जीवनभर की संगीत की सेवा, लिखीं कई किताबें...जानें कैसे भारतीय संगीत के जनक बने पंडित विष्‍णु भातखंडे

Vishnu Narayan Bhatkhande: विष्‍णु ने संगीत की बारिकियों को समझा और नए संगीतकारों के अनुसार संगीत के नये सिद्धांत तैयार करने का निश्‍चय किया. उन्होंने संगीत शिक्षण की अपनी प्रणाली का उपयोग करके बड़ौदा में संगीत महाविद्यालय शुरू किया. उन्होंने संगीत शिक्षकों को प्रशिक्षित किया. उन्होंने संगीत पर ग्रेड के अनुसार पाठ्य पुस्तकें लिखीं जिन्‍हें 'क्रामिक पुस्तका मलिका' के नाम से जाना जाता है.

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Pt Vishnu Narayan Bhatkhande (Photo Source: Twitter) Pt Vishnu Narayan Bhatkhande (Photo Source: Twitter)

aajtak.in

  • नई दिल्‍ली,
  • 10 अगस्त 2022,
  • अपडेटेड 6:56 AM IST

Pandit Vishnu Narayan Bhatkhande Birthday 10 August: आधुनिक हिंदुस्तानी संगीत के जनक माने जाने वाले दिग्‍गज संगीतकार पंडित विष्‍णु नारायण भातखंडे का आज, 10 अगस्त को जन्‍मदिन है. उन्होंने अपना पूरा जीवन प्राचीन और समकालीन हिंदुस्तानी संगीत में रीसर्च के लिए समर्पित कर दिया और इसे एक व्यवस्थित रूप दिया. भातखंडे का जन्म 1860 में जन्माष्टमी के दिन हुआ था. उनके पिता नारायणराव भातखंडे बॉम्बे में एक बड़ी कंपनी में एकाउंटेंट थे. उनका परिवार तत्‍कालीन बंबई के वालकेश्वर में रहता था.

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बचपन से दिखाई प्रतिभा
बहुत कम उम्र से ही उन्‍होंने संगीत के लिए प्रतिभा दिखाई. उन्‍होंने कम उम्र में ही बांसुरी बजाना सीखा. उन्होंने अपने संगीत प्रेम के चलते धार्मिक त्योहारों में सक्रिय रूप से भाग लिया. कॉलेज में पढ़ते हुए उन्‍होंने वल्लभदास नाम के एक पड़ोसी से सितार सीखा और कुछ ही समय में इसमें महारथ हासिल कर ली.

प्रसिद्ध संगीतकारों से ली प्रेरणा
उस समय बड़े अली खान जैसे प्रसिद्ध संगीतकार बॉम्बे में कार्यक्रम करते थे. विष्णु नियमित रूप से उनके पास जाते थे. उनसे प्रेरित होकर उन्‍होंने उस समय की उपलब्ध पुस्तकों से संगीत के सिद्धांतो का अध्ययन करना शुरू कर दिया. इस दौरान उन्होंने बीए और एलएलबी भी किया. उस समय गायन उत्तेजक मंडली नाम का एक संगीत क्लब था. विष्णु इसमें शामिल हुए और महान कलाकारों के प्रदर्शन को सुना.

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पुराने सिद्धांतों में किया बदलाव
उन्होंने ध्रुपदा, ख्याल आदि में संगीत रचनाओं का संग्रह शुरू किया. ये हिंदुस्तानी संगीत में विभिन्न प्रकार के गीत हैं. उन्होंने संगीत पर पुराने क्लासिक्स पढ़ने से पाया कि उनकी थ्‍योरीज़ आउट ऑफ फैशन हो गई हैं और संगीतकार उनका पालन नहीं करते थे. उन्‍होंने पाया कि संगीत के पुराने सिद्धांतों में परिभाषा और वास्तिविक अर्थ में काफी फर्क है. विष्‍णु ने संगीत की बारिकियों को समझा और नए संगीतकारों के अनुसार संगीत के नये सिद्धांत तैयार करने का निश्‍चय किया.

पूरा देश घूमकर सीखे संगीत के सिद्धांत
वह मद्रास, तंजौर, मदुरै और अन्य स्थानों पर गए और वहां के प्रमुख संगीतकारों से मुलाकात की. उन्हें संगीत पर कुछ प्रामाणिक ग्रंथ मिले, जैसे 'चतुर्दनी प्रकाशिका', 'स्वर-मेला-कलानिधि'. उन्होंने इन पुस्तकों को छापा और उन्हें मामूली कीमतों पर बेच दिया. वे नागपुर, कलकत्ता, हैदराबाद, विजयनगर, पुरी और अन्य स्थानों पर गए जहां उन्होंने प्रसिद्ध संगीतकारों के साथ संगीत के अपने सिद्धांतों के बारे में चर्चा की और उनके ज्ञान का लाभ उठाया. बाद में उन्होंने इलाहाबाद, बनारस, आगरा, दिल्ली, मथुरा, जयपुर, बीकानेर और अन्य स्थानों का दौरा किया और उन जगहों पर भी गायन के तरीके के बारे में बहुत कुछ सीखा.

संगीत पर लिखीं कई किताबें
उन्होंने जीवन भर संगीत की पुरानी रचनाओं को जहां से भी प्राप्त किया, एकत्रित किया और संस्कृत पुस्तक 'लक्ष्य संगीता' और 1909 में मराठी में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'हिंदुस्तानी संगीत पद्धति' का पहला भाग प्रकाशित किया. अगले वर्ष भातखंडे ने अपनी कानूनी प्रैक्टिस छोड़ दी और अपना शेष जीवन संगीत की सेवा में समर्पित कर दिया. 1911 में उन्होंने अपनी पुस्तक 'लक्षन गीता' प्रकाशित की. 1914 में उन्होंने अपनी 'हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति' का दूसरा और तीसरा भाग प्रकाशित किया.

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जीवनभर की संगीत की सेवा
उन्होंने संगीत शिक्षण की अपनी प्रणाली का उपयोग करके बड़ौदा में संगीत महाविद्यालय शुरू किया. उन्होंने संगीत शिक्षकों को प्रशिक्षित किया. उन्होंने संगीत पर ग्रेड के अनुसार पाठ्य पुस्तकें लिखीं जिन्‍हें 'क्रामिक पुस्तका मलिका' के नाम से जाना जाता है. उन्‍होंने संगीतकारों के बीच रागों और धुनों के नियमों पर एक आम समझ पैदा की. ये नियम 1932 में प्रकाशित उनकी किताब हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति के चौथे भाग में मिलते हैं. 1925 में 5वें अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में उन्‍होंने लखनऊ में संगीत महाविद्यालय खोलने का निर्णय लिया और अगले वर्ष हिन्दुस्तानी संगीत का मैरिस कॉलेज खोला. अपना पूरा जीवन संगीत को समर्पित करने के बाद 1936 में उनकी मृत्‍यु हो गई. 

 

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