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कौन हैं देवी बिमला, पुरी में जिनको भोग लगे बिना अपना प्रसाद नहीं चखते भगवान जगन्नाथ

भारत में जिस तरह महादेव शिव के 12 ज्योतिर्लिंग उनके निवास स्थान के तौर पर मशहूर हैं, ठीक उसी तरह देश में चारों दिशाओं में चार वैष्णव धाम भी हैं जो कि भगवान विष्णु का घर कहलाते हैं. ये चारों विष्णु धाम चार पुरियों के रूप में प्रसिद्ध हैं, जिनमें जगन्नाथ धाम का अलग ही महत्व है. एक आम मान्यता है कि श्रीविष्णु बद्रीनाथ में अलकनंदा नदी में स्नान करते हैं. द्वारिका पुरी में वस्त्र पहनते हैं. पुरी यानी जगन्नाथ धाम में भोजन करते हैं और फिर रामेश्वरम में रात्रि शयन करते हैं. बद्रीनाथ में जहां भगवान विष्णु अवतार में हैं तो वहीं द्वारिका में वह द्वारिकाधीश कृष्ण हैं और राजा हैं. रामेश्वरम, जो कि वैसे तो महादेव शिव का धाम है, लेकिन यहां महाविष्णु श्रीराम के रूप में पूजे जाते हैं तो पुरी धाम में वह आम भक्तों के लिए सहज उपलब्ध हैं. यहां वह सखा हैं, साथी हैं और अपने दीनबंधु नाम को सार्थक करते हैं. पुरी में विष्णुजी के भोजन करने की मान्यता के कारण ही यहां का 'महाभोग-महाप्रसाद' बहुत प्रसिद्ध है.

एक किवदंती है कि सभी को कृपा के रूप में मिलने वाला ये महाभोग पहले सिर्फ विष्णुजी के लिए ही था. यहां देवी लक्ष्मी उनके लिए अपने हाथों से पकवान बनाकर और थाल सजाकर उन्हें भोजन कराती थीं. ऐसा इसलिए क्योंकि वह त्रेतायुग में सीता के रूप में श्रीराम को ठीक से भोजन नहीं करा सकी थीं. इस महाभोग को पाने के लिए शिवजी और ब्रह्माजी ने बहुत कोशिश की, लेकिन विफल रहे. फिर उन्होंने योजना के तहत नारद मुनि को अपनी लालसा पूरी करने का जरिया बनाया. पिछले भाग में आपने पढ़ा (हाईपर लिंक) कि कैसे नारद मुनि अनजाने में ही शिवजी की योजना का हिस्सा बन गए और पुरी के जगन्नाथ धाम पहुंच गए.

देवर्षि नारद पुरी के जगन्नाथ धाम पहुंचे तो थे महाभोग की लालसा में लेकिन, उसे पाने में विफल रहने के बाद उन्होंने माता लक्ष्मी से प्रार्थना करते हुए कहा कि, नारायण की सेवा को मैं हमेशा करता ही रहता हूं, अपनी भी सेवा का अवसर आप मुझे दें. देवी लक्ष्मी ने नारद मुनि की बात मान ली और उन्हें कभी ईंधन लाने, कभी जल लाने, कभी अन्न लाने आदि के काम में लगा दिया. इस तरह देवर्षि नारद 12 वर्षों तक देवी लक्ष्मी की सेवा करते रहे. इस तरह वह लक्ष्मीजी की सुबह से लेकर शाम तक की सारी दिनचर्या समझ चुके थे. एक दिन देवर्षि नारद भोर की पूजा के लिए वन से लाए कई सुगंधित फूलों की एक माला लेकर लक्ष्मीजी की सेवा में पहुंचे और उन्हें ये माला पूजा के लिए भेंट में दी. कुछ पुष्पों की सुगंध और कुछ नारद मुनि की इतने साल की सेवा से प्रभावित होकर देवी लक्ष्मी ने उनसे उस दिन वरदान मांगने के लिए कह दिया.

नारद मुनि, जो 12 साल से इसी एक दिन का इंतजार कर रहे थे, उन्होंने मौका देखते ही झट से अपना मनचाहा वरदान मांग लिया. उन्होंने कहा, बस माता मुझे एक बार भगवान जगन्नाथ का महाप्रसाद चखने दीजिए. नारद मुनि की ये इच्छा सुनते ही लक्ष्मीजी सोच में पड़ गईं. अब या तो नारायण को दिया वचन भंग होने वाला था, या फिर नारद मुनि को दिया वरदान. ऐसे में उन्होंने देवर्षि से कहा- ठीक है, सही समय आने पर मैं आपको महाभोग जरूर खिलाऊंगी. नारद मुनि ये सुनकर खुशी-खुशी वहां से चले गए. अगले दिन जब नारायण भोजन करने पहुंचे तब देवी लक्ष्मी को चिंता में देखकर उसका कारण पूछा. उनके पूछने पर महालक्ष्मी ने उन्हें देवर्षि नारद को दिए वरदान के बारे में बताया. सारी बात सुनकर विष्णु जी बोले, ठीक है देवी, आपका वरदान मेरा भी वरदान है. आप देवर्षि नारद को जरूर महाभोग खिला दें, लेकिन उनसे कहिएगा कि भोजन के साथ-साथ वह इस बात को भी पचा जाएं कि उन्होंने महाभोग चखा है. अगर ऐसा नहीं हुआ तो सदियों से जो मैं सभी के लिए मना करता आ रहा हूं, इससे शिवजी और ब्रह्म देव को अच्छा तो नहीं लगेगा.

विष्णुजी की अनुमति मिलने पर देवी लक्ष्मी ने एक दिन नारद मुनि को भोजन पर आमंत्रित किया और उन्हें प्रभु का महाभोग चखाया. नारद मुनि यह दिव्य भोजन करके न सिर्फ तृप्त हुए, बल्कि आनंद से भर गए. उन्होंने थोड़ा सा और भोजन बाद के लिए भी मांग लिया और अपनी पोटली में लेकर त्रिलोक भ्रमण करते रहे. इस दिव्य भोज के बाद उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था और वह नारायण-नारायण के साथ मन ही मन हंसते-मुस्कुराते चले जा रहे थे. उधर, कैलाश पर महादेव ने देवताओं की एक सभा बुलाई थी. इस सभा में इंद्र और यम की समस्याओं पर बात होनी थी. यमराज की समस्या ये थी कि धरती पर वैकुंठ के आ जाने से कर्म का सिद्धांत और संतुलन बिगड़ रहा है. इसी बात पर चर्चा हो रही थी. इतने में देवर्षि नारद भी वहां पहुंच गए. सभी ने उनका सत्कार किया, फिर चर्चा शुरू हुई. इस दौरान महादेव ने कहा, वैसे ये तो बड़े आनंद की बात है कि धरती पर जगन्नाथ धाम स्थापित हुआ है और श्रद्धालुओं को धरती पर ही वैकुंठ का सुख मिल रहा है, क्या इससे भी बड़े आनंद की बात हो सकती है? देवर्षि नारद, जो कि अभी तक महाभोज के स्वाद में ही डूबे हुए थे, अचानक ही बोल पड़े, 'हो सकती है महादेव... बिल्कुल हो सकती है...अगर आपने जगन्नाथ धाम का महाभोज चखा हो तो...' ये सुनकर शिवजी समेत सभी लोग सकपका गए. वहीं, नारद मुनि भी घबरा गए कि अनजाने में उन्होंने ये क्या बोल दिया. इसे तो गुप्त रखना था.

अब उनकी बात सुनकर शिवजी ने पूछा कि क्या आपने महाप्रसाद चखा है? अब नारद मुनि फंस चुके थे, झूठ नहीं बोल सकते थे. इसलिए उन्होंने सारी बात बताई और ये भी बता दिया कि वह थोड़ा प्रसाद लेकर भी आए हैं. ये सुनकर शिवजी ने कहा, मुझे भी वह प्रसाद दीजिए. नारद मुनि को वो प्रसाद उनके साथ बांटना पड़ा. इसे चखकर महादेव भी भाव विह्वल हो गए और आनंद तांडव करने लगे. शिवजी के आनंद तांडव से जब सारा कैलाश डगमगाने लगा, तो पार्वती दौड़ीं आईं. उन्होंने शिवजी से इतने आनंद का रहस्य पूछा. शिवजी ने बताया कि उन्होंने महाप्रभु जगन्नाथ का महाप्रसाद चख लिया है. इस पर पार्वती जी ने कहा, मुझे भी खिलाइए. शिवजी ने कहा कि, नहीं मेरे पास अब प्रसाद नहीं बचा है. इस पर पार्वतीजी गुस्सा गईं, और बोलीं कि आपने अकेले ही प्रसाद चख लिया. अब ये प्रसाद सारे संसार को मिलेगा. चलिए मेरे साथ.

ऐसा कहकर पार्वतीजी और शिवजी जगन्नाथ धाम को चले. पार्वती एक रिश्ते में विष्णुजी की बहन भी लगती हैं, इसलिए आज वह इसी अधिकार से पहुंची थीं. जैसे एक रूठी हुई बहन, भाई से अपनी बात मनवाने के लिए जाती है. पार्वतीजी को इतने गुस्से में देखकर लक्ष्मीजी कुछ कह नहीं पाईं और जगन्नाथ जी भी नजरें चुराने लगे. इस पर पार्वतीजी ने ही मौन तोड़ते हुए, लक्ष्मीजी को भाभी कहकर संबोधित किया और बोलीं, क्यों भाभी... मुझे कुछ खिलाओगी नहीं, कितने दिन बाद मायके आई हूं? लक्ष्मी जी ये सुनकर तुरंत ही फल-मिठाइयां ले आईं. तब पार्वतीजी ने कहा, दोपहर हो रही है, भोजन का समय है, आप फल-मिठाइयां खिलाएंगी. भोजन नहीं बना? ये सुनकर लक्ष्मी ने जगन्नाथ जी की ओर देखा. वह नजरें चुराते हुए मुस्कुराने लगे. इतने में नारद मुनि भी आ गए, लेकिन सबके सामने जाने से बचने लगे. तब जगन्नाथ जी ने कहा, ये सारा किया-धरा आपका ही है, सामने आइए... सारा क्रोध अकेले मैं क्यों सहूं?

तब देवी पार्वती ने क्रोधित हुए कहा कि आपने महाभोग खुद तक ही सीमित क्यों रखा? ये तो जगत के नाथ के लिए अच्छी बात नहीं है. जगन्नाथ भगवान विष्णु ने कहा कि देवी लक्ष्मी के बने हाथ के भोज का प्रसाद पाने से सभी कर्म के सिद्धांत से विमुख हो सकते थे, इस तरह पाप-पुण्य का संतुलन बिगड़ जाता, इसलिए मैंने इसे सीमित कर रखा था, लेकिन अब आप कहती हैं तो मैं इसे आज से ही सार्वजनिक करता हूं. अब से जगन्नाथ के लिए जो भी महाभोग तैयार होगा, वह पहले आपको ही चढ़ाया जाएगा, उसके बाद ही मैं उसका भोग लगाऊंगा. आप अपनी संतानों से कितने स्वच्छ-विमल भाव से प्रेम करती हैं, इसलिए आज से आप भी देवी बिमला के नाम से जगन्नाथ धाम में ही निवास करेंगी. इसे बिमला शक्ति पीठ के नाम से जाना जाएगा. महादेव भी अपने भैरव स्वरूप जगत के नाम से यहां निवास करेंगे और मेरे जगन्नाथ नाम को सार्थक करेंगे. इसके साथ ही जो भी श्रद्धालु केवल श्रद्धा और भक्ति भाव से आपका और मेरा दर्शन कर इसी भाव से प्रसाद को स्वीकार करेंगे, वह अपने बंधनों से मुक्त हो जाएंगे, लेकिन प्रसाद ग्रहण करते हुए अगर वह स्वाद, गंध, कामना या किसी अन्य सांसारिक विषयों के बारे में सोचेंगे तो उनके लिए यह केवल व्यंजन भर रह जाएगा. इसीलिए कहते भी हैं कि प्रसाद को प्रभु के साक्षात दर्शन के तौर पर देखना चाहिए और उसे ग्रहण करते समय केवल भक्ति भाव ही रखना चाहिए, सांसारिक बातें नहीं.

ऐसा कहकर पार्वतीजी और शिवजी जगन्नाथ धाम को चले. पार्वती एक रिश्ते में विष्णुजी की बहन भी लगती हैं, इसलिए आज वह इसी अधिकार से पहुंची थीं. जैसे एक रूठी हुई बहन, भाई से अपनी बात मनवाने के लिए जाती है. पार्वतीजी को इतने गुस्से में देखकर लक्ष्मीजी कुछ कह नहीं पाईं और जगन्नाथ जी भी नजरें चुराने लगे. इस पर पार्वतीजी ने ही मौन तोड़ते हुए, लक्ष्मीजी को भाभी कहकर संबोधित किया और बोलीं, क्यों भाभी... मुझे कुछ खिलाओगी नहीं, कितने दिन बाद मायके आई हूं? लक्ष्मी जी ये सुनकर तुरंत ही फल-मिठाइयां ले आईं. तब पार्वतीजी ने कहा, दोपहर हो रही है, भोजन का समय है, आप फल-मिठाइयां खिलाएंगी. भोजन नहीं बना? ये सुनकर लक्ष्मी ने जगन्नाथ जी की ओर देखा. वह नजरें चुराते हुए मुस्कुराने लगे. इतने में नारद मुनि भी आ गए, लेकिन सबके सामने जाने से बचने लगे. तब जगन्नाथ जी ने कहा, ये सारा किया-धरा आपका ही है, सामने आइए... सारा क्रोध अकेले मैं क्यों सहूं?

तब देवी पार्वती ने क्रोधित हुए कहा कि आपने महाभोग खुद तक ही सीमित क्यों रखा? ये तो जगत के नाथ के लिए अच्छी बात नहीं है. जगन्नाथ भगवान विष्णु ने कहा कि देवी लक्ष्मी के बने हाथ के भोज का प्रसाद पाने से सभी कर्म के सिद्धांत से विमुख हो सकते थे, इस तरह पाप-पुण्य का संतुलन बिगड़ जाता, इसलिए मैंने इसे सीमित कर रखा था, लेकिन अब आप कहती हैं तो मैं इसे आज से ही सार्वजनिक करता हूं. अब से जगन्नाथ के लिए जो भी महाभोग तैयार होगा, वह पहले आपको ही चढ़ाया जाएगा, उसके बाद ही मैं उसका भोग लगाऊंगा. आप अपनी संतानों से कितने स्वच्छ-विमल भाव से प्रेम करती हैं, इसलिए आज से आप भी देवी बिमला के नाम से जगन्नाथ धाम में ही निवास करेंगी. इसे बिमला शक्ति पीठ के नाम से जाना जाएगा. महादेव भी अपने भैरव स्वरूप जगत के नाम से यहां निवास करेंगे और मेरे जगन्नाथ नाम को सार्थक करेंगे. इसके साथ ही जो भी श्रद्धालु केवल श्रद्धा और भक्ति भाव से आपका और मेरा दर्शन कर इसी भाव से प्रसाद को स्वीकार करेंगे, वह अपने बंधनों से मुक्त हो जाएंगे, लेकिन प्रसाद ग्रहण करते हुए अगर वह स्वाद, गंध, कामना या किसी अन्य सांसारिक विषयों के बारे में सोचेंगे तो उनके लिए यह केवल व्यंजन भर रह जाएगा. इसीलिए कहते भी हैं कि प्रसाद को प्रभु के साक्षात दर्शन के तौर पर देखना चाहिए और उसे ग्रहण करते समय केवल भक्ति भाव ही रखना चाहिए, सांसारिक बातें नहीं.

पहला पार्टः न भुजाएं-न चरण, बड़ी-बड़ी आंखें...पुरी के जगन्नाथ मंदिर में ईश्वर का स्वरूप ऐसा क्यों है!

दूसरा पार्टः बनते-बनते नष्ट हो जाता था श्रीमंदिर, आखिर पुरी में कैसे स्थापित हुआ जगन्नाथ धाम

तीसरा पार्टः जगन्नाथ मंदिर से पहले कबीले में होती थी भगवान नीलमाधव की पूजा... जानें ये रहस्य

चौथा पार्टः ...वो शर्त जिसके टूटने से अधूरी रह गईं जगन्नाथजी की मूर्तियां

पांचवां पार्टः बनने के बाद सदियों तक रेत में दबा रहा था जगन्नाथ मंदिर, फिर कैसे शुरू हुई रथयात्रा

छठा पार्टः न शिवजी चख सके, न ब्रह्मा...जगन्नाथ धाम में कैसे बनना शुरू हुआ महाभोग

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Credits

illustration By: Vani Gupta