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आने वाली सात जुलाई को ओडिशा के पुरी धाम का नजारा देखने लायक होगा. यह वह मौका है जब जगन्नाथजी अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ श्रीमंदिर से बाहर निकलते हैं और रथ पर बैठकर भ्रमण के लिए जाते हैं. विश्व भर में ये आयोजन जगन्नाथ रथ यात्रा के नाम से प्रसिद्ध है. हर वर्ष ये आध्यात्मिक अनुष्ठान आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को होता है. इस बार भी इसकी तैयारियां जारी हैं. जगन्नाथ रथयात्रा जितनी प्रसिद्ध है, पुरी के श्रीमंदिर का निर्माण और उसमें प्रभु विग्रह की स्थापना प्राण प्रतिष्ठा की कैसे हुई, ये जानना भी बड़ा रोचक है.
समुद्री तूफान और ज्वार के कारण श्रीमंदिर का निर्माण नहीं हो पा रहा था. यह हर बार बनते-बनते टूट जाता था. हनुमानजी की सहायता से राजा इंद्रद्युम्न ने श्रीमंदिर का निर्माण तो करा लिया, लेकिन उनकी चिंता अभी दूर नहीं हुई थी. रह-रहकर उन्हें अपना वह सपना ध्यान आ जाता था, जिसमें उन्होंने नीला प्रकाश देखा था. वो पहाड़ी गुफा जहां नील माधव का विग्रह था, उसे खोज पाना बड़ी चुनौती थी. क्योंकि वह गुफा वास्तव में है भी या नहीं उसका कोई प्रमाण नहीं था, इसलिए खोजने वालों को भी किस दिशा में भेजा जाए, ये बड़ी समस्या थी.
राजा का एक भाई था विद्यापति. दोनों की जोड़ी बिल्कुल राम-लक्ष्मण सी थी. वह भी राजा की ही तरह प्रजा का ध्यान रखने वाला और श्रीकृष्ण का भक्त था. उसने ही यह सुझाव दिया कि चारों दिशाओं में चार ब्राह्मण भेजे जाएं, और वह सपने में देखे गए स्थान के बारे में पता करें. जब राजा ने तीन दिशाओं में ब्राह्मण भेज दिए और चौथी दिशा के लिए किसी योग्य व्यक्ति का विचार कर रहा था तो उसी समय विद्यापति ने खुद भी जाने की इच्छा जताई. राजा ने विद्यापति की रुचि जानकर उसे भी भगवान नील माधव के विग्रह की खोज में भेज दिया.
तीनों दिशाओं में भेजे गए ब्राह्मण और विद्यापति अपने-अपने मार्ग में कई महीनों तक भटकते रहे. एक-एक कर कई महीनों तक भटकते हुए तीनों ब्राह्मण राज्य में लौट आए लेकिन विद्यापति पूर्व दिशा में बढ़ता ही गया. इस तरह भटकते हुए वह एक दिन किसी जंगली कबीले के मुहाने पर पहुंच गया. वहां उसने एक बड़ (बरगद) के पेड़ के नीचे स्थान देवता की स्थापना के चिह्न देखे. विद्यापति सोच में पड़ गया कि इस भयानक जंगल में किसी स्थान देवता की स्थापना कैसे हो सकती है. आमतौर पर तो ये मानव बस्तियों के बाहर स्थापित होते हैं. जंगली कबीले भी जंगल में बाहर की ओर बस्ती बनाकर रहते हैं. इतने घने जंगल के भीतर कौन लोग रहते होंगे. विद्यापति अभी यह सब सोच ही रहा था कि इतने में एक सिंह दहाड़ता हुआ उस पर झपटा. विद्यापति ने फुर्ती से एक ओर कूद कर खुद को बचा तो लिया, लेकिन जंगली झाड़ी में पांव उलझने से वह एक ओर गिर पड़ा और सिर में चोट लग गई. इतने में उसने एक कन्या को शेर पर डपटते हुए और उसे नाम से बुलाते हुए सुना. कन्या ने जब उसे बाघा कहकर पुकारा तो वह उल्टे पांव दौड़कर उस लड़की के पैरों के पास किसी पालतू बिल्ली की तरह लोटने लगा.
ये देखते-देखते विद्यापति चोट लगने के कारण बेहोश हो गया. वही कन्या अपने कबीले के लोगों के साथ मिलकर विद्यापति को कबीले में ले आई. असल में ये भीलों का एक कबीला था, जो जंगल के बहुत भीतर रहता था. पर्यावरण और प्रकृति प्रेमी ये लोग नगरी सभ्यता से दूर थे और अपने कबीले में ही जीवन यापन करते थे. इस कबीले के सरदार का नाम विश्ववसु था और शेर के साथ खेलने वाली वह कन्या इसी विश्ववसु की पुत्री ललिता थी. पहले तो विश्ववसु ने किसी बाहरी व्यक्ति को कबीले के भीतर लाए जाने पर विरोध जताया, लेकिन जब ललिता और कबीले के अन्य लोगों ने विद्यापति की घायल अवस्था की दुहाई दी तो वह मान गया और उसका इलाज करने लगा.
विश्ववसु के इलाज से विद्यापति को सुबह तक होश आ गया, लेकिन कई महीनों की थकान और सिर में गहरी चोट के कारण उसके घाव अभी भी भरे नहीं थे. इस अवस्था में ललिता ने उसकी बहुत सेवा की, जिसके फल से विद्यापति जल्द ही ठीक हो गया. अब वह धीरे-धीरे विश्ववसु और कबीले वालों के काम में हाथ बंटाने लगा, लेकिन जब कोई उसके बारे में कुछ पूछता तो विद्यापति चुप्पी साध लेता. शरीर पर राजचिह्न और तमाम अलंकरण को देखकर सभी उसे किसी लुटे हुए हारे हुए राज्य का राजकुमार समझते थे, और अतिथि को पुरानी बातों से कष्ट न हो इसलिए धीरे-धीरे विद्यापति से सभी ने उनके पिछले जीवन के बारे में पूछना बंद कर दिया.
उधर, ललिता विद्यापति से प्रेम करने लगी थी और मन ही मन विद्यापति भी उसे चाहने लगा था, लेकिन वह इस प्रेम को अपने कार्य में बाधा समझता था इसलिए इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं देता था. एक दिन ललिता विद्यापति के बारे में सोचते हुए जंगल से आए फूलों से माला बना रही थी. इसी दौरान टोकरी में कहीं से एक सांप घुस आया था. ललिता का इस ओर कोई ध्यान नहीं था. तभी वहां किसी काम से पहुंचे विद्यापति की नजर ललिता पर पड़ गई. उसने फुर्ती से उस सांप को पकड़कर फेंक दिया. विश्ववसु ने जब ये देखा तो उसे ललिता और विद्यापति के प्रेम का आभास हुआ. इस तरह उसने कबीले वालों से सलाह लेकर विद्यापति और ललिता की शादी कर दी.
इस तरह विवाह के कुछ दिन बीत गए. अब तक विद्यापति को अहसास हो गया था कि ललिता का परिवार उससे प्रेम तो करता है, लेकिन अपनी धार्मिक रीतियों से उसे दूर रखता है. इसके अलावा उसने यह भी देखा कि हर सुबह बड़े अंधेरे ही विश्ववसु कहीं चला जाता है और फिर सूर्य निकलने के बाद ही लौटता है. विद्यापति ने कई बार ये जानने की कोशिश की लेकिन उसे किसी ने कोई जवाब नहीं दिया. एक दिन मौका पाकर विद्यापति ने ललिता से ही इस बारे में पूछा और अपने प्रेम की सौगंध दी. विद्यापति, इसलिए भी ये जानने के लिए उत्सुक था, क्योंकि उसने एक दिन विश्ववसु को नील माधव का जाप करते सुन लिया था.
उधर, धर्म संकट में फंसी ललिता अपने पिता के पास पहुंची और विद्यापति को सुबह की गु्प्त पूजा के बारे में बताने को कहा. पहले तो विश्ववसु ने इसके लिए मना कर दिया, लेकिन जब ललिता ने यह कहा कि आपकी मेरे अलावा कोई संतान नहीं है और आपके बाद ये रीति मुझे और मेरे पति को करनी होगी तो इस तर्क के आगे विश्ववसु हार गया. उसने विद्यापति को सब बताने का निश्चय किया लेकिन एक शर्त भी रखी. विश्ववसु ने कहा कि तुम हमारे कबीले और परिवार वालों में से नहीं हो, बाहरी हो इसलिए मैं सिर्फ तु्म्हें गुफा ले जाकर नीलमाधव के दर्शन करा दूंगा, लेकिन तुम्हें वहां तक आंख पर पट्टी बांधकर चलना होगा. विद्यापति ने ये शर्त मान ली.
अगली सुबह विश्ववसु और विद्यापति गुफा की ओर चले. विद्यापति की आंखों पर पट्टी बंधी थी, लेकिन उसने चालाकी की. रास्ते में चलते हुए जगह-जगह सरसों के बीज बिखेरता चला गया और इस तरह दोनों गुफा में पहुंच गए. गुफा में पहुंचकर विद्यापति ने जब आंखों से पट्टी हटाई तो नीले प्रकाश से उसकी आंखें चौंधिया गईं. यह वैसा ही प्रकाश था जैसा कि उसके भाई राजा इंद्रद्युम्न ने सपने में देखा था. उसे देखते ही विद्यापति भाव विह्वल हो गया और उसे विग्रह के नीले प्रकाश के बीच नील माधव (जो कि विष्णु स्वरूप था) भगवान के दर्शन हुए. दर्शन करके विश्ववसु और विद्यापति लौट आए. विद्यापति की खोज पूरी हो चुकी थी. नील माधव का विग्रह मिल चुका था और उस गुफा के बाहर ही एक सरोवर भी था, जैसा कि सपने में दिखाई दिया था.
इस घटना को कुछ महीने और बीत गए. वर्षा ऋतु आ गई. एक दिन विद्यापति ने देखा कि उसके सरसों के बीज से अब अंकुर फूट गए हैं और गुफा के मार्ग पर सरसों के पौधों की एक रेखा बन गई थी. विद्यापति उसी रेखा के सहारे गुफा तक पहुंच गया और भगवान नीलमाधव के विग्रह को उठा लाया. यहां से विद्यापति सीधे अपने राज्य पहुंचा और भाई को विग्रह के दर्शन कराए. नीले प्रकाश को देखकर राजा पहचान गया कि यह वही विग्रह है, जिसके दर्शन सपने में हुए थे. पुरी का मंदिर जो कि बनकर तैयार था. वहां अब विग्रह स्थापना की तैयारियां चलने लगीं. जगन्नाथ जी के स्वरूप में इन्हीं भगवान नीलमाधव के दर्शन होते हैं.
पहला पार्टः न भुजाएं-न चरण, बड़ी-बड़ी आंखें...पुरी के जगन्नाथ मंदिर में ईश्वर का स्वरूप ऐसा क्यों है!
दूसरा पार्टः बनते-बनते नष्ट हो जाता था श्रीमंदिर, आखिर पुरी में कैसे स्थापित हुआ जगन्नाथ धाम
Illustration By: Vani Gupta