सीबीआई में आंतरिक घमासान बुधवार को तब अपने चरम पर आ गया जब केंद्र सरकार ने देश की इस सर्वोच्च जांच एजेंसी के निदेशक आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेज दिया. एक दिन पहले मंगलवार को एजेंसी ने अपने नंबर-2 अधिकारी विशेष निदेशक राकेश अस्थाना को रिश्तखोरी के आरोप में हटा दिया था. अब जब दोनों शीर्ष अधिकारी दिल्ली स्थित सीबीआई मुख्यालय से बाहर हो चुके हैं, तो आशा जताई जा रही है कि उन विवादों पर हमेशा के लिए विराम लग जाएगा, जिसे वर्मा और अस्थाना रह-रह कर सुलगाते रहे हैं.
विवादों की ये है जड़
विवादों की जड़ में जाएं तो पता चलेगा कि राकेश अस्थाना ने जब से विशेष निदेशक का पद संभाला, तब से आलोक वर्मा के साथ उनका मतभेद रहा. बात यह भी सामने आती रही कि सीबीआई में विशेष निदेशक जैसे पद का क्या काम. मनमुटाव पिछले साल अक्टूबर में तब और सतह पर आ गया जब सीबीआई की एक सेलेक्शन कमेटी ने अस्थाना को नंबर दो का ओहदा प्रदान किया. आलोक वर्मा ने अस्थाना के प्रमोशन का यह कहते हुए घोर विरोध किया कि वे खुद गुजरात की कंपनी स्टर्लिंग बायोटेक से जुड़े भ्रष्टाचार में आरोपित हैं, इसलिए उन्हें इतना अहम पद नहीं दिया जाना चाहिए. सीबीआई में जारी यह खींचतान अंततः यहां तक पहुंची कि दोनों शीर्ष अधिकारियों को अपने पद से हाथ धोना पड़ा.
पुलिस आयुक्त से निदेशक तक का सफर
सीबीआई के पूर्व निदेशक आलोक वर्मा 1979 बैच के अधिकारी हैं. वर्मा दिल्ली पुलिस के आयुक्त रह चुके हैं और कहा जाता है कि प्रधानमंत्री से लेकर सरकार के बड़े ओहदेदारों तक इनके अच्छे संपर्क हैं. यह कारण है कि कई लोगों को किनारे रखते हुए इन्हें सीबीआई का निदेशक बनाया गया. अनिल सिन्हा के रिटायर होने के बाद वर्मा को निदेशक बनाया गया था.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली सेलेक्शन कमेटी ने वर्मा को निदेशक पद पर नियुक्त किया था. उस कमेटी में तीन सदस्य थे जिसमें एक कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे भी थे. इस पद के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय को 45 आईपीएस अधिकारियों की एक सूची भेजी गई थी जिनमें वरिष्ठ अधिकारी कृष्ण चौधरी और अरुणा बहुगुणा को संभावित निदेशक माना गया था लेकिन वर्मा के नाम पर मुहर लगी.
रविकांत सिंह