मार्च की 12 तारीख को किसान नेता राकेश टिकैत कोलकाता एयरपोर्ट पर उतरे तो उनके स्वागत के लिए तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) सांसद डोला सेन पहुंची थीं. टिकैत और दूसरे किसान नेताओं ने पश्चिम बंगाल में अपनी सभाओं में सिर्फ एक ही बात कही कि भाजपा को वोट मत दो. भाजपा को वोट न देने का अपील से टीएमसी खुश है, और किसान नेता संतुष्ट दिखे कि उन्हें आंदोलन का दायरा बढ़ता दिख रहा है.
लेकिन हकीकत यह है कि टीएमसी और भाजपा दोनों के घोषणा-पत्र में किसान हित की बात नीचे की तरफ है. भाजपा सिर्फ किसान सम्मान निधि की बात कर रही है तो टीएमसी किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए कुछ मौजूदा योजनाएं और भावी योजनाओं की चर्चा करती है. उनके एजेंडे में दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों के मुद्दों की चर्चा गायब है. अलबत्ता मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जरूर अपनी सभाओं में किसानों की जमीन पर बड़ी कंपनियों की नजर से आगाह करती हैं. लेफ्ट-कांग्रेस गठबंधन की फेहरिस्त में भी किसान आंदोलन खास जगह नहीं बना सका है. पड़ोसी राज्य असम और दक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडु, केरल और पुदुच्चेरी में भी किसान आंदोलन का मुद्दा कोई सियासी गोलबंदी करता नहीं दिख रहा है. तो क्या किसानों के नाम पर राजनीति के दिन अब लद गए हैं?
वरिष्ठ पत्रकार जयंत घोषाल कहते हैं, ''ऐसा नहीं है. इसका असर खास इलाकों में प्रभावी होता है और यह सत्ता परिवर्तन की भी वजह बन सकता है, लेकिन किसानों के मुद्दे को देशव्यापी बनाना थोड़ा मुश्किल जरूर है.'' यह सही है कि किसान आंदोलन के बीच ही पंजाब में स्थानीय निकाय के चुनावों में भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया. हालांकि गुजरात के निकाय चुनाव में भाजपा ने बाजी मार ली.
दरअसल, मौजूदा किसान आंदोलन का दायरा पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और कुछ हद तक राजस्थान और मध्य प्रदेश में ही प्रभावी दिखता है. इन जगहों पर किसान आंदोलन बड़ा सियासी मुद्दा है लेकिन उसके बाहर इसका असर सीधे नहीं दिख रहा है.
खास दायरे में खेती-किसानी का मुद्दा कितना प्रभावी हो सकता है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण खुद पश्चिम बंगाल है. बंगाल में किसान और मजदूरों के नाम पर राजनीति करती आई वाम मोर्चे की सरकार 1977 से 34 साल तक सत्ता पर काबिज थी. लेकिन 2007 में मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार ने केमिकल हब बनाने के लिए नंदीग्राम में किसानों की भूमि अधिग्रहण का फैसला किया तो उसके खिलाफ बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया. आंदोलन में राज्य के विभिन्न सामाजिक-राजनैतिक समूह और राजनैतिक दलों ने शिरकत की. हिंसा की राह छोड़ चुके नक्सली गुटों से लेकर सामाजिक और आंदोलनकारी समूहों के अलावा टीएमसी, कांग्रेस, एसयूसीआइ, जमीयत उलेमा-ए-हिंद वगैरह ने सक्रिय भूमिका निभाई. लेकिन राजनैतिक लाभ ममता बनर्जी और उनकी पार्टी टीएमसी को मिला.
लिहाजा, 2011 के विधानसभा चुनाव में वामपंथियों का किला ध्वस्त हो गया और ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनने में सफल रहीं. राजनैतिक टीकाकार शंखदीप दास कहते हैं, ''नंदीग्राम की घटना नहीं हुई होती तो शायद वाम मोर्चे की सरकार न जाती. खेती से जुड़ा मुद्दा ऐसा प्रभावी हुआ कि वामपंथी दलों का जमीनी आधार भी खिसक गया.''
किसानों के मुद्दे में इतनी ताकत होती है तो फिर तीनों कृषि कानून के खिलाफ 100 दिन से अधिक समय से चल रहे आंदोलन की हलचल पश्चिम बंगाल या अन्य राज्यों में वैसी क्यों नहीं दिख रही है? यह चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बन पा रहा है? टीएमसी नेता डेरेक ओ'ब्रायन कहते हैं, ''आंदोलन को जीना पड़ता है, यह सिर्फ सियासत नहीं होती. ममता बनर्जी ने नंदीग्राम आंदोलन को जीया और लोगों ने वोट के जरिए भरोसा दिखाया.'' टीएमसी के ही एक अन्य नेता कहते हैं, ''आंदोलन 100 दिनों से ज्यादा समय से चल रहा है, लेकिन वामपंथी दलों ने इस पर सियासत तो सेंकने की कोशिश की लेकिन इसे दिल्ली के बॉर्डर से उठाकर बंगाल तक नहीं ले जा सके. आज स्थिति यह है कि वामपंथी दल और कांग्रेस गठबंधन किसान-मजदूरों की बात छोड़कर भाजपा की तर्ज पर ध्रुवीकरण की सियासत में रमे हैं.''
असल में इशारा वाम-कांग्रेस गठबंधन में शामिल बंगाल के हुगली जिले में फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी के इंडियन सेक्युलर फ्रंट (आइएसएफ) की ओर है, जिसकी आलोचना कुछ वामपंथी और कांग्रेसी हलके से भी हुई है. (वैसे, आइएसएफ सात-आठ छोटे-छोटे आदिवासी, ओबीसी, दलित और अल्पसंख्यक समूहों का मोर्चा है, जिसके अध्यक्ष सामंत सोरेन और लोकप्रिय चेहरे सिद्दीकी हैं. हालांकि उनके चाचा टीएमसी को ही समर्थन दे रहे हैं). कांग्रेस नेता आनंद शर्मा कह चुके हैं कि आइएसएफ को शामिल करना कांग्रेस की मूल विचारधारा के खिलाफ है. हालांकि पश्चिम बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष और लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने कहा, ''फैसला आलाकमान की सहमति से लिया गया है.''
तो, सवाल यह है कि कांग्रेस भी किसान आंदोलन को पश्चिम बंगाल में मुख्य चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बना पा रही है जबकि कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने 9 मार्च को ट्वीट किया था, ''मैं आपसे (किसान) वादा करती हूं कि 100 दिन, क्या 100 महीने भी लगे, मैं किसानों के साथ खड़ी रहूंगी.'' अधीर रंजन चौधरी की सफाई है, ''हम किसान आंदोलन का मुद्दा छोड़ नहीं रहे हैं. इसका जिक्र भाषणों में किया जा रहा है, लेकिन सिर्फ इसी मुद्दे पर भाजपा और ममता बनर्जी को हराना आसान नहीं है, इसलिए और भी मुद्दे उठाना जरूरी है.'' अधीर रंजन चौधरी के इस बयान पर राजनैतिक टीकाकार गौतम लाहिड़ी कहते हैं, ''इसका मतलब है कि किसान आंदोलन का कोई असर पश्चिम बंगाल के चुनाव पर पड़ने वाला नहीं है. चुनाव हरियाणा, पंजाब या उत्तर प्रदेश में हो रहे होते तो कांग्रेस ही क्या दूसरी पार्टियों का भी मुख्य एजेंडा किसान आंदोलन ही होता.''
आखिर क्या वजह है कि जिस किसान आंदोलन का जिक्र देश ही नहीं, दुनिया भर की सुर्खियों में रहा. सोशल मीडिया पर दर्जनों बार यह मुद्दा टॉप पर ट्रेंड करता रहा, इस मुद्दे को लेकर केंद्र सरकार के पसीने छूटते रहे, आखिर उसे राजनैतिक पार्टियां चुनावी राज्यों में मुद्दा क्यों नहीं बना सकीं? भारतीय किसान यूनियन (टिकैत) के नेता राकेश टिकैत कहते हैं, ''इसका उत्तर तो सियासी दल ही दे सकते हैं. आंदोलन देशव्यापी है, सिर्फ कुछ राज्यों तक सीमित नहीं है. चुनावी राज्यों में हम अपील कर रहे हैं कि लोग भाजपा के खिलाफ वोट करें, ताकि केंद्र को सबक मिले.'' टिकैत के बयान में यह ध्वनि निकलती है कि यह मुद्दा राष्ट्रव्यापी है क्योंकि तीनों विवादास्पद कृषि कानून केंद्र सरकार लेकर आई है. लेकिन चुनाव विधानसभाओं के हो रहे हैं.
यह भी सही है कि पश्चिम बंगाल या अन्य चुनावी राज्यों में यह आंदोलन तभी उठता जब वहां की राज्य सरकारें इस तरह के कानून बनातीं. कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला कहते हैं, ''यह राष्ट्रीय स्तर का मुद्दा है और इसका असर 2024 के लोकसभा चुनाव में जरूर दिखेगा क्योंकि केंद्र सरकार की नीतियों की वजह से देशभर के किसान त्राहि-त्राहि कर रहे हैं.'' अगर ऐसा है तो फिर एनआरसी और सीएए तो केंद्र सरकार लेकर आई फिर असम के विधानसभा चुनाव के लिए यह प्रमुख मुद्दा कैसे है? कांग्रेस नेता गौरव गोगोई कहते हैं, ''एनआरसी और सीएए का असर ज्यादा है.
इसकी जद में किसान भी आते हैं, दुकानदार भी आते हैं, छात्र और महिलाएं भी आती हैं. यह असम के चुनाव में बड़ा मुद्दा है. यह ऐसा मुद्दा है जो विधानसभा में भी और लोकसभा में भी असर करने वाला है क्योंकि नागरिकता को लेकर असम के लोगों पर संकट के बादल घूम रहे हैं. अन्य राज्यों में असम के मुकाबले यह खतरा कम है.'' इसी तरह, तमिलनाडु के बारे में राजनैतिक मामलों के जानकार एन. अशोकन कहते हैं, ''तमिल भाषा और संस्कृति बाकी अन्य मासलों से कहीं ज्यादा संवेदनशील है इसलिए यहां के सियासी दलों का मुख्य चुनावी एजेंडा भाषा और संस्कृति ही है. अन्य मुद्दे यहां गौण हो जाते हैं.''
सवाल है कि पांच राज्यों के चुनाव में किसान आंदोलन से ज्यादा प्रभावी अन्य मुद्दे हैं तो फिर पश्चिम बंगाल और केरल सरकारों ने केंद्र के तीनों कृषि कानून को वापस लेने का प्रस्ताव पारित क्यों किया? राजनैतिक मामलों के जानकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं, ''दरअसल, चुनाव में सभी दल अपने समर्थकों का एक गुलदस्ता तैयार करते हैं, इनमें छोटे से छोटे समूह का भी ध्यान रखा जाता है. कृषि कानून के खिलाफ प्रस्ताव पारित करना इसी का हिस्सा है.'' लेकिन बात यहीं तक नहीं है. कांग्रेस को भी यह भरोसा है कि किसानों का मुद्दा देशभर में असर पैदा करेगा. इसलिए अगले साल पंजाब और उत्तर प्रदेश के चुनाव होंगे तो पार्टी इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाएगी. फिर 2024 के लोकसभा चुनाव में यही मुद्दा कांग्रेस को यूपीए का कुनबा बढ़ाने में मदद कर सकता है. इसलिए जिन पार्टियों की राज्य सरकारों ने इन कानूनों के खिलाफ विधानसभाओं में प्रस्ताव पारित किए हैं, उसे कांग्रेस भावी सहयोगी के रूप में देख सकती है.
बहरहाल, पांच राज्यों के चुनावों की जीत-हार में किसान नेताओं के स्लोगन 'वोट की चोट' का क्या असर होता है, यह देखना होगा. भाजपा के राष्ट्रीय सचिव और पश्चिम बंगाल में पार्टी के सह-प्रभारी अरविंद मेनन कहते हैं, ''किसान आंदोलन की सियासत से वोटर वाकिफ हो चुके हैं. हम तो टीएमसी से पूछ रहे हैं कि पश्चिम बंगाल के किसानों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसान सम्मान निधि के तहत जो सालाना 6 हजार रुपए देते हैं, उसे ममता बनर्जी ने क्यों रोक रखा है.'' कुल मिलाकर किसान चर्चा में जरूर हैं.
सुजीत ठाकुर