकर जीडीपी का 17.2% हो गई. बचत में इस गिरावट के चलते निवेश दर भी नीचे चली गई है.

Advertisement

वेतन वृद्धि में गिरावट: एक संरचनात्मक मुद्दा

एसबीआई ने ​हाल ही में 'मौजूदा मांग में कमी के मूल कारण' पर अध्ययन किया, जिसमें कहा गया है कि वैश्विक अनिश्चितता के अलावा, वर्तमान मंदी के कारण संरचनात्मक और चक्रीय दोनों हैं. संरचनात्मक कारकों में शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों की आय वृद्धि में पर्याप्त गिरावट "सबसे महत्वपूर्ण" है.

अध्ययन कहता है कि शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में कुछ साल पहले तक आय डबल डिजिट्स में बढ़ रही थी. 2010-11 में शहरी आय में वृद्धि 20.5% तक पहुंच गई थी, लेकिन यह 2018-19 में गिरकर सिंगल डिजिट पर आ गई है. इसी तरह ग्रामीण आय में वृद्धि 2013-14 में 27.7% थी, यह पिछले तीन वर्षों में गिरकर 5% से नीचे आ गई है. यह बताता है कि उच्च विकास का यह चरण अस्थिर था.  

इस अध्ययन में निष्कर्ष निकाला गया है कि आय में ​इस गिरावट के चलते निजी उपभोग और घरेलू बचत में भी गिरावट आई है.

2018 के आरबीआई के वर्किंग पेपर 'Rural Wage Dynamics in India: What Role does Inflation Play?' में भी कहा गया है कि उच्च स्तरीय विकास के एक चरण के बाद ग्रामीण क्षेत्रों की आय काफी कम हो गई है. यह गिरावट नवंबर 2014 के बाद शुरू हुई और "घटती मुद्रास्फीति कभी-कभार आय में मामूली वृद्धि के साथ वास्तविक वेतन वृद्धि को नकारात्मक क्षेत्र में धकेल देती है". इस चरण को "ग्रामीण संकट" की अवधि के रूप में चिन्हित किया गया है.

Advertisement

इस पेपर में 2007 से 2013 के बीच ग्रामीण आय में बढ़ोत्तरी के लिए मुख्यत: दो बातों को कारण के रूप में दिखाया गया है. एक मनरेगा का लागू होना और उसकी त्वरित प्र​गति और दूसरा निर्माण क्षेत्र का अच्छा विकास. बाद में इन दोनों में ही उल्लेखनीय गिरावट दर्ज की गई. नकारात्मक कृषि विकास दर ने ग्रामीण को आय को प्रभावित किया. इसमें यह भी कहा गया है कि 2014-15 और 2015-16 में सामान्य के कम मानसून ने कृषि क्षेत्र के विकास को कमजोर किया. हालांकि, 2016-17 में मानसून सामान्य होने के चलते ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार तो हुआ लेकिन इससे कृषि आय में कोई खास उछाल नहीं आया.

दो बेहतरीन वर्षों के बाद, 2018-19 में कृषि विकास फिर से नीचे चली गई और 2018-19 की अंतिम तिमाही में नकारात्मक हो गई.

एक अन्य कारक जिसने आय में वृद्धि को रोक दिया है वह है कामगारों को उचित मुआवजा न मिलना. इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन (ILO) की 2018 की इंडिया वेज रिपोर्ट कहती है कि मजदूरों की आय और श्रम उत्पादकता के बीच तालमेल नहीं रखा गया है. औसत श्रम उत्पादकता, वास्तविक औसत आय की तुलना में बहुत तेजी से बढ़ी है और लेबर क्लास का हिस्सा (राष्ट्रीय आय का अनुपात जो पूंजीपतियों या भूस्वामियों के मुकाबले श्रम क्षतिपूर्ति में जाता है) 1981 में जो 38.5% था, वह 2013 में 35.4% पर आ गया. इसमें यह भी कहा गया है ​कि हाल के वर्षों में श्रमिकों की हिस्सेदारी को मापने के लिए आंकड़ों में भी कमी आई है.

Advertisement

आय पर सरकार की प्रतिक्रिया

यह स्पष्ट है और एसबीआई के अध्ययन से भी पता चलता है कि सरकार के प्रमुख कार्यों में से एक होगा कि उपभोग को बढ़ावा देने के लिए कामकाजी आबादी की आय के स्तर में गिरावट की जांच के लिए उचित पर्याप्त मशीनरी बनाए, कामकाजी आबादी में उपभोग और बचत दोनों को प्रोत्साहित करे.

हाल के दिनों में एक नीतिगत प्रतिक्रिया देखने को मिली जब न्यूनतम मजदूरी के लिए वेज कोड 2019 को अधिनियमित किया ​गया. लेकिन इस कोड की संरचना में कुछ खामियां छोड़ दी गईं जिससे कि न्यूनतम आय को सुनिश्चित नहीं किया जा सका. न ही इसमें समान कार्य के लिए समान वेतन की समस्या पर ध्यान दिया गया, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने 2016 के आदेश में कहा था और इसे बाद में बढ़ाकर अस्थायी कर्मचारियों को भी इसके तहत लाया गया था.

समान कार्य के लिए समान वेतन का मसला इसलिए भी महत्वपूर्ण है ​क्योंकि कॉन्ट्रैक्ट पर नौकरियों में बढ़ोत्तरी हो रही है. यहां तक कि सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में भी कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम बढ़ रहा है जिससे संगठित और असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों की आय में उल्लेखनीय अंतर देखने को मिल रहा है.

2019 के अध्ययन (ICRIER study) में कहा गया है कि अस्थायी कर्मचारियों के मुकाबले स्थायी कर्मचारियों का वेतन औसतन डेढ़ गुना ज्यादा होती है. आर्थिक सर्वे 2015-16 में भी कहा गया है कि असंगठित क्षेत्र के मुकाबले संगठित क्षेत्र के लोगों का वेतन औसतन 20 गुना ज्यादा है.

Advertisement

2017 में सरकार ने न्यूनतम आय की राष्ट्रीय दर तय करने के लिए एक एक्सपर्ट कमेटी गठित की थी. इसने सेक्टर, कौशल, व्यवसाय, शहरी और ग्रामीण क्षेत्र आदि के अलावा शहरी क्षेत्रों के लिए न्यूनतम 375 रुपये प्रतिदिन (9,750 प्रति माह) और 55 रुपये घर किराया भत्ता देने की सिफारिश की थी.

लेकिन केंद्रीय कैबिनेट ने इस सिफारिश को किनारे कर दिया और मौजूदा 176 की न्यूनतम आय में 2 रुपये की बढ़ोत्तरी करते हुए इसे 178 कर दिया. कैबिनेट ने यूनिवर्सल मिनिमम वेज संबंधी आर्थिक सर्वे 2018-19 की उस सिफारिश को भी दरकिनार किया जिसमें कहा गया था कि न्यूनतम वेतन एक बेंचमार्क के रूप में कार्य करता है जो आर्थिक रूप से कमजोर श्रमिकों की खरीद शक्ति को बढ़ाता है.

इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन की 2018 की रिपोर्ट में भी आय और सामूहिक क्रय शक्ति  को बढ़ाने वाली नीतियों की सिफारिश की गई थी ​ताकि श्रम उत्पादकता के साथ आय में भी बढ़ोत्तरी हो. ऐसा इसलिए भी होना चाहिए क्योंकि भारत निम्न और मध्यम आय वाले वर्गों की घरेलू खपत की प्रगतिशील वृद्धि पर निर्भर है और यह मांग बढ़ाने में अहम भूमिका निभाता है.

वेज कोड 2019 अहम है

प्रधानमंत्री किसान योजना के तहत सभी किसानों को सीधे उनके खाते में 6,000 प्रति वर्ष दिए जाने का प्रावधान है. इसे एक महत्वपूर्ण मदद के रूप में देखा जा सकता है लेकिन इसमें सबसे ज्यादा कमजोर और संख्या में भी सबसे ज्यादा भूमिहीन लोगों को शामिल नहीं किया गया है. भारत में कृषि पर जितने लोगों की निर्भरता है, उनमें से 54.9% (14 करोड़ 43 लाख) संख्या भूमिहीन कृषि मजदूरों की है.

Advertisement

आर्थिक सर्वे 2018-19 में सुझाव दिया गया है कि मनरेगा को ऐसे इलाकों में ज्यादा प्रभावशाली बनाया जाय जहां पर सबसे निम्न क्रयशक्ति वाले लोग रहते हैं, वहां पर इसकी मांग सबसे ज्यादा है. हालांकि, अब तक मनरेगा पर बहुत कम ध्यान दिया गया है. सर्वविदित है कि मनरेगा लगातार फंड की कमी, देर से भुगतान, न्यूनतम आय से भी कम मेहनताना और हास्यास्पद वेतन बढ़ोत्तरी जैसी समस्याओं से जूझ रहा है. 2019 में छह राज्यों में मनरेगा में जीरो वेतन बढ़ोत्तरी हुई (यही हालत 2018 में भी थी), चार राज्यों में एक और दो रुपये की बढ़ोत्तरी की गई, छह अन्य राज्यों में 10 रुपये से ज्यादा की बढ़ोत्तरी की गई. सर्वाधिक बढ़ोत्तरी 17 रुपये की थी.

नौकरियां पैदा करना - संपत्ति का पुनर्वितरण तंत्र - बनाना एक और उपेक्षित इलाका है जिसपर ध्यान दिया जाना बाकी है. पीएलएफएस की 2017-18 की रिपोर्ट में में 2011-12 के बाद बेरोजगारी को मापा गया. पहले तो सरकार ने इसे सार्वजनिक करने में देर की और बाद में इसे नजरअंदाज कर दिया. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि बेराजगारी अपने 45 वर्षों के न्यूनतम स्तर पर है और कामगार कर सकने की उम्र वाली करीब आधी आबादी (49.5%) लेबर मार्केट से बाहर है क्योंकि नौकरियां नहीं हैं.

Advertisement

सरकार ने अब तक कोई कदम नहीं उठाया है और नौकरियों की समस्या बनी हुई है. यहां तक कि आटो सेक्टर में तेजी से नौ​करियां जा रही हैं. इन परिस्थितियों में सवाल उठता है कि कब कोई ऐसा आर्थिक दृष्टिकोण सामने आएगा जिससे कामगार जनसंख्या की आय का स्तर बढ़ेगा, उपभोग की मांग और बचत बढ़ेगी.

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement