अरुण पुरी
आज के विलेन कल के हीरो थे, या इसे उलटकर भी कह सकते हैं. अहमदाबाद स्थित अदाणी समूह के 60 वर्षीय चेयरमैन गौतम अदाणी के साथ यही हुआ. वे 19 सितंबर, 2022 को कुछ समय के लिए दुनिया के दूसरे सबसे अमीर शख्स बने और पिछले साल लगातार कई हफ्ते फोर्ब्स की अमीरों की फेहरिस्त में नंबर 3 की पायदान पर बने रहे. उनकी यह आभा तब भी बेदाग और सही-सलामत थी जब 2022 के अंत में इंडिया टुडे ने उन्हें न्यूजमेकर ऑफ द ईयर के रूप में अपने आवरण पर जगह दी.
इसके उलट हिंडनबर्ग रिसर्च ऐसा नाम था जिसके बारे में 24 जनवरी से पहले भारत में कुछेक मुट्ठी भर लोगों ने ही सुना होगा. यही वह दिन था जब अमेरिका स्थित इनवेस्टमेंट रिसर्च और शॉर्ट-सेलिंग फर्म ने भारी-भरकम रिपोर्ट जारी करके अदाणी ग्रुप के खिलाफ कई आरोप लगाए. यही वह बिंदु था जहां समूची कहानी उलट गई. एक हफ्ते में अदाणी समूह की नौ सूचीबद्ध कंपनियों में निवेशकों की 120 अरब डॉलर (करीब 10 लाख करोड़ रु.) की दौलत स्वाहा हो गई.
समूह का बाजार पूंजीकरण 7 फरवरी तक आधा घटकर 9.8 लाख करोड़ रुपए पर आ गया और अपनी निजी संपत्ति में आधी से ज्यादा 64.6 अरब डॉलर की गिरावट के साथ अदाणी फोर्ब्स की अरबपतियों की फेहरिस्त में लुढ़ककर 17वीं पायदान पर आ गए.
जब कोई स्कैंडल कंपनियों के ऐसे विशाल समूह से टकराता है जो निजी क्षेत्र में भारत का सबसे बड़ा बिजली उत्पादक, बंदरगाह और हवाई अड्डा संचालक, उपभोक्ता गैस कारोबारी और बिजली ट्रांसमिशन कॉर्पोरेशन है और सौर, पवन तथा ग्रीन हाइड्रोजन में बड़ी योजनाएं बना रहा है, तब आप इस सवाल से कतरा नहीं सकते कि इसके संभावित दुष्परिणाम क्या हैं?
इस हफ्ते अदाणी पर हमारी आवरण कथा में इंडिया टुडे की टीम इसके नतीजों के तीन बड़े आयामों की पड़ताल करने की कोशिश कर रही है: अदाणी और उनके समूह को कितना नुक्सान पहुंचा है? क्या इस विवाद से भारत की वित्तीय और आर्थिक स्थिरता पर असर पड़ेगा? सत्तारूढ़ निजाम के लिए इसका संभावित राजनैतिक नतीजा क्या है?
इनमें से दूसरे सवाल का जवाब देना सबसे आसान है. क्या भारत की वित्तीय स्थिरता प्रभावित होगी, इसका संक्षिप्त उत्तर है—शायद नहीं. भारतीय सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और संस्थाओं का इतना बड़ा जोखिम निहित नहीं है कि पिघलन शुरू हो जाए. भारतीय स्टेट बैंक का अदाणी की कंपनियों में 27,000 करोड़ रुपए का जोखिम है, और उसने कहा है कि अदाणी को दिए गए उसके सारे कर्जों को भौतिक, नकदी-उत्पादक परिसंपत्तियों का सहारा हासिल है.
जीवन बीमा निगम ने 30 जनवरी को एक बयान में कहा कि समूह में उसकी ऋण और शेयर हिस्सेदारी उसके कुल निवेश की एक फीसद से भी कम है. यहां तक कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी इंडिया टुडे ग्रुप की पोस्ट-बजट कॉन्क्लेव में कहा कि अर्थव्यवस्था अच्छी-भली हालत में है और घबराने की कोई बात नहीं है. हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि सेबी इस मामले की जांच-पड़ताल कर रहा है.
चौतरफा घिरे अदाणी को सबसे पहले भारतीय नियामक प्राधिकरणों—सेबी और भारतीय रिजर्व बैंक—को भरोसा दिलाना होगा, जो शेयरों की कीमतों में हेर-फेर और मॉरिशस तथा अन्य जगहों की समुद्रपार संस्थाओं के मार्फत भारत में धन की राउंड-ट्रिपिंग के आरोपों की जांच करते बताए जाते हैं. नियम-कायदों के मामले में यह शायद अदाणी की सबसे कमजोर कड़ी है. अपने रिश्तेदारों के संबंधित पार्टी लेनदेनों के बारे में वे तकनीकी तौर पर सही हो सकते हैं, पर दूसरों के खिलाफ बहुत कम सबूत होने पर भी इस सरकार ने कार्रवाई की है.
आने वाले दिनों में सबकी निगाहें इस पर होंगी कि अदाणी अपने 2.1 लाख करोड़ रुपए के भारी-भरकम कर्ज को कैसे संभालते हैं. उनके लिए अच्छी बात यह है कि उनके कारोबार को 3 लाख करोड़ रुपए से भी अधिक की ठोस परिसंपत्तियों का सहारा हासिल है और परिचालनों से अच्छी-खासी नकदी का आना जारी है. अदाणी के शेयरों के अवास्तविक मालूम देते प्राइस-टू-अर्निंग (पी/ई) अनुपात को लेकर भी कुछ खलबली थी—विश्लेषकों ने 2015-21 में महज 15 गुना बढ़ोतरी से बीते दो साल में 214 गुना कमाई तक नाटकीय और अभूतपूर्व बढ़ोतरी बताई.
अदाणी की कंपनियों के शेयरों की कीमत में औंधे मुंह गिरावट और उसके नतीजतन मूल्य बुरी तरह घटने से समूह कम से कम छोटे वक्त में कर्जदाताओं के लिए कम आकर्षक हो जाएगा. धन उगाहने में भरोसा और संचालन व्यवस्था सर्वोपरि हैं और हिंडनबर्ग के आरोपों ने उन्हें संदेह के घेरे में ला दिया है. डाउ जोन्स के सस्टेनेबिलिटी इंडेक्स से उनकी कंपनियों का हटाया जाना और ग्लोबल फाइनेंसरों की इसी तरह की कार्रवाई से भविष्य में धन जुटाना मुश्किल होगा.
20,000 करोड़ रुपए का पूर्ण सब्सक्राइब एफपीओ वापस लेने का अदाणी का कदम खुद अपनी वित्तीय स्थिति में भरोसे का पहला संकेत था, और समूह की तीन कंपनियों के गिरवी रखे प्रमोटर शेयर छुड़ाने के लिए 1 अरब डॉलर से ज्यादा रकम का पूर्व-भुगतान दूसरा. उनकी कुछ कंपनियों ने, जिन्होंने हाल ही में अपने वित्तीय नतीजों का ऐलान किया, उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया है.
ये सभी सकारात्मक संकेत हैं और जो बताते हैं कि 24 जनवरी को शुरू हुए रक्तपात के बाद पहली बार 7 और 8 फरवरी को शेयर बाजारों में अदाणी की ज्यादातर फर्मों के शेयरों में तेजी क्यों आई. हालांकि अभी भी वे खतरे से बाहर नहीं हैं, पर रेंगते हुए वापसी शुरू हो गई मालूम देती है. विशेषज्ञों का कहना है कि उन्हें अब अपनी कंपनियों में ज्यादा पारदर्शिता लाकर और मालिकों का नियंत्रण कम करके अपनी कोशिशों को शीर्ष पर ले जाने की जरूरत है.
अगर जांच से पता चलता है कि नियामकीय प्राधिकरणों ने अदाणी से निपटने में ढिलाई बरती, तो अंतरराष्ट्रीय वित्तीय बाजार की नजरों में इसका असर भारत की प्रतिष्ठा पर पड़ेगा. अगर यह पाया जाता है कि सरकार ने नियम-कायदों से बाहर जाकर अदाणी पर मेहरबानी की, तो इसके राजनैतिक दुष्परिणाम भी होंगे.
विपक्ष ने अभी तक बस आरोप ही लगाए हैं, अगर वह प्रधानमंत्री की लिप्तता के सबूत पेश करता है तो मुद्दा और बड़ा हो जाएगा. उनकी कोशिश 2015 के 'सूट-बूट की सरकार’ नैरेटिव को फिर से जिंदा करने और इसे इस तरह जताने की है कि सरकार केवल अमीरों के लिए है.
हालांकि यह आसान नहीं होगा, क्योंकि मोदी को आज गरीबों और दबे-कुचलों का मसीहा माना जाता है. एक के बाद एक सर्वे दिखाते हैं कि तीव्र आर्थिक संकट के बावजूद उनकी लोकप्रियता जरा फीकी नहीं पड़ी है. सरकार भारत की वृद्धि की कहानी को नुक्सान नहीं पहुंचने दे सकती. यह किसी एक कॉर्पोरेट के कुकर्मों से कहीं ज्यादा बड़ी है.
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