आर्थि‍क सुस्ती: भारी पूंजी मिलने के बावजूद कम कर्ज दे पा रहे NPA से परेशान बैंक

सार्वजनिक बैंक का कुल NPA 31 मार्च, 2019 तक बढ़कर 8.06 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया था और पिछले तीन वित्त वर्ष में इसमें से 3.21 लाख करोड़ रुपये बट्टा खाता में डाल दिए गए हैं. इस दौरान बैंकों द्वारा दिए जाने वाले कर्ज में बढ़त महज 9.6 फीसदी हुई. 

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प्रतीकात्मक तस्वीर प्रतीकात्मक तस्वीर

प्रसन्ना मोहंती

  • नई दिल्ली,
  • 30 अगस्त 2019,
  • अपडेटेड 8:49 PM IST

भारतीय अर्थव्यवस्था को सुस्ती से उबारने के लिए मुख्य साधन भारी निवेश ही है, लेकिन केंद्र सरकार खुद राजस्व घटने की वजह से परेशान है. दूसरी तरफ, सरकार द्वारा सार्वजनिक बैंकों में लगातार पूंजी डालने के बावजूद उनकी गैर निष्पादित परिसंपत्ति (NPA) लगातार बढ़ती जा रही है और उनके कर्ज में पर्याप्त बढ़त नहीं हो रही है.  

केंद्र सरकार का राजस्व संग्रह साल 2010-11 में जीडीपी के 10.1 फीसदी से घटकर 2018-19 में महज 8.2 फीसदी रह गया है. दूसरी तरफ, इसी दौरान उसका खर्च जीडीपी के 15.4 फीसदी से घटकर 12.2 फीसदी तक रह गया है. निजी क्षेत्र भी कम औद्योगिक उत्पादन, कम क्षमता उपयोग जैसी समस्याओं से परेशान है, इसलिए उसमें नए निवेश को लेकर कोई उत्साह नहीं है.

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बैंक, खासकर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSB) की अपनी समस्याएं हैं और उनकी गैर निष्पादित परिसंपत्ति (NPA) बढ़ने की वजह से कर्ज देने की क्षमता भी कमजोर हो रही है. इसकी वजह से मोदी सरकार वित्त वर्ष 2014-15 से ही लगातार सार्वजनिक बैंकों की रीकैपिटलाइजेशन कर रही है यानी उनमें नई पूंजी डाल रही है, इसके बावजूद सुधार के कोई संकेत नहीं दिख रहे.

बैंकों में लगातार डाली जा रही पूंजी

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने सार्व‍जनि‍क बैंकों में 70,000 करोड़ रुपये की पूंजी डालने की घोषणा की है, जिसके बाद सार्वजनिक बैंकों को मिलने वाली पूंजी करीब 3.19 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच चुकी है. वित्त वर्ष 2014-15 से 2018-19 यानी मोदी सरकार के पिछले पांच साल के कार्यकाल में सार्वजनिक बैंकों को करीब 2.46 लाख करोड़ रुपये की पूंजी दी गई है और उन्होंने खुद भी 0.66 लाख करोड़ रुपये जुटाए हैं.

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सरकार का कहना है कि बैंकों को पूंजी इस वजह से दिया जा रहा है ताकि वे ‘समय से अपने एनपीए के मसले का समाधान’ कर सकें. एनपीए यानी गैर निष्पादित परिसंपत्ति ऐसे फंसे कर्ज होते हैं जिनको आखि‍रकार राइट ऑफ यानी बट्टे खाते में डालना पड़ता है. इस नुकसान की भरपाई आखि‍र सरकारी धन यानी टैक्सपेयर के पैसे से ही होती है.

रिजर्व बैंक ने अपनी एक रिपोर्ट में बैंकों के बढ़ते एपीए की मुख्यत: तीन वजह बताई थी- 1. अंधाधुंध कर्ज देने का चलन, 2. जानबूझकर लोन न चुकाना यानी विलफुल डिफाल्ट/भ्रष्टाचार/लोन जालसाजी और 3. कई मामलों में आर्थिक सुस्ती.

कर्ज में गिरावट

सार्वजनिक बैंकों द्वारा गैर इंडस्ट्री, सेवाओं, पर्सनल लोन और कृषि‍ जैसे गैर खाद्य सेक्टर को दिए गए कर्ज के आंकड़ों से पता चलता है कि वित्त वर्ष 2010-11 के बाद इनमें लगातार गिरावट आई है. हालांकि, वित्त वर्ष 2018-19 में इसमें कुछ सुधार हुआ है. वित्त वर्ष 2014-15 के बाद पर्सनल लोन और सेवाओं के क्षेत्र में कर्ज में ज्यादा बढ़त हुई है, न कि उद्योग, कृषि‍ या उससे जुड़े मामलों में.

रिजर्व बैंक की फिस्कल स्टेबिलिटी रिपोर्ट के अनुसार, सार्वजनिक बैंकों (PSB) की कर्ज ग्रोथ मार्च 2018 के 6.3 फीसदी से बढ़कर मार्च 2019 में 9.6 फीसदी तक पहुंच गई. इस दौरान अन्य शेड्यूल्ड कॉमर्श‍ियल बैंकों (निजी और विदेशी बैंक) का कर्ज ग्रोथ काफी ज्यादा रहा और यह मार्च 2018 के 10 फीसदी से बढ़कर मार्च 2019 में 13.2 फीसदी तक पहुंच गया.

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करीब 8 लाख करोड़ एनपीए

रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार सार्वजनिक बैंक का सकल NPA 31 मार्च, 2019 तक बढ़कर 8.06 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया था. इस दौरान बैंकों द्वारा दिए जाने वाले कर्ज में बढ़त महज 9.6 फीसदी हुई. हालांकि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने शुक्रवार को बताया है कि अब सार्वजनिक बैंकों का एनपीए घटकर 7.90 लाख करोड़ रुपये रह गया है.

रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक सार्वजनिक बैंकों का सकल एनपीए (GNPA) अनुपात वित्त वर्ष 2013-14 के 4.4 फीसदी से बढ़कर वित्त वर्ष 2017-18 में 15.6 फीसदी तक पहुंच गया. दूसरी तरफ, शेड्यूल्ड कॉमर्शियल बैंकों का जीएनपीए अनुपात काफी कम है जिससे लगता है कि उनकी वित्तीय सेहत बेहतर है.

3.21 लाख करोड़ रुपये के कर्ज बट्टे खाते में

वित्त वर्ष 2014-15 से 2018-19 के बीच 3.21 लाख करोड़ रुपये राइट-ऑफ कर दिए गए यानी बट्टे खाते में डाल दिए गए हैं, जबकि इस दौरान सरकार ने 3.12 लाख करोड़ रुपये की पूंजी बैंकों में डाली है. वित्त वर्ष 2017-18 में ही बैंकों ने 1.29 लाख करोड़ रुपये की रकम बट्टे खाते में डाली है.

अच्छी खबर बस ये है कि सार्वजनिक बैंकों की कैपिटल एडिक्वेसी या प्रोविजन कवरेज रेश्यो (PCR) साल 2017-18 के 47.1 फीसदी से बढ़कर वित्त वर्ष 2017-18 के 47.1 फीसदी से बढ़कर वित्त वर्ष 2018-19 में 60.8 फीसदी तक पहुंच गया है. PCR के तहत फंसे कर्जों के लिए बैंकों द्वारा किया जाने वाला प्रावधान यानी एक निश्चित रकम रखनी होती है.

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