ज्योतिबा फुले ने क्यों आज़ादी की पहली लड़ाई का समर्थन नहीं किया था

ज्योतिराव फुले ने कब समाज सुधार का प्रण लिया, महिला शिक्षा पर उन्होंने कौन कौन से कार्य किए, क्यों विधवाओं के लिए उन्होंने आश्रम खोलने का निर्णय लिया, किसानों को लेकर उन्होंने कैसे आवाज़ मुखर की, उनके पिता ने ज्योतिबा को घर से क्यों निकाल दिया था, सुनिए 'नामी गिरामी' में

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सूरज कुमार

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  • 24 जनवरी 2023,
  • अपडेटेड 5:25 PM IST

भारतीय आज़ादी की पहली लड़ाई को बीस साल हो चुके थे. ब्रिटिश साम्राज्य की शक्ति और क्रूरता दोनों चरम पर थी. लोगों को बंधुआ मज़दूर बनाया जा रहा था. इसके खिलाफ भारतीय अख़बार खुल कर ब्रिटिश साम्राज्य की क्रूरता का बखान कर रहे थे. लोगों तक संदेश पहुंच रहा था कि दोस्ती का हाथ बढ़ा कर अंग्रेज़ों ने भारत की पीठ में छुरा घोपा है. उन्हीं दिनों वायसराय लार्ड लिटन ने एक दमनकारी एक्ट पारित किया.... वर्नाकुलर प्रेस एक्ट. विदेशी अख़बारों को छोड़ भारत के सभी अख़बारों पर बैन लग गया. जबरदस्त विरोध हुआ. लेकिन हर बार की तरह इस बार भी अंग्रेज़ों ने  अपना घमंडी रवैया बरकार रखा.

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दो साल बीत गए थे. एक रोज़ वायसराय लार्ड लिटन पूना भ्रमण करने आए. पूना नगरपालिका के अध्यक्ष वायसरॉय का भव्य स्वागत करना चाहते थे. उन्होंने स्वागत के लिए एक हजार रुपये खर्च करने की इच्छा ज़ाहिर की और पूना नगरपालिका के सदस्यों के सामने मदद का आग्रह किया. हर कोई इसके समर्थन में था, लेकिन लाल पगड़ी, सफेद धोती-कुर्ता पहने 50 साल के एक शख्स ने भरी सभा में आपत्ति दर्ज की और कहा- मैं लिटन की बजाय इन पैसों को पूना के गरीबों की शिक्षा में लगाना ज्यादा बेहतर समझता हूँ. हम उस व्यक्ति का स्वागत करने की बात कर रहे हैं जिसने हमारे अख़बारों को प्रतिबंधित किया ताकि उनके कुकर्म बाहर न जा सकें. ये सुनकर बाकी सदस्यों ने उन्हें समझाने का प्रयास किया मगर वो अडिग थे. वोटिंग का दिन आया. 31 सदस्य  वायसराय लार्ड लिटन के पक्ष में थे और केवल एक व्यक्ति था जिसने इस प्रस्ताव के खिलाफ वोट किया... उस पर्चे पर नाम लिखा था... ज्योतिबा फुले.

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18वीं सदी की शुरुआत थी. पूना में श्रीमंत पेशवा बाजीराव द्वितीय का प्रभुत्व था. समय ही कुछ ऐसा था कि समाज में जातिभेद गहरा रहा था. सवर्णों के हाथ में शासन था और दलितों के हाथ में न ज़मीन थी, न दौलत और न ज्ञान.  न तो स्कूलों में उनके लिए जगह थी ना ही दफ्तरों में कोई पूछता था. उन्हें अछूत पुकारा जाता. वो अपने पीठ पर पेड़ के पत्ते बांध कर चलते ताकि उनकी परछाई से दूषित सड़क पवित्र हो जाए. इसी अमानवीय भेदभाव के बीच ज्योतिबा फुले के पिता गोविंदराव फुले ने हिम्मत कर के स्कूल में उनका दाखिला कराया. हल्ला हो गया... शूद्र ने अपने बेटे को पाठशाला भेज दिया. पाठशाला अपवित्र हो गई. दबाव इतना बढ़ा कि उन्हें ज्योतिबा का नाम स्कूल से हटवाना पड़ा. अब वो भी अपने पिता संग माली का काम करने लगे और तभी एक घटना घटी. उनके एक ब्राह्मण मित्र ने ज्योतिबा को अपने घर शादी में आने का न्योता दिया. तब उनकी उम्र यही कोई 11-12 वर्ष रही होगी. बारात में पहुंचे तो दोस्त संग नाचने लगे, इसी क्रम में उनका पैर भीड़ में खड़े एक व्यक्ति को लग गया. पहले तो उसने ध्यान नहीं दिया लेकिन थोड़े ही देर बाद उसे वो चीख पड़ा.... ये शूद्र अछूत हमारी शादी में क्या कर रहा है. तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यहां आने की और हमारे संग नाचने की. हर कोई नाक-भौं सिकोड़े ज्योतिबा को घूर रहा था. तभी किसी ने लाठी से उनपर वार कर दिया. वो नीचे गिर गए. पास खड़े कुछ लोग मदद के लिए आगे बढ़े तो लोगों ने उनका हाथ पकड़ कर कहा- पाप के भागी क्यों बनना चाह रहे हो. आगे बढ़ो, इसी यहीं पड़े रहने दो..

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ये घटना 11 साल के ज्योतिबा के लिए निर्णायक साबित हुई. वो बिलखते हुए घर आए, पिता को सारी बात बताई तो वो बोले- ये समाज ऐसा ही है बेटा. हम सालों से यूं ही जीते आए हैं, आगे भी ऐसे ही जीना होगा.

 

 

इतना सुनते ही ज्योतिबा उखड़ पड़े और बोले- ये जीवन आपको मंज़ूर होगा, पर मुझे नहीं. मैं पढ़ूंगा और बदलाव भी लाऊंगा. मैं वचन लेता हूं. सुनने के लिए क्लिक करें ‘नामी गिरामी’ में.

 

1944 में पब्लिश ज्योतिबा फुले की जीवनी में धनंजय कीर लिखते हैं 1818 में पेशवा के पतन के बाद से ही ब्राह्मणों को अपना वर्चस्व टूटता दिखा. वे जिसे शूद्र कहते अंग्रेज़ उनसे पश्चिमी शिक्षा प्राप्त करने की बात करते. इस आचरण ने ब्राह्मणों को उनकी घटती शक्ति का बोध करवाना शुरू कर दिया. वो अंग्रेज़ों से मुक्ति का रास्ता अपनाने में जुट गए, जिसमें उनका साथ दिया.. बाजीराव द्वितीय के पुत्र नाना साहेब पेशवा द्वितीय ने.

 

भारतीय समाज में बदलाव ला रहे अंग्रेज़ों की तरफ दलितों का आकर्षित होना स्वभाविक था. इसी कड़ी में उन्होंने अंग्रेज़ों के बनाए स्कूलों में जाना शुरु कर दिया. ज्योतिबा फुले भी इनमें से एक थे. शिक्षा पूरी हुई तो भान हुआ कि उनकी कक्षा में केवल छात्र थे छात्राएं नहीं. वो अब तक घरों से बाहर निकलने में हिचकिचा रही थीं.. कारण था रूढ़िवाद से ग्रस्त समाज. और समाज के तथाकथित ठेकेदार. ज्योतिबा फुले ने ये तस्वीर बदलने की ठान ली. वो अपनी पत्नी सावित्री बाई के पास गए और बोले- सावित्री.. मैं बच्चियों के लिए एक पाठशाला खोलना चाहता हूँ, जहां तुम भी पढ़ाई. सावित्री बाई अचरज में पड़ गईं. उन्होंने जवाब दिया- लेकिन मैं तो पढ़ाना बिल्कुल नहीं जानती.

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मैं सिखाऊंगा.. कह कर ज्योतिबा बाहर चले गए. अपने कुछ मित्रों संग मिलकर योजना बनाई. और अब शुरु हुआ सिलसिला महिलाओं को शिक्षित करने का. जब ये सब हो रहा था, बात फैल गई कि ज्योतिराव नीच जाति की महिलाओं के लिए स्कूल खोल रहा है. कुछ विरोधी उनके घर पहुंचे और गोविंदराव से बोले- तुम्हारा बेटा कौन सा पाप करने पर तुला है. नीच जाति की बच्चियों के लिए विद्यालय खोल रहा है. तुम लोगों का काम मज़दूरी करना है और वही करो. हमारी बराबरी करने की हिम्मत मत करना.

गोविंदराव ने तुरंत ज्योतिबा को बुलाया और डपटते हुए बोले- ये जो कुछ कर रहे हो ज्योति, उसे बंद करो.

लेकिन ज्योतिबा ने इंकार कर दिया.

अपने बेटे का हठ देख गोविंदराव का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया. वो गुस्से में बोले- अगर तुम विद्यालय खोलना चाहते तो, तो तुम्हें इस घर को छोड़ना होगा. मैं लोगों के ताने नहीं सुन सकता.

ज्योतिबा ने घर छोड़ने की बात कबूलते हुए कहा- मुझे मंज़ूर है. मैं बस बदलाव चाहता हूँ. ताकि जो मैंने और आपने झेला है, वो कल कोई दूसरा ना झेले.

वो घर छोड़ कर चले गए. इस तरह 1848 में छात्राओं के लिए पहला स्कूल पुणे में खुल गया. लेकिन राह इतनी आसान नहीं थी. सुनने के लिए क्लिक करें ‘नामी गिरामी’ में.

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विद्या पर सबका अधिकार बता रहे ज्योतिबा पर दबाव बढ़ता ही जा रहा था. बावजूद इसके उन्होंने चार सालों में 5 से ज्यादा स्कूल खोले. इनमें कुछ ऐसे भी थे जहां हर वर्ग के बच्चे पढ़ते थे. आलम ये हुआ कि छात्रों से ज्यादा दाखिले स्कूलों में छात्राओं ने लेने शुरु कर दिए. इन्हीं दिनों हैदराबाद के निज़ाम और नाना साहेब पेशवा ने अंग्रेज़ों के खिलाफ़ लोहा लेने की ठानी और युद्ध का ऐलान कर दिया. पूर्वोत्तर भारत अंग्रेज़ों के खिलाफ लामबंद हो रहा था. इस घटना ने ज्योतिबा को चिंता में डाल दिया. उन्हें लगने लगा कि अगर ये लड़ाई अंग्रेज़ हार गए तो पूना में एक मर्तबा फिर पेशवा का शासन आएगा जहां गैर सवर्णों के लिए कोई जगह नहीं होगी. उन्होंने तय किया कि वो न तो पेशवा का समर्थन करेंगे और न ही अंग्रेजों के कहने पर हथियार उठाएंगे. उन्होंने अपना भविष्य नसीब के हवाले कर दिया था. फिर एक रोज़ ख़बर मिली कि बंगाल में अंग्रेज़ों ने आंदोलन कुचल दिया है और ये स्थिति हैदराबाद और पूना की भी होने वाली है. अंदाज़ा सौ फीसदी ठीक निकला. आज़ादी की पहली लड़ाई को कुचल दिया गया. इस ख़बर से एक ओर जहां पूरा देश शोक में डूबा था, वहीं ज्योतिबा को राहत मिली कि उनकी मुहिम आगे भी जारी रहेगी. सुनने के लिए क्लिक करें ‘नामी गिरामी’ में.

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महिला शिक्षा के काम उस वक्त कुछ लोगों को चुभ रहे थे. वो बार बार फुले दंपति को कभी इस तरह तो कभी उस तरह परेशान करते. एक रोज़ ज्योतिबा अपने किसी परिजन के यहां बैठे थे. मालूम चला कि पड़ोस में एक विधवा गर्भवती है. उसे अछूत करार दे दिया गया है. उसके साये से भी लोग दूर रहते हैं. इसने ज्योतिबा को झकझोर दिया. वो सोचने लगे कि किसी महिला को अछूत बनाने के लिए क्या उसका विधवा होना भी काफी है.

 

वो वहां से उठे और सावित्री बाई से बोले. सावित्रि हमें संतान का सुख नहीं मिला, लेकिन हमें संतान पालने का सुख ज़रूर मिलेगा. कुछ रोज़ बाद शहरों-कस्बों में विज्ञापन छपा- विधवा कल्याण के लिए बनाया गया आश्रम. आप सबका स्वागत है. इस इश्तेहार ने एक मर्तबा फिर अगड़े तबके में उबाल ला दिया.गांव-गांव तक खबर फैली. कहा जाने लगा- उस ज्योतिबा ने एक और पाप कर दिया. विधवाओं के लिए आश्रम खोल दिया.

घर से निकाली गई, प्रताड़ित विधवाएँ आश्रम में आने लगी. सवर्णों के सताए ज्योतिबा सवर्ण महिलाओं का भी उद्धार करने लगे. आश्रम में हर बच्चे को फुले दंपति अपने बच्चे की तरह प्यार देते.  कुछ ही महीने में आश्रम की कीर्ति दूर दराज के इलाको तक फैल गई. सावित्री बाई ने ज्योतिबा से आग्रह किया कि उन्हें सवर्ण महिलाओं को भी काम में भागीदार बनाना चाहिए, मगर ज्योतिबा ने इंकार कर दिया और कहा हम सवर्ण महिलाओं की सेवा ज़रूर करेंगे लेकिन उनसे सेवा नहीं लेंगे, मैंने स्कूल चलाते वक्त इस बात का अनुभव किया है कि सवर्ण अपने घर के लोगों का हमारे साथ काम करना बर्दाश्त नहीं कर पाते.

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ज्योतिबा का साथ देती आ रहीं सावित्री बाई के लिए एक वक्त ऐसा भी आया जब ससुराल वाले उनके खिलाफ हो गए और संतान न होने की वजह उन्हें बताने लगे. 

 

ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले को संतान नहीं हो रही थी. तो उनके घर वाले उनके वंश को लेकर चिंतित हो गए. तो एक रोज़ उन्होंने ज्योतिबा को बुलाया और बोले कि वो दूसरी शादी कर लें क्योंकि सावित्री बाई से उन्हें संतान का सुख नहीं मिलने वाला. अब ये आज से करीब 150 साल पहले की बात है. उस वक्त ज्योतिबा ने अपने परिजनों से कहा था कि संतान के सुख के लिए सिर्फ सावित्री को दोष नहीं दिया जा सकता. मैं भी उसका हकदार हो सकता हूँ. ज़रूरी ये नहीं कि महिला के कारण ही संतान से हम वंचित रहें, पुरुष में भी कोई रोग हो सकता है जिस कारण दोनों को संतान न हो. अगर मुझे वो रोग हुआ और मैंने दूसरी शादी कर ली और संतान की प्राप्ति फिर भी न हुई तो. इसके बाद उन्होंने कहा कि वो सावित्री के साथ खुश हैं और केवल वही उनकी पत्नी रहेंगी.

ज्योतिबा के जीवन में ऐसा मौका भी आया जब पिछड़ों के साथ साथ उन्होंने  गरीब किसानों के हक में भी आवाज उठाई. ज्योतिबा फुले के एक दोस्त थे हरि रावजी चिपलुणकर. उन्होंने ब्रिटिश राजकुमार और उसकी पत्नी के सम्मान में एक कार्यक्रम का आयोजन किया. ब्रिटिश राजकुमार महारानी विक्टोरिया का पोता था. उस कार्यक्रम में ज्योतिबा फुले भी पहुंचे. कार्यक्रम में उन्होंने किसानों जैसे कपड़े पहने ताकि उनकी भाषा में ही वो किसानों का दर्द बयान कर सके. उन्होंने मौके पर मौजूद गणमान्य हस्तियों को चेताते हुए कहा कि ये जो धनाढ्य लोग हैं, वे भारत का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं. अगर राजकुमार वाकई में भारतीय प्रजा की स्थिति जानना चाहते हैं तो वह आसपास के गांवों का दौरा करें. उन्होंने राजकुमार को उन शहरों में भी घूमने का सुझाव दिया जहां वे लोग रहते हैं जिनको अछूत समझा जाता है, जिनके हाथ का पानी पीने, खाना खाने, जिसके साथ खड़े होने पर लोग खुद को अपवित्र मानने लगते हैं. उन्होंने राजकुमार से आग्रह किया कि वह उनके संदेश को महारानी विक्टोरिया तक पहुंचा दें और गरीब लोगों को उचित शिक्षा मुहैया कराने का बंदोबस्त करें. सुनने के लिए क्लिक करें ‘नामी गिरामी’ में.

 

ज्योतिबा खुद को शिवाजी से प्रेरित बताते थे. वो ये दावा करते कि शिवाजी भी शूद्र थे और वो अपनी प्रजा के लिए हमेशा खड़े रहते, जो कि एक राजा का धर्म है. खुद भी वो ताउम्र इसी धर्म का पालन करते रहे. भीमराव अंबेडकर जिन लोगों से प्रेरित थे उनमें एक नाम ज्योतिबा फुले का भी था. ज्योतिबा ऐसे वक्त में दबे-पिछड़े लोगों की आवाज़ बने जब कोई नाइंसाफी पर बोलने को भी तैयार नहीं था. हर विपत्ति के बावजूद वो समाज के ठेकेदारों से भिड़ते रहे और उनके साथ खड़े रहे जिन्हें हाशिये के लोग कहा गया.

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