मनमोहन सिंह... आर्थिक उदारीकरण के 'नायक' को इन बातों के लिए हमेशा याद रखेगा इतिहास

1991 में जब डॉ. मनमोहन सिंह भारत के वित्त मंत्री बने, तब देश एक बहुत बड़े आर्थिक संकट से घिरा हुआ था. इतिहास कहता है कि अगर मनमोहन सिंह न होते तो आप दूरदर्शन ही देख रहे होते, क्योंकि 1991 तक भारत में महज़ एक टीवी चैनल मौजूद था, वो भी सरकारी चैनल दूरदर्शन. अब अगर सारी दुनिया मोबाइल में सिमटी हुई दिख रही है.

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मनमोहन सिंह (फाइल फोटो) मनमोहन सिंह (फाइल फोटो)

आजतक ब्यूरो

  • नई दिल्ली,
  • 28 दिसंबर 2024,
  • अपडेटेड 2:35 PM IST

कहा जाता है कि भविष्य को समझना है तो इतिहास पढ़िए. कहा ये भी जाता है कि भविष्य का निर्धारण करने में इतिहास एक शिक्षक होता है. इतिहास से ही अपने मूल्यांकन की बात अर्थशास्त्र के शिक्षक से आरबीआई गवर्नर, फिर वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने पर 9 साल 359 दिन दिन पहले एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में मनमोहन सिंह ने की थी. जीवन को खुली किताब बताने वाले देश के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इतिहास कैसे याद करेगा? क्योंकि 92 वर्ष की आयु में अंतिम सांस लेने वाले मनमोहन सिंह ने भ्रष्टाचार के आरोप से लेकर मजबूत प्रधानमंत्री होने तक की शंकाओं को लेकर उठते सवालों पर सिर्फ एक जवाब दिया, फैसला इतिहास करेगा.

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इतिहास से खुद के प्रति उदार होने की ईमानदार उम्मीद लगाते पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इतिहास कैसे याद करेगा. ये इतिहास के पन्नों में ही दर्ज है. पीएम मोदी ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि, मनमोहन सिंह के निधन ने पीड़ा पहुंचाई है, उनका जाना हमारे लिए राष्ट्र के लिए बहुत बड़ी क्षति है. वहीं, 

क्या इतिहास पूर्व पीएम को केवल अर्थशास्त्र के उस मेहनती विद्यार्थी के तौर पर याद करेगा, जिन्होंने किताबें-डिग्रियां केवल पढाई या कमाई के लिए नहीं उठाई, बल्कि इतिहास को उदार होकर याद करना होगा योजना आयोग के उपाध्यक्ष से लेकर RBI के गवर्नर और फिर 1991 में वित्त मंत्री बनकर दुनिया के लिए भारत के दरवाजे उदारता से खोल देने का साहस दिखाने वाले मनमोहन सिंह को, जो कहते रहे कि वो वित्तमंत्री भी एक्सीडेंटल बन गए. खुद पर एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर होने का टैग लगने के बाद एक बार पूर्व पीएम ने कहा था कि, 'मैं एक्सीडेंटल प्राइममिनिस्टर ही नहीं बल्कि एक्सीडेंटल वित्त मंत्री भी हूं.'

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सवाल दस साल प्रधानमंत्री रहने के बावजूद सोनिया गांधी-राहुल गांधी के साए में सरकार चलाने को लेकर उठे हों. बात मौन रहने की कही गई हो या सवाल कमजोर प्रधानमंत्री होने का उठा हो. मनमोहन सिंह का जवाब हमेशा एक ही रहा, इतिहास बताएगा. वक्त बताएगा. इन बातों और सवालों पर भी उन्होंने एक दफा कहा था, 'मैं इस बात को नहीं मानता कि मैं कमजोर प्रधानमंत्री हूं. इतिहास ये तय करेगा कि मैं कमजोर प्रधानमंत्री था या नहीं.

विचारधाराओं के चश्मे से इतर मनमोहन सिंह का मूल्यांकन इतिहास जब भी करेगा तो ये जरूर पाएगा कि तीन दशक के सक्रिय सार्वजनिक जीवन में 32 दांतों के बीच जीभ जैसे मनमोहन सिंह शांत-सौम्य तरीके से बड़े फैसले लेते रहे. इतिहास हमेशा याद करेगा एक अर्थशास्त्री को जो कभी पद के पीछे नहीं भागे. उन्हें पद भले ही एक्सीडेंटल मिले हों, लेकिन उन्होंने इसकी जिम्मेदारी इसेंशियल बनकर उठाई. सत्ता में रहते हुए शालीनता का संगम बने.

सियासत की काजल वाली कोठरी में रहकर खुद को दाग से दूर रखा. भाषणों में जोश नहीं लेकिन फैसले जोशीले रहे. बोलने में गले की नसें नहीं तनीं लेकिन नीतियां तनकर बनाते रहे. इतिहास के पन्नों में ये दर्ज रहेगा कि कड़े फैसले केवल प्रचंड बहुमत होने पर ही नहीं सियासत में भी प्रचंड साहस से ले सकते हैं.

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इतिहास याद करेगा कि 1991 की अल्पमत वाली नरसिम्हा राव सरकार में भी आर्थिक सुधार का बोल्ड फैसला लिया. यूपीए की गठबंधन वाली बैसाखी सरकार में भी जनता को अधिकार दिलाने वाले कानून बने. लेफ्ट के समर्थन की चिंता किए बिना न्यूक्लियर डील पर अडिग रहे. सोनिया-राहुल के नीचे काम करने के उलाहनों के बीच न गरिमा कम होने दी, न समझौता जवाबदेही से किया. 

1991 में जब डॉ. मनमोहन सिंह भारत के वित्त मंत्री बने, तब देश एक बहुत बड़े आर्थिक संकट से घिरा हुआ था. इतिहास कहता है कि अगर मनमोहन सिंह न होते तो आप दूरदर्शन ही देख रहे होते, क्योंकि 1991 तक भारत में महज़ एक टीवी चैनल मौजूद था, वो भी सरकारी चैनल दूरदर्शन. अब अगर सारी दुनिया मोबाइल में सिमटी हुई दिख रही है.

आप टीवी चैनल भी मोबाइल पर ही देखने लगे हैं. इस समय भारत में करीब 800 से ज्यादा टीवी चैनल मौजूद हैं. जब हाथ में रिमोट लेकर टीवी के चैनल या मोबाइल लेकर ओटीटी प्लेटफॉर्म आप देख पा रहे हैं तो इसके लिए भी इतिहास मनमोहन सिंह के फैसलों को श्रेय देता है. 33 सालों में एक टीवी चैनल से सफर 800 चैनले के पार तक पहुंचा है तो सूचना और मनोरंजन की ये क्रांति 1991 के आर्थिक उदारवाद की ही देन है, क्योंकि लाइसेंस राज की कई तरह की लागू पाबंदियों से आजादी वित्त मंत्री रहते मनमोहन सिंह ने दिलाई. 

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आज आप अपना पैसा रखने के लिए अपनी सुविधा मुताबिक बैंक चुनते हैं. अपनी पसंद की कार चुनकर खरीद पाते हैं. अपनी पसंद का स्मार्ट टीवी, LED आप खरीदते हैं. तो इतिहास कहता है कि इसकी वजह पहली बार एक्सीडेंटल वित्त मंत्री बनाए गए मनमोहन सिंह ही हैं. जिन्होंने भारत के बंद दरवाजों को दुनिया के लिए खोलकर न सिर्फ आर्थिक संकट से देश को बचाया बल्कि विकास के उस रास्ते को खोला, जहां आज पांच ट्रिलियन इकॉनमी का सपना देखा जा रहा है.

मनमोहन सिंह के उदारीकरण की नीति लागू करने के बाद ही देश का बैंकिंग सेक्टर खुला, भारत में दूरसंचार की क्रांति 1991 में शुरू नहीं हुई थी, लेकिन सच ये है कि इसने 1991 के बाद अपनी रफ़्तार तेज़ की. नई आर्थिक नीतियों के साथ ही भारत में टेलीकॉम सेक्टर के उपकरणों के उत्पादन की शुरुआत हुई. 1991 की उदारवादी नीतियों के लागू होने से नागरिक उड्डयन का क्षेत्र काफ़ी प्रभावित हुआ. हवाई कंपनियों का विस्तार हुआ. विदेशी कम्पनियों के लिए भारत के बाज़ारों को खोल दिया. कंपनियों के लिए आयात और निर्यात से जुड़े प्रतिबंधों से मुक्त कर दिया. 

1991 में उदारीकरण से लेकर 2008 में न्यूक्लियर डील तक भारत के भविष्य की वो नींव अपने राज में मनमोहन सिंह रख गए. जिसके लिए इतिहास उन्हें भूल नहीं सकता. 

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26 सितंबर, 1932 को अविभाजित भारत में पश्चिमी पंजाब यानी आज के पाकिस्तान के गाह गांव में जन्मे मनमोहन सिंह ने कभी कोई काम वाहवाही के लिए नहीं किया. पंजाब यूनिवर्सिटी से इकोनॉमिक्स पढ़ी. 1962 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की. 1971 में भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार 1972 में वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार 1982 से 1985 रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे. 

1991 में नरसिम्हा राव सरकार में वित्त मंत्री बने. 22 मई 2004 को देश के पहले सिख प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली. 26 मई, 2014 तक लगातार प्रधानमंत्री पद पर दो कार्यकाल पूरे किए. UPA सरकार का कुल 3,656 दिनों तक नेतृत्व किया. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद भारत के इतिहास में लगातार दूसरी बार पीएम बनने वाले पहले नेता मनमोहन सिंह रहे. अपने कार्यकाल में आम आदमी के जीवन में बदलाव की बयार लाने वाले फैसले करने वाले मनमोहन सिंह पर जब सवाल उठा 10 जनपथ के साए में रहने का या फिर अहम मुद्दों पर मौन हो जाने का मनमोहन सिंह ने खामोशी से ही ये जवाब याद दिया.जहां तक जरूरत पड़ी है पार्टी फोरम में बोलता रहा हूं, आगे भी बोलता रहूंगा.

'जब भी इस समय का इतिहास लिखा जाएगा, हम बेदाग बाहर आएंगे. मैं मानता हूं कि इतिहास मेरे प्रति आज के मीडिया के मुक़ाबले ज़्यादा उदार होगा." इतिहास को करना फैसला करना है कि मैं कितना मजबूत प्रधानमंत्री था यह फ़ैसला इतिहासकारों को करना है कि मैंने क्या किया और क्या नहीं किया." 

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