तीन नए कृषि कानूनों को लेकर नाराज किसान राष्ट्रीय राजधानी की घेराबंदी करके कई दिनों से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. किसानों की नाराजगी जिन मसलों पर है, उनमें से एक ये भी है कि नए कानून के तहत मंडियां खत्म हो जाएंगी. हालांकि, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी (एपीएमसी) एक्ट को 14 साल पहले ही खत्म कर दिया था. बिना अनाज मंडियों के बिहार की खेती और यहां के किसानों पर क्या असर पड़ा?
नीतीश कुमार 2005 में सत्ता में आए थे और 2006 में एपीएमसी एक्ट को समाप्त कर दिया. इस एक्ट को समाप्त करने का क्या मतलब है और इसकी जगह कौन सी नई व्यवस्था बनी? एपीएमसी खत्म करने का मतलब है कि मंडी सिस्टम खत्म कर दिया गया. इसे खत्म करने बाद बिहार सरकार धान खरीद के लिए एक नई एजेंसी प्राइमरी एग्रीकल्चरल क्रेडिट सोसाइटीज (PACS) लेकर आई. पूरे बिहार में करीब 8,500 पैक्स हैं.
मंडियां खत्म होने के बाद बिहार में क्या स्थिति रही और किसानों इस बारे में क्या महसूस करते हैं? आंकड़े बताते हैं कि एपीएमसी खत्म होने के बाद राज्य में कृषि उत्पादकता में वृद्धि हुई है. लेकिन जमीन पर किसानों की प्रतिक्रिया उत्साहजनक नहीं है.
2006 में बिहार एपीएमसी को खत्म करने वाला देश का पहला राज्य बन गया था, जिसने निजी कंपनियों को किसानों से सीधे खरीद की सुविधा मुहैया कराई. एपीएमसी एक्ट के तहत स्थानीय नगर निकाय किसानों और खरीदारों, दोनों से विक्रय मूल्य का 1 प्रतिशत वसूलते थे.
किसानों का दावा है कि ये सुधार उनके लिए बहुत फायदेमंद नहीं रहा है क्योंकि किसानों को अपनी उपज निजी कंपनियों को औने-पौने कीमतों पर बेचनी पड़ती है.
कृषि उपज में वृद्धि
बिहार में हाल के वर्षों में कृषि उत्पादकता में वृद्धि हुई है. 2011-12 और 2018-19 के बीच भारत की विकास दर 7.5 प्रतिशत थी, जबकि बिहार में यह 13.3 प्रतिशत थी. बिहार सरकार के कृषि विभाग के अनुसार, 2005-06 में गेहूं का उत्पादन 1,379 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर था जो 2012-13 में बढ़कर 2,797 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गया. 2018-19 में गेहूं का उत्पादन 2,998 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रहा.
2005-06 में बिहार में चावल का उत्पादन 1,075 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर था जो 2012-13 में बढ़कर 2,523 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गया. 2018-19 में चावल का उत्पादन 1,948 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रहा. राज्य में चावल उत्पादन 2014-15 में 2,525 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर, 2015-16 में 2,104 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर, 2016-17 में 2,467 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और 2017-18 में 2,447 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रहा.
राज्य में मक्का का भी उत्पादन बढ़ा है. 2005-06 में यह 2,098 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर था जो 2012-13 में बढ़कर 3,975 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गया. 2018-19 में मक्के का उत्पादन 4,771 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रहा.
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बिहार भारत में मक्का का उत्पादन करने वाले प्रमुख राज्यों में से एक है. सब्जियों के उत्पादन बिहार का चौथा और फलों के उत्पादन में आठवां स्थान है. बिहार में करीब 70 से 80 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है.
किसानों की समस्याएं
बिहार के किसान वहां के हालात से बहुत खुश नहीं हैं. ज्यादातर किसान ऐसे हैं जिनका दावा है कि एपीएमसी एक्ट के खत्म होने के बाद बिचौलिये और स्थानीय व्यापारी न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से भी कम दाम में किसानों की उपज खरीद कर भारी मुनाफा कमा रहे हैं.
मुजफ्फपुर के एक छोटे किसान मणि कुमार ने कहा, “बिहार सरकार का विचार था कि किसानों को लाभान्वित करने के लिए निर्धारित दर पर पैक्स के माध्यम से किसानों की उपज की खरीद की जाएगी. विचार था कि बिचौलियों को सिस्टम से खत्म किया जाएगा. हालांकि, पिछले 14 वर्षों में कोई भी पैक्स का सदस्य मेरे पास उपज खरीदने के लिए नहीं आया. छोटे किसान जो 2-4 क्विंटल अनाज पैदा करते हैं, वे पैक्स में नहीं जाते और बिचौलियों को बेचना पसंद करते हैं.”
मुजफ्फपुर के ही एक अन्य किसान बाल मुकुंद शर्मा कहते हैं कि सरकार को अपनी उपज बेचने के लिए किसानों को बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है जैसे कि सरकारी खरीद में भुगतान देर से मिलता है.
बाल मुकुंद ने कहा, “बिहार सरकार द्वारा निर्धारित धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1,868 रुपये प्रति क्विंटल है लेकिन किसान अपनी उपज बिचौलियों को 1,100 रुपये प्रति क्विंटल पर बेच रहे हैं. हमारी उपज सरकार को बेचने में समस्या यह है कि हमें समय पर भुगतान नहीं मिलता है और बहुत देर हो जाती है.”
चूंकि पैक्स किसानों की उपज खरीदने में सक्षम नहीं है, तो स्थानीय व्यापारी इसका फायदा उठाकर भारी मुनाफा कमाते हैं. नुकसान से बचने के लिए किसान स्थानीय व्यापारियों को अपनी उपज बेचने पर मजबूर हैं.
बेगूसराय के एक स्थानीय व्यापारी मनोज चौधरी कहते हैं, “जब सरकार समय पर किसानों की उपज खरीदने में विफल रहती है तो किसान अपनी उपज खुले बाजार में स्थानीय व्यापारियों को बेचने पर मजबूर होते हैं.”
नहीं बदले किसानों के हालात
एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज से जुड़े अर्थशास्त्री डीएम दिवाकर का दावा है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने जो अब किया है, नीतीश कुमार ने वही काम 2006 में कर दिया था, तो बिहार में किसानों की हालत पिछले 14 साल में क्यों नहीं सुधरी?
दिवाकर ने कहा, “एपीएमसी को खत्म करने के बजाय इसे और मजबूत किया जाना चाहिए था. बिहार में 90 प्रतिशत से ज्यादा किसान छोटे और सीमांत हैं और अगर उन्हें सरकार का समर्थन नहीं मिला तो वे संकट में पड़ जाएंगे. वे अपनी लागत तक नहीं निकाल पाते और यह एपीएमसी को खत्म करने का नतीजा है.”
दिवाकर कहते हैं कि इस समय बिहार में धान 900 रुपये से लेकर 1000 रुपये प्रति क्विंटल बिक रहा है जबकि सरकार ने धान का समर्थन मूल्य 1868 रुपये तय किया है.
नीतीश कुमार ने हाल ही में राष्ट्रीय राजधानी में चल रहे किसान आंदोलन पर प्रतिक्रिया व्यक्त की और कहा कि केंद्र के तीनों कृषि बिल के लागू होने के बाद किसानों को अपनी फसल बेचने में किसी भी तरह की समस्या का सामना नहीं करना पड़ेगा.
नीतीश ने कहा, “हमने इस प्रणाली की शुरुआत की थी. जो कानून केंद्र की ओर से लाया जा रहा है वह हमारे राज्य में 2006 में लाया गया था. मेरे ख्याल से नए कानून से किसानों को फायदा होगा.” लेकिन ऐसा लगता है कि नीतीश कुमार के इस निर्णय से किसानों को फायदा नहीं पहुंचा.
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रोहित कुमार सिंह