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ओडिशा में जगन्नाथ महाप्रभु की रथयात्रा 7 जुलाई को निकलने वाली है. बीते 15 दिन से बीमार रहे महाप्रभु अब स्वस्थ हो गए हैं. इन 15 दिनों में वह 'अनासरा' में रहे. इस एकांतवास के दौरान उनके दर्शन किसी को नहीं हुए. अनासर एकांतवास के दौरान भगवान जगन्नाथ को फुलुरी तेल लेपन, घना-खली प्रसाद लागी नीति (महाप्रभु के शरीर में दिव्य लेप लगाना) किया गया.
इस विधि में सुआरे (सेवक) के घर से घंट, छाता, काहाली के साथ खली प्रसाद मंदिर में लाया जाता है. सुआरे के बनाए लेप को चांदी के बर्तन में रखा जाता और फिर दइतापति इसे भगवान के शरीर में लगाते हैं. खली लागी नीति से पहले प्रभु की घणा लागी गुप्त नीति की जाती है. इस तरह सभी नीतियां संपन्न करने के बाद भगवान जगन्नाथ और उनके भाई-बहन को लाल कपड़े पहनाए जाते हैं. इस विशेष नीति के दौरान केवल दइतापति और महापात्र सेवक ही मौजूद रहते हैं. दइतापति और महापात्र प्राचीन काल के विद्यापति और विश्ववसु की पीढ़ियों में ही जन्मे लोग हैं. इन सभी लोगों को ही भगवान की इस विशेष सेवा का अधिकार है. 15 दिन तक चली इस सेवा के बाद अब भगवान गुरुवार को स्वस्थ हो गए.
7 जुलाई को भगवान का 'नैनासर' या नेत्र उत्सव मनाया जाएगा. इसके ही तुरंत बाद रथयात्रा निकाली जाएगी. तिथियों के कम समय में होने के कारण नैनासर और रथयात्रा इस बार एक ही दिन है. नैनासर में भगवान के नेत्र खोले जाते हैं और वह फिर से अपने भक्तों को देखने के लिए निकलते हैं. इस दौरान उनकी नजर उतारी जाती है. फिर रथयात्रा निकाली जाती है.
रथयात्रा क्यों निकाली जाती है, इसे लेकर तो कई कथाएं हैं हीं, लेकिन एक लोककथा भी बहुत प्रचलित है. हुआ यूं कि 15 दिन तक इस तरह बीमार रहने के कारण भगवान जगन्नाथ एकांतवास में रहे. देवी सुभद्रा, जो कि छोटी बहन हैं, उन्हें भी ज्वर (बुखार) आ गया था. ऐसे में सिर्फ औषधियों के सेवन और घर में बंद बिल्कुल अकेले रहने से देवी सुभद्रा का मन उचट गया था.
उन्होंने ठीक होने के बाद भैया कृष्ण से कहा- भैया, हम लोग इतने दिन से बीमार रहे, घर में ही बंद रहे. मैं तो इन औषधियों से उकता गई हूं. चलो न भैया कहीं घूमने चलते हैं. मेरा श्रीमंदिर में मन नहीं लग रहा है. तब बहन की बात सुनकर श्रीकृष्ण उनसे कहते हैं, तुम ठीक कहती हो बहन. मन तो मेरा भी उचट गया है. मैं भी जरा देखना चाहता हूं कि बाहर क्या चल रहा है. थोड़ा घूम आते हैं तो मन बहल जाएगा. श्रीकृष्ण ने बलभद्र को ये बात बताई तो उन्होंने भी हामी भर दी और बोले- बड़ा मैं हूं , मैं तुम दोनों को घुमाने ले चलूंगा.
ये सुनकर सुभद्रा खुश हो गईं. उन्होंने श्रीकृष्ण से कान में कहा- वाह, भ्रमण करने चलेंगे और अच्छे-अच्छे पकवान भी खाएंगे. फिर इसी बातचीत के दो दिन बाद सारी तैयारियां करके भगवान जगन्नाथ, अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ रथ पर चढ़कर घूमने निकले. वह श्रीमंदिर से निकले और सागर तट पर स्थित गुंडिचा मंदिर में मौसी के घर जाते हैं. रथयात्रा इसी की स्मृति में हर साल निकाली जाती है. मौसी गुंडिचा ने अपने बीमार भांजे-भांजियों का खूब ध्यान रखा. उन्हें पकवान खिलाए और बलभद्र, सुभद्रा और जगन्नाथ जी वहां सुख से रहे.
रथयात्रा को लेकर एक जनश्रुति द्वारिका धाम में भी प्रचलित है. कहते हैं कि जब श्रीकृष्ण, बलभद्र और सुभद्रा ने माता रोहिणी से अपने बचपन की कथा सुनी तो वह तीनों फिर से गोकुल वासियों से मिलने के लिए व्याकुल हो गए. उन्होंने रथ तैयार कराया और निकल पड़े गोकुल की ओर. यहां वह सात दिन रहे. इस दौरान गोकुल, नंदग्राम, बरसाना, वृंदावन उन सभी पुरानी जगहों पर गए, जहां उनका बचपन बीता था. गांव के जितने भी बच्चे थे सभी नौजवान हो चुके थे. काका-काकी और मौसियां बुजुर्ग. सभी ने बचपन को खूब याद किया और इस बचपन में भगवान ऐसे रमे कि वह द्वारिका तो भूल ही गए. तब रुक्मिणी जो कि खुद लक्ष्मी मानी जाती हैं, वह गोकुल आती हैं और उन्हें कर्तव्यों की याद दिलाकर वापस ले जाती हैं. माना जाता है कि रथयात्रा इसी प्रसंग की याद में निकाली जाती है.
रथयात्रा के बीच में देवी लक्ष्मी का जिक्र ओडिशा में भी होता है, बल्कि इस पूरी कथा का समापन ही लक्ष्मी जी के नाम के साथ ही होता है, और यहीं से कथा में शामिल होता है. रसगोला, रशोगुला या रसगुल्ला... चाहे जो कह लीजिए, हर नाम में उतनी ही मिठास है जितना मीठा रसगुल्ला. रथयात्रा के इस पूरे घटनाक्रम में आखिरी दिन 'रसगोला दिबस' के नाम से भी जाना जाता है. इसे नीलाद्रि बिजै (नीलमाधव भगवान की विजय) भी कहते हैं. पुरी के जगन्नाथ धाम में सिर्फ यही एक दिन होता है, जब महाप्रभु को विशेष रूप से सफेद रसगुल्ले का भोग लगता है और वह देवी लक्ष्मी के साथ इसका भोग स्वीकार करते हैं. इस दिन आपको पुरी के हर चौक-चौराहे, घर-मंदिर में बेहिसाब रगसुल्ले का प्रसाद मिलेगा. रसगुल्ला अचानक ही इस कथा का हिस्सा कैसे बन जाता है और इतना जरूरी क्यों हो जाता है, इसे लेकर भी एक जनश्रुति प्रचलित है.
होता ऐसा है कि जब बहन सुभद्रा ने श्रीकृष्ण-बलराम से कहीं घूमने चलने के लिए कहा तो वह तीनों चल पड़े. इस दौरान जगन्नाथजी ने लक्ष्मीजी से कहा था कि हम लोग दो दिन में लौट आएंगे. दो दिन बीता भगवान नहीं आए. शाम हुई, रात गहराई. तीसरा दिन फिर चौथा दिन भी निकल गया. लक्ष्मी तीन दिन से उनके आने के इंतजार में तैयारी करके रखतीं, नहाने का पानी, श्रृंगार, भोजन, शयन सबकी तैयारी करतीं, लेकिन भगवान नहीं आते. इस तरह पांचवां दिन आ गया. अब लक्ष्मीजी के सब्र का बांध टूटा तो उन्होंने सेवकों से पालकी तैयार करवाई और श्रीमंदिर से निकलकर भगवान को खोजने चल दी कि आखिर नीलमाधव हैं कहां?
लक्ष्मीजी भगवान को खोजने के लिए पंचमी तिथि को निकली थीं. इसलिए पुरी में इस तिथि को 'हेरा पंचमी' कहा जाता है. हेरा का अर्थ है खोए हुए को खोजना. वह उसी मार्ग से जाती हैं , जहां-जहां को रथयात्रा निकली थी. इस तरह वह भी गुंडिचा भवन पहुंच जाती हैं. यहां लक्ष्मीजी बाहर से ही देख लेती हैं कि जगन्नाथजी, सुभद्रा के साथ एक झूले पर बैठे हैं और मिठाई खा रहे हैं. उन्हें बहुत गुस्सा आता है कि एक तो अकेले ही निकल गए, फिर दिए वचन के अनुसार दो दिन में लौटे नहीं और अभी बीमारी से उठे हैं तो यहां पकवान खा रहे हैं. ऐसा सोचते हुए वह हड़बड़ी में भवन में घुसने को होती हैं कि इसी दौरान द्वारपाल द्वार बंद कर देता है. द्वारपाल को तो आदेश था कि कोई आए द्वार मत खोलना, लेकिन यहां तो लक्ष्मीजी थीं. द्वारपाल जब द्वार नहीं खोलता है तो श्रीमंदिर के सेवायतों और गुंडिचा भवन के सेवकों के बीच हाथापाई भी हो जाती है.
गुस्से में देवी लक्ष्मी जगन्नाथ जी के रथ का पहिया तोड़ देती हैं और फिर पालकी में बैठकर दूसरे रास्ते से पुरी के 'हेरा गोहिरी साही' में बने अपने एकांतवास मंदिर में लौट जाती हैं. हेरा गोहिरी साही, श्रीमंदिर से अलग देवी लक्ष्मी का निजी भवन है. वह तीन दिन यहीं रहती हैं.
उधर जगन्नाथ जी को पता चलता है कि लक्ष्मी आई थीं और गुस्से में लौट गई हैं तो वह भी अपने भाई-बहन से लक्ष्मी की नाराजगी के बारे में बताते हैं और श्रीमंदिर चलने के लिए कहते हैं. तीनों भाई-बहन एक ही रथ से वापस लौटते हैं और श्रीमंदिर में लौटने की इस रथयात्रा को बाहुदा रथयात्रा या फिर बहुड़ा रथयात्रा कहते हैं. यह भगवान के भ्रमण से वापसी का प्रतीक है. अब जब तीनों ही श्रीमंदिर के द्वार पर पहुंचते हैं तो देखते हैं कि श्रीमंदिर बहुत सूना है. वह समझ जाते हैं कि लक्ष्मीजी यहां नहीं हैं. इसके बाद भगवान सेवकों से पता करते हैं कि लक्ष्मी कहां हैं.
इसके बाद वह अकेले ही हेरा गोहिरी साही मंदिर पहुंचते हैं. इस दौरान उनके हाथ में होता है एक मटका और मटके में होते हैं सफेद-सफेद रसगोले. जगन्नाथजी जब लक्ष्मी के महल के द्वार पर पहुंचते हैं तो द्वारपाल ठीक वैसे ही द्वार बंद कर देता है जैसे गुंडिचा भवन में लक्ष्मीजी के साथ हुआ था. जगन्नाथजी समझ जाते हैं कि लक्ष्मीजी इसी बात से ज्यादा नाराज है. फिर वह उन्हें पुकार-पुकार कर बुलाते हैं. कहते हैं देखो, मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूं? नाराज लक्ष्मी नहीं मानती हैं. फिर वह कहते हैं ठीक है मैं भी भूखा-प्यासा यहीं बैठा रहूंगा और रसगोले भी नहीं खाऊंगा. कहते हैं कि पुरी में इससे पहले रसगोले नहीं बने थे. जगन्नाथजी के आदेश पर ही इन्हें खासतौर पर बनाया गया था. कहते हैं कि इनका रंग और आकार बनाने की प्रेरणा भगवान की बड़ी-बड़ी आंखों से ही मिली थी.
लक्ष्मी जी ने सुना कि भगवान भूखे-प्यासे हैं तो वह द्रवित हो गईं और उन्होंने द्वार खोल दिया. जगन्नाथजी अंदर आए और धीरे से रसगुल्लों से भरा मटका आगे कर दिया. लक्ष्मीजी ने सिर्फ तिरछी नजर से उन्हें देखा, लेकिन लिया नहीं. तब जगन्नाथजी ने एक रसगुल्ला उन्हें खिलाकर कहा, अरे, चखकर तो देखो. उसके मीठे स्वाद का ऐसा जादू हुआ कि लक्ष्मी नाराजगी भूल गईं और खिलखिलाकर हंस पड़ी. द्वार की ओर से सुभद्रा और बलभद्र ये सब देख रहे थे. लक्ष्मीजी के हंसते ही सुभद्रा जोर से कह उठीं, नीलाद्रि बिजै... इसके बाद सभी एक साथ श्रीमंदिर लौटे और उनकी फिर से रत्नवेदी पर स्थापना हुई. पुरी में हर ओर रसगोले बांटे गए और श्रीमंदिर में एक बार फिर से जगन्नाथ जी, बलभद्र और देवी सुभद्रा के दर्शन होने लगे.
पुरी के जगन्नाथ मंदिर में हर वर्ष रथयात्रा तो निकलती ही है, इसके साथ ही सभी विधानों के साथ हेरा पंचमी, बहुड़ा यात्रा और नीलाद्रि बिजै का भी आयोजन किया जाता है. पुरी के श्रीमंदिर के कलाकार हर वर्ष इस यात्रा के साथ नीलाद्रि बिजै की लोककथा का नाट्य रूपांतरण करते हुए मंचन भी करते हैं. कलाकार जगन्नाथ, लक्ष्मीजी, सुभद्रा, बलभद्र और गुंडिचा के रूप में अपना शृंगार करते हैं और फिर मंदिर से लेकर गुंडिचा भवन के मार्ग तक इसका मंचन करते हैं. जहां-जहां जो घटना हुई थी वहां उसका मंचन किया जाता है. रथयात्रा के ही साथ-साथ यह नाट्य प्रदर्शन भी पुरी की सांस्कृतिक धरोहर है.
बता दें कि साल 2019 में ओडिशा के रसगुल्ले को GI टैग मिला है. पहले ये टैग पश्चिम बंगाल को मिल रहा था, लेकिन ओडिशा ने आपत्ति जताते हुए कहा था कि यह उनकी धार्मिक और सांस्कृति पहचान है इसलिए यह GI टैग उन्हें ही मिलना चाहिए. चार साल तक चली कानूनी लड़ाई के बाद ओडिशा ने जीत हासिल की और फिर इसी राज्य को यह सम्मान मिला है. रसगुल्लों का धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान होने का ओडिशा का दावा सही ही था, क्योंकि रथयात्रा उनकी सबसे प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर है और इस एक महीने के आयोजन का समापन ही रसगुल्लों से होता है. यानी जितनी पुरानी रथयात्रा, उतने पुराने रसगोले या रसगुल्ले.
पहला पार्टः न भुजाएं-न चरण, बड़ी-बड़ी आंखें...पुरी के जगन्नाथ मंदिर में ईश्वर का स्वरूप ऐसा क्यों है!
दूसरा पार्टः बनते-बनते नष्ट हो जाता था श्रीमंदिर, आखिर पुरी में कैसे स्थापित हुआ जगन्नाथ धाम
तीसरा पार्टः जगन्नाथ मंदिर से पहले कबीले में होती थी भगवान नीलमाधव की पूजा... जानें ये रहस्य
चौथा पार्टः ...वो शर्त जिसके टूटने से अधूरी रह गईं जगन्नाथजी की मूर्तियां
पांचवां पार्टः बनने के बाद सदियों तक रेत में दबा रहा था जगन्नाथ मंदिर, फिर कैसे शुरू हुई रथयात्रा
छठा पार्टः न शिवजी चख सके, न ब्रह्मा...जगन्नाथ धाम में कैसे बनना शुरू हुआ महाभोग
सातवां पार्टः कौन हैं देवी बिमला, पुरी में जिनको भोग लगे बिना अपना प्रसाद नहीं चखते भगवान जगन्नाथ
आठवां पार्टः रथयात्रा से पहले 15 दिन तक बीमार कैसे हो जाते हैं भगवान जगन्नाथ? ये है इसकी वजह
नौवां पार्टः ...जब अपने भक्त के लिए गणेशजी बन गए भगवान जगन्नाथ, जानिए महाप्रभु के गजवेश स्वरूप की कथा
दसवां पार्टः खिचड़ी खाने के लिए श्रीमंदिर छोड़ गए थे भगवान, जानिए जगन्नाथजी के भोग के व्यंजन
Illustration By: Vani Gupta