तारीख थी 23 जून 1980. प्रधानमंत्री आवास के लिए ये आम सुबह थी. लोग जुटने लगे थे, रोज की तरह. रोज की तरह प्रधानमंत्री के दफ्तर के लिए निकलने का इंतज़ार हो रहा था. रोज की ही तरह एक मेटाडोर आज भी निकली थी। ये सफ़दरगंज हवाई अड्डे को जा रही थी. यहाँ मेटाडोर में बैठे उस शख्स का इंतेजार कर रहे थे दिल्ली फ्लाइंग क्लब के चीफ इन्स्ट्रक्टर सुभाष सक्सेना. दिल्ली फ्लाइंग क्लब में एक नया जहाज आया था. पिट्स एस 2 ए. बहुत हल्का विमान, हवा में कलाबाजियों के लिए बना. वार्निंग थी कि अभी इसे प्रोफेशनल पायलटस के अलावा कोई न उड़ाए. लेकिन इस आदमी पर वार्निंग का फ़र्क पड़ता तो क्या ही बात थी. दोनों उस प्लेन में बैठे और विमान ने सवा 7 बजे उड़ान भर ली. जहाज कलाबाजियाँ खा रहा था, लेकिन अभी कुछ और होना था. दस मिनट बाद ही विमान उड़ाते शख्स ने उसे नीचे ला दिया. तय मानकों से नीचे ला कर अब गोते वहाँ लग रहे थे. और फिर कुछ ही देर में उनका कंट्रोल विमान पर खत्म हो गया. घर्र घर्र की आवाज आई और प्लेन तेजी से नीचे आने लगा. ये उस घर की छत से भी साफ देखा जा सकता था जहां से वो शख्स निकला था. वो प्लेन क्रैश हो चुका था.
15 मिनट में मौके पर एंबुलैंस और एयरक्राफ्ट पहुंचे. . प्लेन से दो शव निकाले गए. अब वहाँ गाड़ियों के सायरन की आवाज गूंजने लगी. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी आईं थीं. कार से उतरते ही इंदिरा दौड़ रही थीं. उन शवों को देखकर वो फुट फूट कर रोने लगी क्योंकि उनमें एक शव उनके अपने बेटे संजय का था.
इंदिरा गांधी के बेटे , राजीव गांधी के भाई और मेनका गांधी के पति संजय गांधी का .. जिसके इशारों से उस वक्त देश और कांग्रेस नाच रहे थे, एक प्लेन हादसे में जान गंवा बैठे.
इतिहास ने संजय गांधी को कई तरीके से याद रखा हुआ है. राजीव गांधी के बरअक्स संजय एक लापरवाह या गैरजिम्मेदार भाई बताए गए. कभी उनकी पहचान हुई एक ऐसे बेटे के तौर पर जिसने माँ की सत्ता का इस्तेमाल अपने लिए ज्यादा किया. अपने लिए भी नहीं बल्कि अपनी जिद के लिए. गांवों के बुजुर्ग आज भी अपनी स्मृति में संजय गांधी की जबरदस्ती नसबंदी योजना जिंदा रखे हुए हैं. आपातकाल के लिए जिम्मेदार इंदिरा थीं, लेकिन पीछे का दिमाग़ संजय थे, कौन नहीं कहता. रशीद किदवई पत्रकार हैं, अरसे तक कांग्रेस को करीब से देखा है, वो संजय के व्यक्तित्व का खाका कुछ यूं खींचते हैं-
संजय गांधी धुन के पक्के इंसान थे. जो ठान लिया वो करना ही होता था. उनका एक चर्चित कथन अक्सर हुआ करता था- Convince me or get convinced. यानी या तो मेरी बात मान लो या मुझे अपनी बात मानने के लिए मना लो.
विनोद मेहता की किताब संजय स्टोरी में संजय के बचपन का जिक्र मिलता है. जो नेहरू हाउस के रिसेप्शन ऑफिसर का बयान है- उसे मशीनों से बड़ा लगाव था. कमरे में एक छोटी सी वर्कशॉप चल रही होती थी, जिसमें हमेशा वो किसी चीज की मरम्मत कर रहा होता था. हम उसे अक्सर छोटी मोटी चीजें ठीक करने को दे देते थे. बारीकी से काम करना उसका सबसे बड़ा गुण था. एक टूटा हुआ सामान अगर वो चिपका दे तो वो नया लगने लगता था. लेकिन हर काम के बदले उसे कुछ चाहिए होता था। जैसे कोई कहानियों की किताब या फिल्म की कैसेट.
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इसके ठीक उलट पढ़ाई में संजय एवरेज थे और दोस्ती में नीरस. उनके साथी अक्सर कहा करते थे कि कौन उन्हें दोस्त बनाता. वो उबाऊ थे. दून स्कूल नेताओं के बच्चों का अड्डा रहा है. देश के पहले पंक्ति के परिवार अपने बच्चे यहीं भेजते हैं. संजय यहीं पढ़ते थे. लेकिन पढ़ कहाँ सके? पढ़ाई में फिसड्डी इस बच्चे को ड्रॉप कर दिया गया.इस वक्त तक नेहरू दुनिया से जा चुके थे ,भारत की कमान शास्त्री जी के हाथ में थी. इंदिरा एक बार कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद लाल बहादुर शास्त्री की सरकार में दूरसंचार मंत्रालय सम्हाल रही थीं. यूके के एक औटोमोबाइल कंपनी के साथ संजय इंटर्नशिप करने गए. तीन साल की इंटर्नशिप थी, लेकिन दूसरे ही साल संजय भारत में थे. शास्त्री जी की ताशकंद में मौत के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बन चुकीं थीं. और यहीं से शुरुआत होने जा रही थी एक ऐसे माँ बेटे के रिश्ते की जो आगे चल कर भारत में बड़ी मुश्किल लाने वाला था. हालांकि बकौल रशीद किदवई इंदिरा पर संजय का ये भरोसा स्वाभाविक था. भारत की स्वनिर्मित कार का सपना ले कर आए संजय ने काम शुरू कर दिया. प्रधानमंत्री माँ के कान संजय की बातों को ध्यान से सुनते थे तो बहुत दिक्कत भी नहीं हुई. लगातार फैल हो रही इन कोशिशों के बावजूद इंदिरा ने उनसे कभी कुछ नहीं कहा. बैंकों के खजाने खुले थे और संजय प्रयोगों पर प्रयोग कर रहे थे। जो भी संजय की इस मारुति के सपने का विरोध करता या तो वो धमकाया जाता या उसे पद मुक्त होना पड़ता. इंदिरा ने अपने मुख्य सचिव पीएन हक्सर तक को निकाल दिया, जब उन्होंने इस पर सवाल उठाए. इसी समय संजय की जिंदगी में आती हैं मेनका जो पेशे से एक मॉडल थीं. उस वक्त पीएम आवास के इर्दगिर्द रहने वालों ने लिखा है कि इंदिरा गांधी को मेनका कभी पसंद नहीं थीं. वह संजय से दस साल छोटी थीं. लेकिन संजय की जिद के आगे इंदिरा ने हार मान ली. 13 सितंबर 1974 को संजय और मेनका की शादी हो गई. मॉडल मेनका आनंद मेनका गांधी हो चुकी थीं.
अब 1975 संजय का इंतज़ार कर रहा था. शायद इतिहास उन्हें मारुति के अलावा भी बहुत वजहों से याद रखना चाहता था. इंदिरा गांधी पर एक खतरा आ रहा था, जिनसे बचने की कोशिश उनके पूरे कार्यकाल और भारत के लोकतंत्र पर दाग बनने जा रही थी.सीनियर जर्नलिस्ट राम बहादुर राय बताते हैं-
12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आया. उसका सीधा अर्थ था कि इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री नहीं रह सकतीं. इसके एक दिन बाद ही वो राष्ट्रपति से मिलने गई. उनके साथ सिद्धार्थ शंकर रे भी थे. सिद्धार्थ शंकर रे ने बाद में बताया था कि इंदिरा ऐसा तरीका चाहती थीं जिससे बिना कैबिनेट की बैठक के एमर्जेंसी लगाई जा सके. हालांकि संजय की इमरजेंसी के पीछे कोई डायरेक्ट भूमिका तो नहीं थी लेकिन इसका एक फैक्टर वो जरूर थे.
आजतक डॉट इन में एग्जीक्यूटिव एडिटर पाणिनी आनंद मारुति और एमर्जेंसी के दौरान बग़ावत से निपटने के दौरान एक कॉमन संजय पाते हैं, जो डोमिनेटिंग था और हर कीमत पर मन मुताबिक निर्णय चाहता था.
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इमरर्जेंसी का सबसे काला अध्याय लिखा सरकार के नसबंदी कार्यक्रम ने. संजय गांधी देश की समस्या की प्रमुख वजह बढ़ती जनसंख्या को मानते थे. उन्होंने सरकारी तरीके से मुख्यमंत्रियों को आदेश दिया कि वह सख्ती से नसबंदी अभियान चलाएं. नतीजा जबरदस्ती में बदल गया. पूरे देश में नसबंदी के लिए धरपकड़ अभियान चलने लगे. उस समय संजय गांधी ऐसी अथॉरिटी बन चुके थे कि सब कोई उन्हें खुश कर देना चाहता था. चापलूसी की होड़ ऐसी थी कि हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री बनारसी दास गुप्ता ने सिर्फ 3 हफ्ते में ही 60 हजार लोगों की नसबंदी के ऑपरेशन करवा दिए थे. संजय को लगता था कि ये सब आराम से हो रहा है. फिर तो अधिकारियों को टारगेट ही दे दिया गया. टारगेट पूरा करो या नौकरी छोड़ो. देश में मची इस अफरातफरी के बीच भी संजय गांधी की सभाएं जारी थीं. अजब ये था कि लोकतंत्र के पतन के लिए कुख्यात उस दौर को भी वो महात्मा गांधी के हवाले से जस्टीफ़ाई कर रहे थे. जबरदस्ती नसबंदी कार्यक्रम के बारे में राजीव गांधी से लेकर तमाम अन्य नेताओं ने इंदिरा गांधी को बताया लेकिन वह नहीं मानीं. आखिर एक व्यक्ति पांच दिन पैदल यात्रा करके उनके दिल्ली कार्यालय में पहुंचा. वो पेशे से टीचर था. उसने बताया कि पुलिस ने उनके मुंह पर मुक्के मारे, वह चिल्लाते रहे कि उनकी सिर्फ एक बेटी है, लेकिन इसके बावजूद उनकी जबरदस्ती नसबंदी कर दी गई. उस वक्त इंदिरा को पता चला कि देश के गांवों में क्या स्थिति है. इंदिरा ने तुरंत आदेश दिया कि कोई भी सरकारी कर्मचारी परिवार नियोजन के लिए लोगों से जबरदस्ती नहीं करेगा. इंदिरा गांधी ने बेशक संजय गांधी के नसबंदी कार्यकम के नाम पर चल रही जबरदस्ती रोक दी थी लेकिन संजय को अब रास्ता दिखाई दे चुका था। सत्ता उनके इशारे पर ही थी, और बचपन से ही जुनूनी संजय का जुनून पूरा देश भुगत रहा था.
इतिहास ने हर रात की सुबह दिखाई है. इमरजेंसी की सुबह 21 महीने बाद आई. संजय की मर्जी के खिलाफ इंदिरा ने एमर्जेंसी हटाने का फैसला किया. 1977 में आम चुनाव की घोषणा हो गई. जनता का ग़ुस्सा इतना कि कांग्रेस बुरी तरह हारी. जनता पार्टी जो कई दलों और नेताओं से मिल कर बनी थी, सत्ता में आई. प्रधानमंत्री बने मोरारजी देसाई. खुद पहली बार चुनाव लड़ रहे संजय भी ये चुनाव हारे थे. और इंदिरा खुद रायबरेली में हार चुकी थीं. इतना बुरा दौर कांग्रेस ने आजादी के बाद पहली बार देखा था. लेकिन अब संजय कांग्रेस में उस भूमिका को सम्हाल रहे थे जहां से उन्हें ही फिर से सब कुछ ठीक भी करना था.
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जनता पार्टी की सरकार ज्यादा दिन नहीं चली. पहले मोरारजी देसाई का इस्तीफा हुआ. फिर प्रधानमंत्री बने चौधरी चरण सिंह लेकिन वो भी इस गठबंधन की सरकार को चला नहीं सके. ये सब 1979 में हुआ यानी चुनाव हुए महज दो साल हुआ था. 1980 में फिर चुनावों की घोषणा हुई. चुनावों की कमान फिर से संजय के हाथ में थी. उन्होंने टिकट बांटे, टिकट काटे. प्रचार किया. प्रचार कराया. इस बार संजय का मैनेजमेंट इंदिरा के बहुत काम आया और सरकार बनी. इमरर्जेंसी के महज तीन साल बाद ही इंदिरा गांधी फिर से प्रधानमंत्री थीं. और संजय अब पहले से भी ज्यादा ताकतवर. इसी दौर के बारे में बात मशहूर है कि संजय जिस शहर में होते थे वहाँ कि दीवारें हल्के ग़ुलाबी रंग से रंगवा दी जाती क्योंकि ये रंग पर्यावरण के लिहाज से अच्छा होता है, ऐसा संजय मानते थे.
इन सब के अलावा संजय गांधी का एक और शगल था. जो कार और राजनीति से दूर हवा में था. प्लेन उड़ाने का शौक. कुर्ता पायजामा और एक शाल लिए मोटी कलमों वाला ये आदमी कोल्हापुरी चप्पलें पहन कर ही प्लेन उड़ाया करता था. राजीव समेत सबने उन्हें सावधानी से ये करने को कहा. लेकिन वो उन्होंने माना ही नहीं कभी. उस दिन भी उसी तरह उन्हें टोका गया था, जब वो अपनी आखिरी उड़ान को गए. पिट्स एस 2 ए, यही वो जहाज था. नया आया था, संजय रोमांचित भी थे. राजीव ने वार्न किया- अभी आपका अनुभव उस विमान के लिए नहीं है. लेकिन ये सब उनके लिए नॉर्मल था. उन्हें लगा कि मैं रोज की ही तरह तो उड़ान भरूँगा और रोज की ही तरह लौट आऊँगा.
लेकिन संजय की वो उड़ान आखिरी थी. पीएम आवास से महज 500 मीटर दूर उनका विमान कई टुकड़ों में मिला। 33 साल की उम्र में संजय गांधी नहीं रहे. इंदिरा जो कुछ ही दिन पहले संजय के ही कुशल मैनेजमेंट के दम पर सत्ता में आईं थीं, उनका शव देख रही थीं. वो अपना उत्तराधिकारी खो चुकी थीं.
एक बहुत बड़ी माँ के छवि तले बड़ा बना बेटा कितना बड़ा था, ये उनकी अंतिम यात्रा भी बता रही थी। देश के हर प्रांत के मुख्यमंत्री और सारे नेता वहाँ थे. विपक्ष जो कुछ दिन पहले इंदिरा पर हमले के लिए संजय का सहारा ले रहा था, आज वहाँ चुप चाप खड़ा था. किसने सोचा था कि एक इशारे पर लाखों की नसबंदी करा देने वाला एक शख्स इतनी आसानी से जान गंवा बैठेगा. संजय की मौत के बाद बहुतों ने प्रीडिक्ट किया कि इंदिरा टूट जाएंगी और शायद ऐसा हुआ भी लेकिन इंदिरा रुकी नहीं. संजय की मृत्यु का कांग्रेस पर जरूर असर पड़ा लेकिन बहुत कम समय में ही संजय कांग्रेस को अपने सिपाहसलारों की ऐसी फौज दे गए थे, जो ताजिंदगी कांग्रेस के साथ रहने वाली थी. देश ने फिर मारुति का लॉन्च भी देखा और उस कार ने सफलता के झंडे भी गाड़े पर संजय के जाने के बाद. जिस उम्र में लोग राजनीति में अर्जित करना सीख पाते हैं, संजय की वो अंतिम उम्र थी. विलेन या हीरो इसका आकलन तो इतिहास के हिस्से है लेकिन इंदिरा के लिए संजय, कांग्रेस के लिए संजय शायद जरूरी थे. हालांकि उनके जीवन में ऐसे भी किस्से रहे जब उन्होंने अधिकारियों को थप्पड़ मारे और गालियां बकी, लेकिन उसी संजय के बारे में ये भी मशहूर है कि गोरखपुर के वीर बहादुर को सड़क से उठा कर यूपी का मुख्यमंत्री भी बनाया. इतिहास जब भी री विजिट किया जाएगा तो पलटने पर नजर आएंगे नेहरू जो लोकतंत्र के मूल्य बचाते हुए दिखे और कभी आजादी की परिभाषा बताते हुए. लेकिन वहीं दिखेंगे संजय भी जिनकी तानाशाही और रौब ने पूरे देश को लट्टू बना कर नचाया.
संजय गांधी पर हमारा पूरा पॉडकास्ट यहाँ सुनें:
रोहित त्रिपाठी