लोकसभा चुनाव में दलितों ने भाजपा के खिलाफ क्यों वोट दिया?

यह बहुत संभव है कि भाजपा और उसके नेताओं ने अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने और अनिश्चित मतदाताओं को अपनी तरफ खींचने के लिए “400 पार” का मानदंड स्थापित किया हो.

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प्रतीकात्मक तस्वीर प्रतीकात्मक तस्वीर

आशीष रंजन

  • नई दिल्ली,
  • 09 जून 2024,
  • अपडेटेड 6:50 PM IST

भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने एक दशक के बाद लोकसभा में बहुमत खो दिया है. फिलहाल BJP 240 सीटों के साथ लोकसभा में अभी भी सबसे बड़ी पार्टी है. हालांकि, अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि भाजपा के लिए 370 सीटें और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के लिए 400 से अधिक सीटें जीतने का पार्टी का चुनावी मुद्दा बुरी तरह विफल हो गया.

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किसी भी अन्य कारण से अधिक यह “चार सौ पार” का नारा था जिसने भाजपा को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया. कुछ पार्टी नेताओं और उम्मीदवारों ने अपने अभियान के दौरान मतदाताओं को यह समझाने के लिए इस नारे का इस्तेमाल किया कि “हमें संविधान बदलने के लिए 400 सीटें चाहिए”. यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कुछ ऐसा ही कहा कि “हम अगली सरकार में कुछ बड़े फैसले लेना चाहते हैं और इसलिए हमें मजबूत बहुमत चाहिए”.

400 पार का नारा उल्टा पड़ा
यह बहुत संभव है कि भाजपा और उसके नेताओं ने अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने और अनिश्चित मतदाताओं को अपनी तरफ खींचने के लिए “400 पार” का मानदंड स्थापित किया हो. हालांकि, यह नारा उनके लिए उल्टा पड़ गया. विपक्ष ने इस नारे को लेकर खूब हंगामा किया और दावा किया कि यह संविधान पर हमला है और मतदाताओं को यह समझाने की कोशिश की कि अगर भाजपा भारी बहुमत के साथ सत्ता में आई तो वह संविधान को बदल देगी.

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यह याद रखना चाहिए कि संविधान आमतौर पर अभिजात वर्ग के बीच चर्चा का विषय होता है, लेकिन यह इस देश की बहुसंख्यक दलित-बहुजन आबादी के लिए सशक्तिकरण का प्रतीक भी है. इस आबादी ने हमेशा यह माना है कि यह संविधान ही है जिसने उन्हें समाज में सदियों से चले आ रहे जातिगत भेदभाव से मुक्ति दिलाई है. संविधान के माध्यम से छुआछूत को दूर करने में मदद मिलेगी.

ऐसे में यह आश्चर्य की बात नहीं है कि इस लोकसभा चुनाव में विपक्ष ने गैर-अभिजात्य वर्ग के बीच सबसे बड़ा मुद्दा "संविधान खतरे में" बनाने में कामयाबी हासिल की. आम मतदाता को लगा कि अगर संविधान बदला गया तो उसके अस्तित्व पर खतरा मंडराएगा. खास तौर पर दलितों को लगा कि वे अपने सशक्तिकरण के स्रोत को खो देंगे. 

मोहनलालगंज (उत्तर प्रदेश) संसदीय क्षेत्र में लेखक की मुलाकात पासी समुदाय के मतदाताओं के एक समूह से हुई, जिन्होंने कहा, 'पहले हमने समाजवादी पार्टी (सपा) को वोट नहीं दिया था, लेकिन इस बार हम उन्हें वोट देंगे, क्योंकि भाजपा संविधान बदलना चाहती है और विपक्ष इसके खिलाफ है.' मोहनलालगंज में भाजपा 10 साल बाद हारी. 
उत्तर प्रदेश वह राज्य है जहां भाजपा ने आधी सीटें खो दीं और सपा के बाद दूसरे स्थान पर रही. 2019 के लोकसभा चुनाव की तुलना में इस बार भाजपा को राज्य में 8 प्रतिशत वोटों का नुकसान हुआ. भाजपा को सबसे ज्यादा नुकसान पिछड़े समुदाय और दलितों के बीच हुआ.

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दलितों का समर्थन
इस चुनाव में किसी भी समुदाय से ज्यादा, अनुसूचित जाति (दलित) ने विपक्षी गठबंधन की ओर ज्यादा झुकाव दिखाया है. भारत में अनुसूचित जाति की आबादी 17 प्रतिशत है और इंडिया टुडे-एक्सिस माई इंडिया सर्वे के डेटा से पता चलता है कि एनडीए ने अनुसूचित जातियों के बीच समर्थन खो दिया है, जबकि विपक्ष ने इसे हासिल किया है. भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने अनुसूचित जातियों के बीच 6 प्रतिशत वोट खो दिए, जबकि कांग्रेस के नेतृत्व वाले INDIA ने अनुसूचित जातियों के बीच दोहरे अंकों का वोट शेयर हासिल किया. एनडीए का समर्थन आधार 2019 के लोकसभा चुनावों में 41 प्रतिशत से घटकर इस बार 35 प्रतिशत रह गया. 

दूसरी ओर 2024 में विपक्ष का समर्थन आधार 46 प्रतिशत हो गया है, जो 2019 के लोकसभा से 18 प्रतिशत ज्यादा है. एनडीए और भारत के बीच कुल अंतर 11 प्रतिशत है. 

एक्सिस माई इंडिया के अनुसार, दूसरी जो जरूरी बात है वह यह कि जो दल एनडीए या INDIA का हिस्सा नहीं थे, उन्होंने एससी मतदाताओं के बीच अधिक समर्थन खो दिया. गैर-एनडीए और गैर-INDIA दलों ने इस बार एससी मतदाताओं के बीच 12 प्रतिशत समर्थन खो दिया. 2019 के लोकसभा चुनाव में INDIA समूह को एनडीए और अन्य की तुलना में एससी के बीच कम समर्थन मिला था. हालांकि, 2024 के लोकसभा में INDIA को एससी वोटों का सबसे अधिक हिस्सा (लगभग आधा - 46 प्रतिशत) मिला.

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बीजेपी और कांग्रेस के प्रदर्शन के संदर्भ में देश के 84 एससी रिजर्व निर्वाचन क्षेत्रों में चुनावी नतीजे भी काफी बदल गए हैं. इन 84 संसदीय क्षेत्रों में 2019 में बीजेपी को 35 प्रतिशत वोट मिले थे और कांग्रेस को 17 प्रतिशत वोट मिले थे, जिसका मतलब है कि इन निर्वाचन क्षेत्रों में बीजेपी का वोट शेयर कांग्रेस के वोट शेयर से दोगुना था. 

कांग्रेस को वोट शेयर के मामले में लाभ
वोट शेयर के मामले में बीजेपी को इन निर्वाचन क्षेत्रों में बहुत अधिक नुकसान नहीं हुआ, लेकिन कांग्रेस को बड़ा लाभ हुआ. कांग्रेस का वोट शेयर 21 प्रतिशत हो गया, जो 2019 के मुकाबले सिर्फ़ 4 प्रतिशत ज्यादा है, लेकिन 2024 में उनकी सीट शेयर 2019 के मुक़ाबले तीन गुना से ज्यादा बढ़ गई. कांग्रेस ने 2019 में सिर्फ़ 6 सीटों के मुक़ाबले इस बार 20 सीटें जीतीं. 

2019 में 84 एससी आरक्षित सीटों में से 46 जीतने वाली भगवा पार्टी इस बार सिर्फ़ 30 सीटों पर सिमट गई. इसका मतलब है कि भाजपा ने 16 सीटें खो दीं, जो इस चुनाव में भाजपा की ओर से खोई गई कुल सीटों की संख्या का लगभग एक-चौथाई है.

कैसा रहा रुझान
डेटा से पता चलता है कि मौजूदा एनडीए ने एससी मतदाताओं के बीच एक महत्वपूर्ण हिस्सा खो दिया है, और यह समूह कुल मतदाताओं का 17 प्रतिशत है. इसलिए कोई भी पार्टी उन्हें खोने का जोखिम नहीं उठा सकती. कांग्रेस उनकी पारंपरिक पार्टी थी, लेकिन बीएसपी और अन्य क्षेत्रीय जाति-आधारित दलों के उभरने के साथ वे इस पुरानी पार्टी से दूर हो गए.

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पिछले 10 सालों में भाजपा एससी वोटर बेस का सबसे बड़ा लाभार्थी बन गई थी, लेकिन 2024 में कांग्रेस ने इस ट्रेंड को पलट दिया और उन्हें अपने पाले में लाने में कामयाब रही और इस समुदाय के बीच महत्वपूर्ण बढ़त हासिल की. ​​यह देखते हुए कि बीएसपी लगातार गिरावट पर है, कांग्रेस की ओर से अपने पारंपरिक एससी समर्थन आधार को फिर से हासिल करना भाजपा को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाएगा. 

इंडिया टुडे के इलेक्शन इंटेलिजेंस (ईआई) डैशबोर्ड के अनुसार, 156 संसदीय क्षेत्र हैं जहां एससी वोट काफी संख्या में हैं. इन 156 सीटों में से भारत ने 93 और एनडीए ने 57 सीटें जीतीं. एनडीए ने 34 सीटें खो दीं और INDIA गठबंधन ने 2019 के लोकसभा से इस बार 53 सीटें हासिल कीं. अगर भाजपा अपनी चुनावी गलतियों को नहीं सुधारती है, तो इससे उसकी चुनावी संभावनाओं पर नकारात्मक असर पड़ सकता है. 

पुनश्च: संविधान और दलित-बहुजन वोट बैंक के विषय पर संसद भवन में एनडीए की बैठक के दौरान एक मजबूत संदेश देखने को मिला, जहां प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने भारतीय संविधान की एक कॉपी के सामने हाथ जोड़कर प्रणाम किया, उसे दोनों हाथों से उठाया और श्रद्धापूर्वक अपने माथे से लगाया. 

(लेखक-आशीष रंजन एक राजनीतिक विश्लेषक और Datalok.in के सह-संस्थापक हैं)

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