आपातकाल के बाद संविधान में हुए वो बदलाव, जो बन गए लोकतंत्र के लिए सबसे बड़े सेफ्टी वॉल

जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी को दो मामलों में दोषी ठहराया था. पहला, उन्हें चुनाव प्रचार के दौरान अपने निर्वाचन क्षेत्र रायबरेली में सरकारी अधिकारियों जैसे डीएम और इंजीनियरों की मदद ली. इसके अलावा इन अधिकारियों ने इंदिरा गांधी की रैलियों के लिए मंच का निर्माण किया था.

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aajtak.in

  • दिल्ली,
  • 25 जून 2024,
  • अपडेटेड 11:28 AM IST

26 जून 1975 की सुबह तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रेडियो से ऐलान किया  "भाइयो और बहनो, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है, इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है." इस वाक्य की तपिश ने लोकतंत्र की लहलहाती फसल को अपने आगोश में ले लिया और जनतंत्र की उर्वरक जमीन को बंजर बनाने के लिए रायसीना हिल्स आमादा हो गई.

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दरअसल, 25 जून की रात में ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अनुशंसा पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने संविधान के आर्टिकल 352 के तहत पूरे देश में आपातकाल लगा दिया था. 

आपातकाल यानी संविधान के अक्स तले ही उस रात संविधान की 'हत्या' कर दी गई. आम आदमी की आजादी से लेकर कानून की बागडोर तक को चंद लोगों ने अपने हाथ में ले ली. भारत की संसदीय प्रणाली अपनी 28 साल की यात्रा पर अभी इतरा ही रही थी कि दिल्ली के शाही तंत्र ने इसे अपना ग्रास बना लिया. आंतरिक सुरक्षा के नाम पर पूरे तंत्र को चंद हथेलियों में कैद कर दिया गया. जो दाग 49 वर्ष पहले देश के दामन पर लगे थे क्या उसे भविष्य में कोई सत्ता दोहरा सकती है. भय से भरा ये सवाल हर जहन में आज भी कौंध जाता है.

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12 जून एक दु:स्वपन की तरह

इंदिरा गांधी के लिए 12 जून 1975 की तारीख निराशा से भरी रही, उस दिन सुबह ही उनके बेहद करीबी दुर्गा प्रसाद धर का देहांत हो गया था. उन्हें दुनिया डीपी धर के नाम से जानती थी. अभी ये आंसू सूखे भी नहीं थे कि दोपहर होते होते गुजरात से एक और बुरी खबर आ गई, दरअसल, विधानसभा चुनाव के नतीजे के बाद कांग्रेस ने गुजरात में अपनी राजनीतिक जमीन गंवा दी थी. 182 सीटों वाली गुजरात विधानसभा में कांग्रेस को सिर्फ 74 सीटें मिलीं, लेकिन बात यहीं नहीं रुकी और दिन ढलते ही खबर उस शहर से आ गई जिस शहर में इंदिरा गांधी का बचपन बीता था.

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण के मामले में अपना फैसला सुनाते हुए साल 1971 के रायबरेली लोकसभा चुनाव को रद्द कर दिया था, जिसमें इंदिरा गांधी ने एक लाख से ज्यादा वोटों से राजनारयण को हराया था. इसके अलावा कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि निर्णय की तारीख से अगले 6 साल तक इंदिरा गांधी कोई चुनाव नहीं लड़ सकती हैं. इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस फैसले के बाद भारत की राजनीति में भूचाल आ गया. हालांकि कोर्ट ने उन्हें 20 दिन की मोहलत जरूर दी थी, जिसमें सुप्रीम कोर्ट में वे अपील कर सकती थीं.

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इस मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी को दो मामलों में दोषी ठहराया था. पहला, उन्हें चुनाव प्रचार के दौरान अपने निर्वाचन क्षेत्र रायबरेली में सरकारी अधिकारियों जैसे डीएम और इंजीनियरों की मदद ली. इसके अलावा इन अधिकारियों ने इंदिरा गांधी की रैलियों के लिए मंच का निर्माण किया था और लाउडस्पीकर के लिए बिजली आपूर्ति में भी सहायता की थी. दूसरा, उन्होंने अपने सचिव यशपाल कपूर की मदद चुनाव प्रचार के दौरान ली थी. यशपाल कपूर ने उनकी रैलियों के प्रबंधन का कार्यभार संभाला, जबकि वे प्रधानमंत्री सचिवालय में स्पेशल ड्यूटी पर नियुक्त थे. हालांकि इंदिरा गांधी ने इस पर सफाई देते हुए कहा कि यशपाल कपूर ने पहले ही पद से इस्तीफा (13 जून 1971) दे दिया था.

सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं

सर्वोच्च न्यायलय ने इस मामले की सुनवाई करते हुए 24 जून 1975 को हाई कोर्ट के आदेश को लगभग बरकरार रखा. हां, राहत बस इतनी दे दी कि इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बनी रह सकती हैं लेकिन लोकसभा की कार्यवाही में भाग नहीं ले सकतीं. उसके बाद जयप्रकाश नारायण ने पूरे देश में इंदिरा गांधी के इस्तीफा देने तक प्रदर्शन करने का एलान कर दिया.

सिद्धार्थ शंकर राय का सुझाव

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आंतरिक अशांति की स्थिति हो तो संविधान के आर्टिकल 352 के तहत सरकार आपातकाल की घोषणा कर सकती है. इसी आधार पर आपातकाल लगाने का निर्णय ले लिया गया. अशांति के लिए ग्राउंड जयप्रकाश नारायण का वो भाषण लिया गया, जिसमें उन्होंने आह्वान किया था कि सेना और जनता, सरकार की बात नहीं माने.

जिसके बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बिना मंत्रिमंडल से बात किए और बगैर किसी सहमति के ये बड़ा फैसला ले लिया. इसके साथ ही लोकतंत्र के उजाले पर ग्रहण लग गया और देश के मानचित्र पर स्याह रात का पहरा हो गया. समाचार पत्रों पर सेंसर लग गया, विपक्ष की आवाज को सत्ता की हनक ने खामोश कर दिया और इसी क्रम में कई नेताओं को जेलों में भर दिया गया. तमाम मशीनरी को सरकार ने अपनी कठपुतली बना लिया और संविधान का 42वां संशोधन कर लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा दी गईं.

अंधेरा छटा...

21 महीने के बाद 21 मार्च 1977 को आपातकाल को सरकार ने हटा लिया, जिसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने रामलीला मैदान में एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था, "बाद मुद्दत के मिले हैं दीवाने, कहने सुनने को बहुत हैं अफसाने, खुली हवा में जरा सांस तो ले लें, कब तक रहेगी आजादी कौन जाने."

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कुछ समय बाद देश में लोकसभा का चुनाव हुआ. कांग्रेस आजादी के बाद पहली बार केंद्र की सत्ता से बाहर हो गई. इतना ही नहीं, इंदिरा गांधी भी रायबरेली सीट से राजनारायण से चुनाव हार गईं. ये अभी तक के इतिहास का पहला मौका था, जब कोई मौजूदा प्रधानमंत्री अपनी सीट से चुनाव हार गया हो. इसके अलावा संजय गांधी को भी अमेठी की जनता ने नकार दिया था.

अब भी आपातकाल लगाया जा सकता है

देश में जब 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी तब संविधान में कई संशोधन किए गए. सबसे महत्वपूर्ण 44 वां संशोधन था, जिसके तहत कुछ ऐसे बदलाव किए गए जिससे भविष्य में कोई संविधान की शक्तियों का दुरुपयोग नहीं कर सके. इस संशोधन के बाद आर्टिकल 352 के तहत राष्ट्रपति तब तक राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा नहीं कर सकते, जब तक संघ का मंत्रिमंडल लिखित रूप में ऐसा प्रस्ताव उन्हें नहीं भेज दे और आर्टिकल 352 में 'आंतरिक अशांति' की जगह 'सशस्त्र विद्रोह' लिख दिया गया.

साथ ही राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा को संसद के दोनों सदनों से एक महीने के अंदर अनुमोदन मिलना अनिवार्य है और एक बार अनुमोदन मिलने पर आपातकाल सिर्फ छह महीने के लिए ही लागू रह सकता है. अगर छह महीने के बाद इसकी अवधि को बढ़ाना हो तो फिर दोनों सदनों के अनुमोदन की जरूरत पड़ेगी. एक बात और 44वें संविधान संशोधन के जरिए 'मंत्रिमंडल' शब्द को आर्टिकल 352 में जोड़ा गया. बाकी पूरे संविधान में 'मंत्रिपरिषद' ही है.

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(रिपोर्ट: व्यंकटेश पांडेय)

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