देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस पिछले कुछ महीनों से शीर्ष नेतृत्व को लेकर अपनों के ही निशाने पर रही है. गाहे-बगाहे पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेता इसे लेकर सवाल उठाते हैं और सार्वजनिक से कांग्रेस के कमजोर होने की तस्दीक भी करते हैं. कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को लेकर सवाल उठाने का यह मामला पहली दफा नहीं है. पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के लेकर उठने वाले सवालों को देखने के मकसद के साथ अगर कांग्रेस के इतिहास के पन्ने पलटें तो यह ऐसी दूसरी घटना है.
इससे पहले साल 1999 में 12वीं लोकसभा के भंग हो जाने और 13वें लोकसभा चुनाव के दौरान बीजेपी ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल के होने का मुद्दा उठाया था. इस मसले को लेकर कांग्रेस की कार्यसमिति की बैठक भी बुलाई थी. मीटिंग के दौरान दिवंगत पूर्व लोकसभा स्पीकर पीए संगमा ने अपने बयान से पार्टी में खलबली मचा दी. उन्होंने कहा कि पार्टी को शीर्ष पद पर किसी विदेश मूल के शख्स के होने पर विचार करना चाहिए. संगमा का बयान का समर्थन सीताराम केसरी ने भी किया. सीताराम केसरी को कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटाए जाने के बाद सोनिया गांधी को यह पद दिया गया था.
इस दौरान कांग्रेस में रहे मौजूदा एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने भी संगमा के बयान का समर्थन किया था. शरद पवार के भी खुलकर सामने आने के बाद यह साफ हो गया था कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को अपनो की ही चुनौती मिलनी शुरू हो गई है. इन तीनों नेताओं को कांग्रेस से उसी दिन निकाल दिया गया और जिसके बाद नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी का जन्म हुआ.
G-3 की राह पर G-7 !
मौजूदा समय में G-23(जो अब G-7 हो गया है) भी कुछ ऐसा ही करने की कोशिश में है जो G-3 ने साल 1999 में किया था. हालांकि 1999 और 2021 की परिस्थितियों में अंतर है लेकिन कांग्रेस के सामने मुश्किल बड़ी है. तारिक अनवर कांग्रेस में वापस आ चुके हैं. वह G-7 के नेता गुलाम नबी आजाद और आनंद शर्मा से कांग्रेस के आंतरिक मसलों को सार्वजनिक मंच पर लाने की बजाए सही मंच पर लाने की बात कह रहे हैं. उनका कहना है कि पांच राज्यों में होने वाले चुनाव के दौरान पार्टी की छवि इन बयानों से धूमिल हो रही है.
शरद पवार अब भी एनसीपी में ही हैं लेकिन उनके पार्टी की पकड़ महाराष्ट्र तक ही सीमित है. एक तथ्य यह भी है कि साल 1999 में बीजेपी छोटे दलों के साथ गठबंधन कर तब के लोकसभा चुनावों पर नजर गड़ाए थी लेकिन मौजूद समय में बीजेपी इतनी बड़ी हो चुकी है कि उसे छोटे दलों के साथ की जरूरत नजर नहीं आती है.
इसके इतर पिछले 22 साल में कांग्रेस ने अपनी काफी जमीन खोई है. इस समय भी सोनिया गांधी ही पार्टी की अध्यक्ष हैं लेकिन मौजूद समय में उनके नेतृत्व को चुनौती नहीं दी गई है. साल 1999 में कांग्रेस की अंतर्कलह का कारण शरद पवार की प्रधानमंत्री बनने की महत्वकांक्षा थी. सोनिया उस समय राजनीति में इतनी परिपक्व नहीं थी. शरद पवार को पता था कि सोनिया उन्हें प्रधानमंत्री का पद नहीं देंगी. शरद पवार को लगा था कि वह क्षेत्रीय नेताओें जैसे जीके मूपनार और तरूण गोगोई के साथ मिलकर समर्थन हासिल कर लेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ. पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाए जाने के बाद शरद पवार अकेले पड़ गए. हालांकि उनके लिए राहत की बात यह रही कि उन्होंने महाराष्ट्र में अपनी पार्टी एनसीपी को स्थापित कर लिया.
पार्टी नेताओं को अपने अस्तिव की चिंता
कांग्रेस में जो मौजूदा हालात हैं वो सिर्फ वंशवाद के मुद्दे पर ही नहीं सवाल कर रहे हैं. बल्कि इन नेताओं को लगता है कि पार्टी के साथ गांधी का नाम जुड़े रहने भर से ही कांग्रेस को जीत नहीं मिल सकती है. विरोध के सुर अलाप रहे कांग्रेस नेताओं को लगता है कि पार्टी के भीतर उनके अस्तित्व को ही चुनौती दी जा रही है. गुलाम नबी आजाद को दोबारा राज्यसभा ना भेजना, आनंद शर्मा की जगह मल्लिकार्जुन खड़गे को राज्यसभा के लिए नामित करना विरोध की आग को और हवा देने का काम करता है. विरोध का सुर छेड़ रहे नेताओं को लगता है कि 2019 में मिली पार्टी को हार के बावजूद भी राहुल गांधी बिना किसी जिम्मेदारी के बाद भी पार्टी के फैसलों के केंद्र में हैं.
जी- 7 के नेताओें ने सोनिया गांधी को पत्र लिखकर पार्टी के लिए फुलटाइम अध्यक्ष की मांग, साल 2014 और साल 2019 के दौरान पार्टी की हार पर मंथन करने की मांग की थी.1999 में ऐसा नहीं था लेकिन फिलहाल कांग्रेस के बागी नेता पार्टी में अपने अस्तित्व को लेकर चिंतित हैं. राहुल गांधी के नेतृत्व में पार्टी को लोकसभा चुनाव में दो बार हार का सामना करना पड़ चुका है. हार के बाद पार्टी हर बार पार्टी के अध्यक्ष बदल देती थी. साल 1996 में नरसिम्हा राव को हटाकर सीताराम केसरी को अध्यक्ष बनाया जाना था. हालांकि बाद में केसरी की जगह सोनिया को यह पद दे दिया गया.
गांधी परिवार के खिलाफ बगावत बर्दाश्त नहीं
अतीत में कई ऐसे मौके आए हैं जब कांग्रेस ने गांधी परिवार के खिलाफ बगावत बर्दाश्त नहीं की है. राहुल गांधी के खिलाफ बगावत के इस दौर में भी पार्टी अपने विकल्प तलाश रही है. पार्टी नेतृत्व को इस बात का भी अंदाजा नहीं है कि G-7 नेताओं को आम चुनावों में कितना समर्थन मिलेगा. हालांकि G-7 के नेताओं के पास 1999 में पवार जैसा जनाधार नहीं है.
फिर भी मौजूदा स्थिति 1999 की स्थिति से ज्यादा मुश्किल है जिसकी बानगी 2019 में पार्टी की हार के बाद से लगातार देखी जा रही है. महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बनाने के पक्ष में राहुल गांधी नहीं थे लेकिन फिर भी यह फैसला लिया गया. महाराष्ट्र में कांग्रेस के विधायकों का शीर्ष नेतृत्व पर दबाव ऐसा था कि उन्हें यह फैसला मानना पड़ा. कांग्रेस के कुछ विधायकों का कहना था कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान पार्टी ने उन्हें अपने दम पर चुनाव लड़ने की बात कही थी तो फिर शिवसेना के साथ सरकार बनाने का फैसला भी उन्होंने अपने दम पर ही लिया.
बदल गई नेताओं की भूमिका
साल 1999 में शरद पवार भले ही महाराष्ट्र कांग्रेस में बड़ी सेंध मारी थी लेकिन कांग्रेस महाराष्ट्र में दोबारा उठ खड़ी हुई थी. महाराष्ट्र के कांग्रेस कार्यकर्ताओं को विश्वास था कि पार्टी से जुड़ा गांधी सरनेम उन्हें जीत दिलाएगा. 2019 के चुनाव के बाद अब यह विश्वास दिन ब दिन कमजोर होता जा रहा है यही वजह है कि पार्टी में नेताओं की भूमिका भी बदलती जा रही है. महाराष्ट्र से लोकसभा भेजे गए गुलाम नबी आजाद अब G-3 का नेतृत्व कर रहे हैं और पार्टी के पदों को लेकर बदलाव की मांग कर रहे हैं. वहीं 1999 में G-3 का हिस्सा रहे तारिक अनवर उन्हें सही समय का इंतजार करने को कह रहे हैं और पार्टी की छवि खराब करने से बचने की सलाह दे रहे हैं.
साहिल जोशी