हथियार बनाने में आत्मनिर्भर भारत की राह क्यों अब भी बहुत मुश्किल?

हथियारों की खरीद-बिक्री में कौन किसका दोस्त, पुरानी पेंशन व्यवस्था को लागू करने में मुश्किलें क्या हैं, तालिबान के लोगों को क्या पढ़ा रहा है भारत और गुजरात के गिर में दो बरस में क्यों 240 शेरों की मौत हो गई, 'दिन भर' में सुनिए.

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हथियार बनाने में आत्मनिर्भर भारत की राह क्यों अब भी बहुत मुश्किल? हथियार बनाने में आत्मनिर्भर भारत की राह क्यों अब भी बहुत मुश्किल?

शुभम तिवारी

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  • 14 मार्च 2023,
  • अपडेटेड 8:22 PM IST

नोबेल पुरस्कार वाले अल्फ्रेड नोबेल का ताल्लुक जिस स्वीडन से है, उसकी राजधानी स्टॉकहोम के एक प्रतिष्ठित थिंकटैंक की चर्चा कल से ही देश और दुनिया के अख़बारों में है. स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट जिसे सिपरी भी कहते हैं. उन्होंने दुनिया के हथियार बाज़ार पर कल एक रिपोर्ट जारी किया. रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2018 से 2022 के बीच जो दुनियाभर में हथियार खरीदे गए. उसमें एज अ इम्पोर्टर, यानी एक आयातक के तौर पर भारत की सबसे अधिक हिस्सेदारी रही. 

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बीते पांच बरस में जो दुनिया जहान में हथियारों की खरीद हुई, उनमें से 11 प्रतिशत हथियार भारत ने खरीदे. करीब 10 फीसदी हिस्सेदारी के साथ सऊदी अरब दूसरे नम्बर पर रहा. इसके बाद कतर और फिर ऑस्ट्रेलिया, चीन का नम्बर रहा. लेकिन ये पूरी तस्वीर नहीं है. कुछ पहलू और भी हैं, जैसे सबसे अधिक खरीदारी के बावज़ूद भी भारत ने अपनी विदेशी निर्भरता को कुछ कम भी किया है. कितनी कम हुई है हमारी निर्भरता, भारत को सबसे ज़्यादा हथियारों की सप्लाई अब भी कहाँ से हो रही है, रूस के अलावा और कौन से देश हैं दीपू जी, जिनसे हम हथियार खरीद रहे हैं और हमारे पड़ोसियों का ख़ासकर चीन, पाकिस्तान का क्या हाल है, क्या वे भी रूस से ही हथियार खरीद रहे हैं या यहां समीकरण कुछ और है? 

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रूस वो कॉमन कड़ी है, जिस पर भारत और चीन, हथियारों की खरीद के मामले में निर्भर हैं. वहीं, पाकिस्तान की जो चीन पर बहुत अधिक निर्भरता है, उसके नतीजे क्या होंगे, वक़्त बताएगा. लेकिन हम अपनी निर्भरता तमाम कोशिशों के बावज़ूद क्यों अब भी नहीं कर पा रहे हैं, किस तरह के और इनिशिएटिव की ज़रूरत है? 'दिन भर' में सुनने के लिए यहां क्लिक करें.

 

कभी कभी लगता है मांग असल में दो ही है. एक नौकरी की, दूसरी पेंशन की. पेंशन दो तरह की है. एक ओपीएस यानी पुरानी पेंशन व्यवस्था, ओल्ड पेंशन स्कीम. और दूसरी एनपीएस यानी न्यू पेंशन स्कीम. हिमाचल प्रदेश, छतीसगढ़ से लेकर राजस्थान और झारखंड, ज़्यादातर कांग्रेस सरकारों ने पुरानी पेंशन व्यवस्था को बहाल कर एक आग सी सुलगा दी है. उन राज्यों की राज्य सरकारों के लिए तो मुसीबत हो गई है जहां बीजेपी या तो सत्ता में है या सत्ता में आने के लिए जद्दोजहद कर रही है. 

जैसे महाराष्ट्र. यहां पुरानी पेंशन योजना की मांग को लेकर आज से राज्य के लगभग 17 लाख सरकारी कर्मचारी अनिश्चितकाल हड़ताल पर चले गए हैं. कल मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे, उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, विपक्ष के नेता अजित पवार ने यूनियन नेताओं के साथ एक बैठक भी की लेकिन बात नहीं बन सकी. बैठक में सरकार ने एक कमिटी बनाने पर ज़ोर दिया लेकिन यूनियन के नेता सहमत नहीं हुए. 

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ये तो मांग की बात हो गई. लेकिन ओपीएस की राह उतनी आसान नहीं. जिन्हें ये मिलेगा, वे भले वाहवाही कर रहे हों लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक अपने हालिया एक रिपोर्ट में पुरानी पेंशन स्कीम को राज्यों के भविष्य के लिए काफी नुकसानदेह बता चुका है. तर्क है कि राज्यों की माली हालत उतनी बेहतर नहीं, इस पैसे का इस्तेमाल दूसरे इंफ्रास्ट्रक्चर और शिक्षा, स्वास्थ्य पर खर्च होता तो बेहतर रहता. पुरानी पेंशन स्कीम की मांग कहाँ तक जायज़ है, नई पेंशन स्कीम को क्यों लाया गया था? यूनिवर्सल पेंशन स्कीम की भी एक मांग है, क्या बीच का कुछ रास्ता हो सकता है, ओपीएस और एनपीएस के बीच? 'दिन भर' में सुनने के लिए यहां क्लिक करें.

मामला संजीदा है लेकिन बात ही कुछ ऐसी है कि बोलने से पहले चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान तैर आती है. ख़ैर, इस ख़बर के लिए जितनी गंभीरता ज़रूरी, लाज़मी तौर पर बरती जाएगी. भारत सरकार और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ कोझिकोड मिल कर तालिबान के डिप्लोमैट्स को ट्रेनिंग देंगे. Immersing With Indian Thoughts नाम के इस कोर्स की ऑनलाइन ट्रेनिंग काबूल के भारतीय दूतावास में 14 से 17 मार्च तक दी जाएगी. भारत का विदेश मंत्रालय इसे आयोजित कर रहा है, इंडियन टेक्निकल एंड इक्नॉमिक कॉपरेशन का ये प्रोग्राम 1964 से चलाया जा रहा है और इसमें कई देश के डिप्लोमैट्स हिस्सा लेते रहे हैं. IIM कोझिकोड ने ट्वीट कर बताया कि इसके माध्यम से तालिबानी डिप्लोमैट्स को भारत के कारोबारी माहौल, सांस्कृतिक विरासत और रेगुलेटरी इकोसिस्टम की समझ मिलेगी. अच्छी बात ये है कि इस ट्रेनिंग के बाद टेस्ट की व्यवस्था नहीं रखी गई हैं, वरना इस विषय को पढ़ने वाले और पढ़ाने वाले, दोनों की प्रतिभा संदेह के दायरे में आ जाती. 

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ऑन अ सीरियस नोट, भारत ने अभी तक तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दी है. लेकिन तालिबान सरकार से उसके डिप्लोमेटिक रिश्तें लगातार बने हुए हैं, तालिबान के रक्षा मंत्रालय का भारत के साथ एक समझौता भी है, इसके तहत भारत तालिबान सेना के कैडटों को सैन्य अकादमी में परिक्षण भी देगा, इसका पहला बैच पास हो चुका है, दूसरे की ट्रेनिंग चल रही है. अब यहां ये सवाल बनता है कि एक तरफ़ तो हम तालीबान सरकार को मान्यता नहीं दे रहें लेकिन दूसरी ओर देश और सेना को कैसे चलाएं, इसकी ट्रेनिंग दे रहे हैं, ये जो हालिया ट्रेनिंग दी जा रही है, इसके ज़रिए भारत क्या हासिल करना चाहता है? अगर ख़ासतौर पर इस ट्रेनिंग की बात करें तो, चार दिन तक चलने वाले इस कोर्स में क्या पढ़ाया जाता है?  'दिन भर' में सुनने के लिए यहां क्लिक करें.

 

बात थोड़ी पुरानी है. यही कोई ढाई साल पहले की. हुआ कुछ यूं कि गुजरात में सेंट्रल ज़ू अथॉरिटी ने एक वेबिनार आयोजित किया. इसमें कई वन संरक्षक आए, इनमें से ही एक थे श्यामल टिकदर. उन्होंने अपने संबोधन में गुजरात के गिर नेशनल पार्क में लगातार मर रहे शेरों के प्रति चिंता जाहिर की. साथ ही स्थिति को टाइम बम से कंपेयर कर दिया. उनके इस संबोधन के बाद  गुजरात सरकार ने उन पर कार्रवाई करते हुए कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया गया जिसमें टिकदर के शब्द को गैर जिम्मेदार बताया गया. इसके बाद एक प्रेस रिलीज जारी कर गुजरात सरकार के शेर संरक्षण को लेकर किए गए कामों की सराहना की गई.

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अब आप सोच रहे होंगे कि शेर के बारे में बोलने पर ऐसी कार्रवाई क्यों. तो साहब गुजरात में शेर पर राजनीति बहुत पुरानी है, और वो फिर से चर्चा में है. वो इसलिए क्योंकि गुजरात सरकार ने एक आंकड़ा पेश किया जिसके मुताबिक गिर नेशनल पार्क में पिछले दो सालों में 240 शेरों की मृत्यु हुई है. इस पर विपक्ष सरकार को घेर रही है. हालांकि ये बहस नई नहीं है. 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि कुछ शेरों को 6 महीने के अंदर गिर से मध्यप्रदेश के कूनो में लाया जाए लेकिन उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने इससे इंकार कर दिया था. उन्होंने गुजरात के शेरों को गुजराती अस्मिता से जोड़ कर देखने की बात की थी. दरअसल, गिर नेशनल पार्क एशियाई शेरों का एकमात्र पनाह है, सवाल है की लगातार शेरों की मृत्यु जो हो रही है, उसकी वजह क्या है, क्या गुजरात सरकार इसको सीरियसली ले रही है. क्योंकि राज्य सरकार गिर से शेरों को दूसरे नेशनल पार्क में शिफ्ट करने के खिलाफ रही है? इन मौतों के आंकड़े को कैसे कम किया जा सकता है? 'दिन भर' में सुनने के लिए यहां क्लिक करें.
 

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