कृषि विकास दर का भी पड़ता है वोटिंग पैटर्न पर असर, सरकारें भुगतती रही हैं सजा

लोकसभा चुनाव के पहले जहां सभी राजनीतिक दल जातिगत समीकरण के सहारे चुनावी नैया पार कराने की जुगत में हैं. तो वहीं पिछले कुछ समय में कृषि संकट भी राजनीतिक विमर्श का केंद्र रहा है. जानकारों का मानना है कि कृषि विकास दर का सीधा असर ग्रामीण अंचलों के वोटिंग पैटर्न पर पड़ता है. कम से कम हाल में हुए मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के नतीजे ऐसा ही इशारा करते हैं.

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सांकेतिक तस्वीर (फाइल फोटो-पीटीआई) सांकेतिक तस्वीर (फाइल फोटो-पीटीआई)

विवेक पाठक

  • नई दिल्ली,
  • 19 मार्च 2019,
  • अपडेटेड 7:55 AM IST

पिछले कुछ वर्षों से कृषि और ग्रामीण संकट देश में राष्ट्रीय बहस के केंद्र में आ गए गए हैं. वहीं, कृषि और ग्रामीण विकास दर का सीधा असर चुनावों पर भी पड़ता दिख रहा है. यही वजह रही कि हाल में संपन्न हुए हिंदी पट्टी के तीन राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में कृषि संकट, कर्ज माफी एक प्रमुख मुद्दा बनकर उभरा और इसका खामियाजा सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को अपनी हार से चुकाना पड़ा.

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चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में कृषि संकट और वोटरों के मिजाज पर पड़ने वाले प्रभाव का सही आकलन वैसे तो मुश्किल है. लेकिन हाल में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों पर नजर डालें तो तस्वीर साफ हो जाती है. जाने माने कृषि, खाद्य और व्यापार नीति विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा का कहना है कि गुजरात विधानसभा चुनाव में कृषि संकट बड़ा मुद्दा था. राज्य के सौराष्ट्र इलाके में इसका खासा असर देखने को मिला. नौबत यह आ गई कि ग्रामीण अंचलों में सत्ताधारी बीजेपी को भारी नुकसान उठाना पड़ा और बड़ी मुश्किल से शहरी सीटों की बदौलत बीजेपी फिर से सरकार बनाने में कामयाब रही.

गुजरात के बाद अन्य राज्यों की बात करें तो किसानों का मुद्दा पंजाब, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ के चुनावों भी हावी रहा. इंडिया टुडे हिंदी के संपादक अंशुमान तिवारी लिखते हैं कि राज्यों के आर्थिक और कृषि विकास की रोशनी में विधानसभा नतीजों को देखने पर में तीन निष्कर्ष हाथ लगते हैं. पहला यह कि गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में चुनाव के साल आर्थिक विकास दर पिछले पांच साल के औसत से कम थी. गुजरात में बीजेपी मुश्किल से सत्ता में लौटी. अन्य राज्यों में बाजी पलट गई.

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दूसरा, चुनाव से पहले इन सभी राज्यों में कृषि विकास दर में गिरावट आई. पूरे देश में ग्रामीण मजदूरी दर में कमी और सकल कृषि विकास दर में गिरावट के ताजा आंकड़े इसकी ताकीद करते हैं. तीसरा 2014 के बाद जिन राज्यों में सत्ता बदली है वहां चुनावी साल के आसपास राज्य की आर्थिक और कृषि विकास दर घटी है. तेलंगाना (बिहार और बंगाल भी) अपवाद हैं जहां विकास दर पांच साल के औसत से ज्यादा थी. यहां कृषि की हालत देश की अन्य राज्यों की तुलना में ठीक-ठाक थी इसलिए नतीजे सरकार के माफिक रहे.

कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा बताते हैं कि CSO के आंकड़े के मुताबिक अक्टूबर-दिसंबर, 2018 की तिमाही में पिछले 14 साल में कृषि आय सबसे कम आंकी गई. वहीं कृषि और गैर कृषि मजदूरी भी सबसे निचले स्तर पर रही. इसका साफ मतलब है कि ग्रामीण इलाके में हालात खराब हैं. लेकिन इसका वोटिंग पैटर्न पर कितना असर पड़ेगा यह कहना मुश्किल है क्योंकि पाकिस्तान के बालाकोट में एयर स्ट्राइक के बाद राष्ट्रवाद ने सभी मुद्दों को पीछे धकेल दिया है.

अंशुमान तिवारी के मुताबिक ग्रामीण मंदी का सियासी असर देखकर 2017 के बाद राज्यों में कर्ज माफ हुए और केंद्र ने फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ाया. लेकिन शायद देर हो चुकी है और कृषि संकट ज्यादा गहरा है. कुछ अपवादों को छोड़कर 1995 के बाद अधिकांश चुनावों में वोटरों का यही रुख दिखा है. 2000 के बाद के एक दशक में राज्यों में सबसे ज्यादा सरकारें दोहराई गईं क्योंकि वह खेती और आर्थिक विकास का सबसे अच्छा दौर था. 2014 में भ्रष्टाचार के अलावा खेती की बदहाली सरकार पलटने की एक बड़ी वजह थी.

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कुल मिलाकर चुनावों में किसानों के मुद्दे को तरजीह मिलने लगी है. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में बीजेपी की हार के बाद मोदी सरकार का किसानों के खाते में सीधे पैसे डालने की योजना इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है.   

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