केदारनाथ सिंह को समझने के लिए इन 4 कविताओं को पढ़ना जरूरी

सुप्रसिद्ध साहित्यकार केदारनाथ सिंह नहीं रहे और उनके निधन के बाद उनके प्रशंसक गमजदा हैं. सोशल मीडिया पर उनकी कविताओं को शेयर कर लोग अपनी संवेदनाएं व्यक्त कर रहे हैं.

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केदारनाथ सिंह (फोटो-sheomangal.siddhantakar) केदारनाथ सिंह (फोटो-sheomangal.siddhantakar)

अनुज कुमार शुक्ला / मोहित पारीक

  • नई दिल्ली,
  • 20 मार्च 2018,
  • अपडेटेड 12:14 PM IST

सुप्रसिद्ध साहित्यकार केदारनाथ सिंह नहीं रहे और उनके निधन के बाद उनके प्रशंसक गमजदा हैं. सोशल मीडिया पर लोग उनकी कविताओं को शेयर कर अपनी संवेदनाएं व्यक्त कर रहे हैं. हिंदी के साथ उनकी कविताओं के अनुवाद लगभग अंग्रेजी, स्पेनिश जैसी विदेशी भाषाओं में भी हुआ है. हम आपको उनकी कुछ ऐसी रचनाओं के बारे में बता रहे हैं, जो कि सोशल मीडिया पर शेयर हो रही है और आपको भी उन्हें पढ़ना चाहिए.

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अकाल में सारस

तीन बजे दिन में

आ गए वे

जब वे आए

किसी ने सोचा तक नहीं था

कि ऐसे भी आ सकते हैं सारस

एक के बाद एक

वे झुंड के झुंड

धीरे-धीरे आए

धीरे-धीरे वे छा गए

सारे आसमान में

धीरे-धीरे उनके क्रेंकार से भर गया

सारा का सारा शहर

वे देर तक करते रहे

शहर की परिक्रमा

देर तक छतों और बारजों पर

उनके डैनों से झरती रही

धान की सूखी

पत्तियों की गंध

अचानक

एक बुढ़िया ने उन्हें देखा

जरूर-जरूर

वे पानी की तलाश में आए हैं

उसने सोचा

वह रसोई में गई

और आँगन के बीचोबीच

लाकर रख दिया

एक जल-भरा कटोरा

लेकिन सारस

उसी तरह करते रहे

शहर की परिक्रमा

न तो उन्होंने बुढ़िया को देखा

न जल भर कटोरे को

सारसों को तो पता तक नहीं था

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कि नीचे रहते हैं लोग

जो उन्हें कहते हैं सारस

पानी को खोजते

दूर-देसावर से आए थे वे

सो, उन्होंने गर्दन उठाई

एक बार पीछे की ओर देखा

न जाने क्या था उस निगाह में

दया कि घृणा

पर एक बार जाते-जाते

उन्होंने शहर की ओर मुड़कर

देखा जरूर

फिर हवा में

अपने डैने पीटते हुए

दूरियों में धीरे-धीरे

खो गए सारस

बसंत

और बसंत फिर आ रहा है

शाकुंतल का एक पन्ना

मेरी अलमारी से निकलकर

हवा में फरफरा रहा है

फरफरा रहा है कि मैं उठूँ

और आस-पास फैली हुई चीजों के कानों में

कह दूँ 'ना'

एक दृढ़

और छोटी-सी 'ना'

जो सारी आवाजों के विरुद्ध

मेरी छाती में सुरक्षित है

मैं उठता हूँ

दरवाजे तक जाता हूँ

शहर को देखता हूँ

हिलाता हूँ हाथ

और जोर से चिल्लाता हूँ -

ना...ना...ना

मैं हैरान हूँ

मैंने कितने बरस गँवा दिए

पटरी से चलते हुए

और दुनिया से कहते हुए

हाँ हाँ हाँ...

पूंजी

सारा शहर छान डालने के बाद

मैं इस नतीजे पर पहुँचा

कि इस इतने बड़े शहर में

मेरी सबसे बड़ी पूँजी है

मेरी चलती हुई साँस

मेरी छाती में बंद मेरी छोटी-सी पूँजी

जिसे रोज मैं थोड़ा-थोड़ा

खर्च कर देता हूँ

क्यों न ऐसा हो

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कि एक दिन उठूँ

और वह जो भूरा-भूरा-सा एक जनबैंक है -

इस शहर के आखिरी छोर पर -

वहाँ जमा कर आऊँ

सोचता हूँ

वहाँ से जो मिलेगा ब्याज

उस पर जी लूँगा ठाट से

कई-कई जीवन

सन 47 को याद करते हुए

तुम्हें नूर मियाँ की याद है केदारनाथ सिंह

गेहुँए नूर मियाँ

ठिगने नूर मियाँ

रामगढ़ बाजार से सुरमा बेच कर

सबसे आखिर मे लौटने वाले नूर मियाँ

क्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंह

तुम्हें याद है मदरसा

इमली का पेड़

इमामबाड़ा

तुम्हें याद है शुरू से अखिर तक

उन्नीस का पहाड़ा

क्या तुम अपनी भूली हुई स्लेट पर

जोड़ घटा कर

यह निकाल सकते हो

कि एक दिन अचानक तुम्हारी बस्ती को छोड़कर

क्यों चले गए थे नूर मियाँ

क्या तुम्हें पता है

इस समय वे कहाँ हैं

ढाका

या मुल्तान में

क्या तुम बता सकते हो

हर साल कितने पत्ते गिरते हैं पाकिस्तान में

तुम चुप क्यों हो केदारनाथ सिंह

क्या तुम्हारा गणित कमजोर है

(केदारनाथ सिंह की ये कविताएं हिंदी समय डॉट कॉम से ली गई है)

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