फिल्म रिव्यूः जंग के साए में चिंटू का बर्थडे, क्या पॉजिटिव अप्रोच आएगी काम?

विनय पाठक ऐसे रोल्स में हमेशा ही शानदार रहे हैं. मध्यवर्गीय परिवार के हेड ऑफ द फैमिली का किरदार उन्होंने बखूबी निभाया है. पर जिसकी एक्टिंग नजरों को खूब भाती है वो है चिंटू यानी वेदांत. 6 साल के बच्चे के रोल में वे परफेक्ट हैं.

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चिंटू का बर्थडे (Photo credit- Zee5/First Draft) चिंटू का बर्थडे (Photo credit- Zee5/First Draft)

मोनिका गुप्ता

  • नई दिल्ली,
  • 09 जून 2020,
  • अपडेटेड 2:51 PM IST
फिल्म:Chintu Ka Birthday
3.5/5
  • कलाकार :
  • निर्देशक :Devanshu Kumar, Satyanshu Singh

मम्मी कल में कौन से कपड़े पहनकर स्कूल जाऊंगा? क्लास में बच्चों को कितनी टॉफी बाटूं? पापा कल टाइम पर स्कूल छोड़ देना, लेट ना हो जाए. पापा दीदी बर्थडे केक तो लाएगी ना? बर्थडे पार्टी में मम्मी आप क्या बनाओगी? ऐसे न जाने कितने सवाल बचपन में बर्थडे से एक रात पहले सोने नहीं देते थे, बर्थडे की एक्साइटमेंट ही जो इतनी होती है. नए-नए कपड़े पहन, स्कूल में सबसे अलग दिखने का जो चाव होता है वो दुनिया में किसी भी चीज से बढ़कर होता है.

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ऐसा ही कुछ 6 साल के चिंटू के मन में भी था और हो भी क्यों न साल में एक ही तो दिन होता है जब हर कोई प्यार करता है, आपकी हर बात मानता है. लेकिन चिंटू ने जैसा अपना बर्थडे प्लान किया था वो उसके उलट ही रहा. आप सोच रहे होंगे कि मैं आज बर्थडे पर क्यों बात कर रही हूं और ये चिंटू कौन है. तो आपको बता दूं कि ऑनलाइन प्लेटफॉर्म जी 5 पर एक फिल्म रिलीज हुई है जिसका नाम है चिंटू का बर्थडे. आइए जानते हैं आखिरकार चिंटू का बर्थडे इतना खास क्यों है?

क्या है कहानी?

फिल्म की कहानी में बिहार के चिंटू (वेदांत छिब्बर) और उसका परिवार (2004) इराक में फंसे हुए हैं. चिंटू के मां-बाप (विनय पाठक और तिलोत्तमा शोम), बहन (बिशा चतुर्वेदी) नानी (सीमा पाहवा) चिंटू के बर्थडे को स्पेशल बनाने के लिए हर संभव कोशिश करते हैं. ये चिंटू का 6th बर्थडे है. चिंटू इस बर्थडे को अपने दोस्तों के साथ सेलिब्रेट करना चाहता है. क्योंकि पिछले साल भी वो अपना बर्थडे सेलिब्रेट नहीं कर पाया था. पर जैसा सोचते हैं वैसा अक्सर होता कहां है? चिंटू के साथ भी वैसा ही हुआ. उसकी और उसके परिवार की पूरी प्लानिंग बीच में लटक जाती है.

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दरअसल, उस दौरान यानी 2004 के आसपास इराक में जंगी माहौल रहता है. अमेरिकी सैनिक वहां चप्पे-चप्पे पर होते हैं. सद्दाम हुसैन की सेना से जंग के लिए अमेरिका के सैनिकों को बगदाद आए हुए एक साल हो गए होते हैं. और फिल्म की कहानी का तानाबाना भी इसी के आसपास बुना गया है.

उस वक्त भारत सरकार ने वहां फंसे सभी भारतीयों को इराक से निकाल लिया था. लेकिन फिल्म में दिखाया गया है कि मदन तिवारी (चिंटू के पापा) फैमिली के साथ वहीं फंसे रह गए थे क्योंकि वो नेपाल के पासपोर्ट के सहारे इराक पहुंचे थे. चिंटू के बर्थडे के दिन उनका इराकी मकान मालिक चिंटू को विश करने के लिए उनके घर आता है. उसके आने के ठीक बाद ही मौहल्ले में एक धमाका होता है. इसी की जांच और उस इराकी मकान मालिक को पकड़ने के लिए दो अमेरिकी सैनिक चिंटू के घर में घुस आते हैं. चिंटू के पापा को अमेरिकी सैनिक डिटेन करते हैं. परिवार की बर्थडे प्लानिंग धरी रह जाती है. लेकिन कोई इंसान अपने परिवार को दुखी नहीं देख सकता और फिर यहीं मदन तिवारी यानी चिंटू के पापा एक रास्ता अपनाते हैं. उस उपाय से क्या चिंटू का बर्थडे सेलिब्रेट हो पाता है या नहीं? फिल्म में यही सेंटर प्वॉइंट है. ये जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी.

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एक्टिंग

विनय पाठक ऐसे रोल्स में हमेशा ही शानदार रहे हैं. मध्यवर्गीय परिवार के हेड ऑफ फैमिली का किरदार उन्होंने बखूबी निभाया है. पर जिसकी एक्टिंग नजरों को खूब भाती है वो है चिंटू यानी वेदांत. 6 साल के बच्चे के रोल में वे परफेक्ट हैं. चिंटू की बहन के रोल में बिशा और उसकी मां के रोल में तिलोत्तमा शोम ने भी अच्छी एक्टिंग की है. साइड रोल में चिंटू की नानी और चिंटू के दोस्तों ने फिल्म को बांधे रखने में पूरी भूमिका निभाई. फिल्म में हर छोटी-छोटी चीज पर फोकस किया है. फिर चाहे वो फोन की रिंगटोन सारे जहां से अच्छा हो या फिर मस्जिद की अजान.

डायरेक्शन

सत्यांशू सिंह और देवांशू के निर्देशन में बनी ये फिल्म वॉर ड्रामा के बैकग्राउंड में फैमिली सेंटिमेंट का मैसेज देती है. फिल्म का केंद्र ही एक परिवार है और फिल्म की शूटिंग भी एक ही घर में करके निर्देशक ने दर्शकों को काफी कुछ इमैजिनेशन करवाया है. फिल्म का डायरेक्शन अच्छा है. कैमरावर्क भी अच्छा है. कार्टून्स के जरिए और चिंटू की आवाज में फिल्म की कहानी को बयां करने का तरीका दर्शकों को बांध कर रखने वाला है.

फिल्म तीन भाषाएं बोली जाती हैं. हिंदी के अलावा आपको अरबी और इंग्लिश की लाइंस भी सुनाई देगी जो वहां उन कैरेक्टर के हिसाब से बहुत ही अहम हैं.

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फिल्म देती है ये जरूरी मैसेज

फिल्म लास्ट में एक सीख भी देती है कि अगर आप सच्चे हैं और आप मुश्किल से मुश्किल वक्त में भी पॉजिटिव हैं और दिमाग शांत रखकर सोचते हैं तो कुछ भी मुश्किल नहीं है. सबकुछ काफी आसान हो जाता है. फिल्म की ये सीख आज के माहौल में जहां दुनिया में हर कोई कोरोना वायरस से खौफजदा है लोगों को पॉजिटिव रहने में मदद कर सकती है.

क्यों न देखें?

ऐसी कोई बड़ी वजह नहीं है. फिर भी अगर आप आजकल ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर रिलीज हो रही थ्रिलर, क्राइम वेबसीरीज के दीवाने हैं और कुछ वैसा खोज रहे हैं तो वो यहां आपको नहीं मिलेगा. बहुत कुछ सीक्रेट या क्रिएटिव जो आपके दिमाग को झकझोर दे, ऐसा भी कुछ नहीं मिलेगा.

पर हां, अगर आप अलग-अलग तरह के सिनेमा देखने के शौकीन हैं, इंसानियत से जुड़ी कहानियों को पसंद करते हैं तो वो सारा एलिमेंट आपको इसमें मिलेगा.

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