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मंदिरों की मान्यता और प्रसिद्धि की एक वजह जहां प्राचीनता होती है तो दूसरी ओर इन मंदिरों का खजाना लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है. मंदिर का खजाना, मंदिर के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक वैभव में चार चांद लगाता है और लोगों के मन में उस मंदिर में स्थापित देवता की पारलौकिक शक्ति के प्रति विश्वास भी जगाता है. पुरी के जगन्नाथ धाम का रत्न भंडार इस वक्त चर्चा में है. वजह है तकरीबन 46 साल बाद इसे खोला जाना. इसके खुलने के साथ ही वह कहानियां-किवदंतियां भी चर्चा की गई हैं जो पुरी के पौराणिक इतिहास में सदियों से दर्ज हैं.
18 पुराणों में से एक हरिवंश पुराण में भगवान विष्णु का एक जगन्नाथ नाम भी मिलता है. वहीं भागवत कथा में श्रीकृष्ण को जगन्नाथ नाम से पुकारा गया है. श्रीकृष्ण विष्णु के 8वें अवतार हैं और इस अवतार में उन्हें कई जगहों पर पूर्ण पुरुष, पुराण पुरुष और पूर्ण ब्रह्म तक का दर्जा मिला है. पौराणिक आख्यानों में जगन्नाथ धाम के तार द्वापरयुग के कृष्ण अवतार से ही जोड़े जाते हैं, लिहाजा 12वीं सदी के ज्ञात इतिहास वाले इस मंदिर में मौजूद देव प्रतिमाओं को महाविष्णु का ही स्वरूप माना जाता है. नारद पुराण में पुरी को श्रीक्षेत्र, पुरुषोत्तम क्षेत्र और धरती पर मौजूद वैकुंठ कहा गया है. इस नाते भी इस मंदिर की भव्यता न सिर्फ आध्यात्मिक है, बल्कि ये अकूत धन-संपदा वाली भी है. श्री का एक अर्थ लक्ष्मी होता है और श्रीक्षेत्र यानी लक्ष्मी का क्षेत्र. ऐसे में मंदिर में अकूत संपदा वाले रत्न भंडार के मौजूद होने और उसमें तमाम सोने-चांदी के आभूषण,सोने की मुहरें, बर्तन, हीरे-जवाहरात के होने की मान्यता को आधार मिलता है.
पुरी धाम को श्रीक्षेत्र क्यों कहा गया इसके पीछे भी एक किवदंति प्रचलित है. माना जाता है कि जिस तरह महादेव शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंग देशभर में मौजूद हैं, ठीक उसी तरह चारों दिशाओं में चार वैष्णव (भगवान विष्णु) धाम भी स्थापित हैं. भगवान विष्णु बदरीनाथ में स्नान करते हैं. द्वारिका में वस्त्र पहनते हैं, पुरी धाम में भोजन करते हैं और रामेश्वरम में रात्रि शयन करते हैं. चार धाम की इस परंपरा को आदि शंकराचार्य के समय पर मान्यता मिली, जब उन्होंने सनातन संस्कृति को फिर से स्थापित किया.
कथा है कि, एक बार देवी लक्ष्मी शिव-पार्वती के समान ही धरती पर अपना निवास बनाने की इच्छा जताती हैं. इसके साथ ही उन्होंने भगवान विष्णु को खुद भोजन बनाकर भोग लगाने की इच्छा भी प्रकट की. तब भगवान विष्णु ने समय आने पर उनकी इच्छा पूरी करने का वचन दिया. द्वापर युग के अंत में वह समय भी आ गया, जब श्रीकृष्ण ने देह त्यागी तो उसी के साथ पुरी के जगन्नाथ धाम के स्थापित होने की पटकथा लिखी जाने लगी थी. एक और कथा में कहा जाता है कि एक बार जब ऋषि दुर्वासा के श्राप के कारण तीनों लोकों का वैभव (लक्ष्मी) सागर में समा गया तो इसी सागर से लक्ष्मी फिर से प्रकट हुईं और यहीं उनका भगवान विष्णु से दोबारा मिलन हुआ. क्योंकि लक्ष्मी ने वरण पुरुषों में सबसे उत्तम भगवान विष्णु का वरण किया था, इसलिए यह क्षेत्र पुरुषोत्तम कहलाया और श्री (यानी लक्ष्मी) के यहां प्रकट होने के कारण इसे श्रीक्षेत्र कहा जाता है. देवी लक्ष्मी यहां अपने संपूर्ण वैभव के साथ विराजमान हैं. इसके अलावा वह श्री मंदिर की स्वामिनी (मालकिन) भी हैं, जिसका एक स्वरूप यहां स्थित रत्न भंडार के रूप में सामने आता है.
जगन्नाथ धाम में रत्न भंडार से जुड़ी एक लोककथा भी प्रचलित है. यह कथा वैसे तो यह स्थापित करती है कि भगवान के लिए सब बराबर हैं, जन्म और जाति से कोई बड़ा-छोटा नहीं है, लेकिन इस कथा में रत्न भंडार का जिक्र एक खास किरदार की तरह का होता है. यह कहानी पुरी में रहने वाली और जाति से निम्न मानी जाने वाली श्रिया की है.
पुरी में निम्न जाति की महिला श्रिया रहती थी. धन से गरीब पर संकल्प की धनी वह महिला देवी लक्ष्मी की उपासक थी और जगन्नाथजी के भरोसे ही जीवनयापन कर रही थी. एक बार उसकी इच्छा हुई कि वह देवी का कठिन अष्टलक्ष्मी व्रत करे, पर उसे व्रत की विधि नहीं पता थी. एक दिन वह रास्ते पर झाड़ू लगा रही थी कि इस दौरान उसे एक पुजारी मिला, जिससे वह व्रत की विधि पूछना चाहती थी, लेकिन उन्होंने श्रिया को तुरंत मना कर दिया.
इस तरह श्रिया जहां भी व्रत विधि पूछती थी, लोग उसे दुत्कार देते थे. एक दिन भूख-प्यास की मारी श्रिया व्रत की विधि पूछने के लिए भटक रही थी और इसी बीच वह चक्कर खाकर गिर पड़ी और उसके सिर से खून निकल आया. अपने भक्त की सच्ची श्रद्धा और दुख देखकर जगन्नाथ इतने दुखी हुए की उनकी भी प्रतिमा से खून निकल आया. पंडे-पुजारियों और सेवायतों ने ये देखा तो घबरा गए और पूरी पुरी में हड़कंप मच गया. ये बात राजा तक भी पहुंची तो वह समझ गया कि जरूर कहीं घोर पाप हुआ है और भगवान श्रीमंदिर छोड़कर चले गए हैं. ऐसे में राजा ने तुरंत सिंहासन त्याग दिया और उस पाप की खोज में चल पड़ा, जिसके कारण श्रीमंदिर से भगवान चले गए.
उधर, भगवान के आदेश पर नारद मुनि ने संत का वेश बनाया और श्रिया के घर उसे व्रत विधि समझाने पहुंचे. उन्होंने कहा कि भक्ति सच्ची हो तो किसी कठिन व्रत की जरूरत नहीं होती. तुम सच्चे मन से भजन करो. आस-पास को साफ रखो, घर को लीप-बुहार कर सुंदर बना लो, सबसे प्रेम से बोलो. जो ऐसा करता है देवी लक्ष्मी उस पर प्रसन्न रहती हैं. फिर तो तुम केवल दिन भर व्रत रखकर, शाम को खीर बनाकर उन्हें भोग लगाओ, आरती करो और प्रसाद बांटो. देवी तुम्हारे घर चलकर आएंगी.
श्रिया ने ऐसा ही किया. शाम को वह जब आरती कर रही थी तो एक महिला घूंघट की हुई उसके घर पहुंची. लोगों की भीड़ के बीच उसने श्रिया को प्रसाद चढ़ाने के लिए एक पोटली दी. श्रिया ने उस महिला को खीर का प्रसाद दिया. खीर खाने के दौरान महिला के चेहरे से घूंघट हट गया और जब श्रिया की नजरें उस पर पड़ीं तो वह सुध-बुध खो बैठी. श्रिया को जब सुधि आई तब तक सभी लोग जा चुके थे. उसने महिला द्वारा दी गई पोटली खोलकर देखी तो उसमें रत्न, हीरे, सोना-चांदी निकले. श्रिया समझ गई कि मां लक्ष्मी ने उस पर कृपा कर दी है, लेकिन भगवान जगन्नाथ को तो अभी ये खेल कुछ और लंबा खेलना था.
अब जब देवी लक्ष्मी श्रिया के घर से लौटीं और श्रीमंदिर में प्रवेश करने लगीं तो बलभद्र नाराज हो गए. उन्होंने कहा कि लक्ष्मी ने एक छोटी जाति वाली के घर जाकर श्रीमंदिर का अपमान किया है. उसने वहां का प्रसाद भी खाया और अब वह प्रसाद हमें खिलाकर हमें भी भ्रष्ट करना चाहती है. बलभद्र ने जगन्नाथ जी को आदेश दिया कि लक्ष्मी से रत्न भंडार की चाबी ले लें और उन्हें श्रीमंदिर से निकाल दिया जाए.
उधर, जब देवी लक्ष्मी ने यह सब सुना तो वह क्रोधित हो गईं और कहा कि ठीक है, अब मैं यहां नहीं रहूंगी, लेकिन आप दोनों को श्राप देती हूं कि जब तक आप किसी निम्न के हाथ से भोजन नहीं कर लेते आपका भी भरण-पोषण नहीं होगा. लक्ष्मी के जाते ही श्रीमंदिर श्रीहीन हो गया. रत्न भंडार खाली हो गया. महल की चौखटों-दरवाजों और पलंग में दीमक लग गई. अनाज सड़ गया. कपड़े फट गए और यहां तक की मंदिर व्यवस्था ही चौपट हो गई. अब जगन्नाथ और बलभद्र खाने को तरसे. जब बलभद्र को भूख सताने लगी तो उन्होंने वेश बदलकर भिक्षाटन का सोचा.
अब दोनों भाई, जहां भी भीख मांगने जाते तो वहां कुछ अनिष्ट हो जाता. बना हुआ भोजन खराब हो जाता. दाल में पानी गिर जाता. भात जल जाता. कहीं पर जाते तो चूल्हा ही नहीं जल पाता और कहीं-कहीं तो कोई द्वार ही नहीं खोलता था. इस तरह भूखे-प्यासे भटकते हुए दोनों भाइयों ने 12 वर्ष गुजार दिया, लेकिन न उन्हें जल मिला और न अन्न. इसी तरह भटकते-भटकते वह एक बार समुद्र तट पर पहुंचे. उन्हें वहां एक भवन में वैदिक मंत्र सुनाई दिए. बलभद्र ने एक सेविका से पूछा कि, क्या यहां कोई यज्ञ हुआ है. क्या अब प्रसाद-भोजन भी मिलेगा. भिक्षा भी अच्छी मिलेगी ना? बलभद्र के इतने सवाल सुनकर सेविका ने कहा कि, आज हमारी स्वामिनी की 12 वर्षों से चली आ रही तपस्या के पूरे होने के दिन हैं. इसके बाद वह जरूर आपको भंडारा खिलाएंगी, लेकिन हमारी स्वामिनी तो नीच कुल की हैं, क्या अब भी आप भोजन करेंगे?
इस पर बलभद्र ने कहा कि नहीं हम अछूतों का नहीं खाते हैं. अच्छा सुनो, अपनी मालकिन से कह दो कि हमें सामग्री मंगवा दें हम खुद बना लेंगे. स्वामिनी जो कि खुद लक्ष्मी ही थीं, उन्होंने सामग्री तो भेज दी, लेकिन अग्नि देव को आदेश दिया कि वह चूल्हा न जलने दें, सिर्फ धुआं ही करते रहें. अब बलभद्र जो कि सोच के बैठे थे कि आग जलाएंगे, खिचड़ी बनाएंगे और गरम-गरम खाएंगे, वह चूल्हा न जल पाने से इतना झल्लाए कि चूल्हा-मटकी, सभी कुछ फोड़ दिया और जगन्नाथजी से कहा कि, 'जगन, भोजन में क्या छोटा, क्या बड़ा. मैं तो कहता हूं कि भोजन कर लेते हैं. ऐसे तो मैं भूखा मारा जाऊंगा.' इसके बाद जगन्नाथ और बलभद्र लक्ष्मी के घर पहुंचे और वहां उन्होंने भोजन करते हुए पहचान लिया कि यह लक्ष्मी ही हैं. वह लक्ष्मी को सम्मान सहित श्रीमंदिर ले आए और इस तरह पुरी से भेदभाव भी मिटा दिया.
लक्ष्मी के आने श्रीमंदिर का वैभव लौट आया और रत्न भंडार फिर से भर गए. इसी तरह एक बार जगन्नाथ भगवान ने अपने उस भक्त की सहायता रत्न भंडार से की, जो उन्हें मित्र मानता था. एक बार जब वह पुरी आया तो उसे कुछ खाने को नहीं मिला. तब जगन्नाथ भगवान रात में सोने की थाली में उसके लिए भोजन लगाकर ले गए और थाली वहीं छोड़ आए, उधर रत्न भंडार से भगवान के भोग की थाली गायब हुई, तो उसकी खोज शुरू हुई. सैनिकों को ये थाली उसी भक्त के पास मिली जिसे भगवान भोजन खिलाने गए थे. सैनिकों ने उसे चोर समझा और जेल में डाल दिया. वह कहता रह गया कि ये थाली मैंने नहीं चुराई, भगवान ने खुद दी है, लेकिन उसकी बिल्कुल नहीं सुनी गई. रात में जगन्नाथजी राजा के स्वप्न में आए और उसे सारी बात बताकर कहा, कि मेरे भक्त को सम्मान सहित आजाद करो और उसके भरण-पोषण का इंतजाम करो. राजा ने भगवान का आदेश मानकर भक्त को आजाद कर दिया और उन्हें पगड़ी पहनाकर सम्मान सहित राज्य में आश्रय दिया. इस तरह जगन्नाथ मंदिर की कथा और हर किवदंती में रत्न भंडार किरदार की तरह शामिल मिलेगा.
रत्न भंडार के इतिहास की बात करें तो इसकी मौजूदगी मंदिर के निर्माण के समय से ही है. जगन्नाथ मंदिर की कथाओं में दो राजाओं इंद्रद्युम्न और राजा गालु माधव का जिक्र कई बार होता है. कहते हैं कि रत्न भंडार राजा इंद्रद्युम्न का ही शाही खजाना था, जिसे उन्होंने लोक कल्याण के लिए भगवान नीलमाधव पर न्योछावर कर दिया था. तब देवी लक्ष्मी ने उन्हें वरदान दिया था कि वह स्वयं इस क्षेत्र में निवास करेंगी और उनकी कृपा से रत्न भंडार कभी खाली नहीं होगा.
इस भंडार के बारे में और विस्तार से देखें तो रत्न भंडार के दो कक्ष हैं- भीतर भंडार (आंतरिक खजाना) और बाहरी भंडार (बाहरी खजाना). ओडिशा मैग्जीन (राज्य सरकार द्वारा प्रकाशित पत्रिका) के अनुसार, राजा अनंगभीम देव ने भगवान जगन्नाथ के आभूषण तैयार करने के लिए बहुत बड़ी मात्रा में सोना दान किया था. बाहरी खजाने में भगवान जगन्नाथ के सोने से बने मुकुट, सोने के तीन हार (हरिदाकंठी माली) हैं, जिनमें से प्रत्येक का वजन 120 तोला है. रिपोर्ट में भगवान जगन्नाथ और बलभद्र के सोने से बने श्रीभुजा और श्रीपयार का भी उल्लेख किया गया है. इसके मुताबिक आंतरिक खजाने में सोने के 74 आभूषण हैं, जिनमें से प्रत्येक का वजन 100 तोला से अधिक है. सोने, हीरे, मूंगा और मोतियों से बनी प्लेटें हैं. इसके अलावा 140 से ज्यादा चांदी के आभूषण भी खजाने में रखे हुए हैं. भगवान जगन्नाथ की निधि होने के कारण पुरी मंदिर के रत्न भंडार को लेकर भक्तों में भी गहरी आस्था का भाव है. यह रत्न भंडार भगवान जगन्नाथ को चढ़ाए गए बहुमूल्य सोने और हीरे के आभूषणों का घर है.
हर तीन वर्ष में रत्न भंडार को खोलकर उसके अंदर रखे आभूषणों और अन्य जवाहरातों की जांच करने का नियम है. ओडिशा सरकार की अनुमति के बाद ही इसे खोला जा सकता है. लेकिन बीते 46 वर्षों से इस प्रक्रिया का पालन नहीं हो सका था. इसके लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी. आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के आग्रह पर साल 2018 में ओडिशा हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को निरीक्षण के लिए पुरी जगन्नाथ मंदिर का रत्न भंडार खोलने की अनुमति देने का निर्देश दिया था. लेकिन ओडिशा सरकार की ओर से कहा गया कि रत्न भंडार की चाबियां नहीं मिल रहीं. पुरी जगन्नाथ मंदिर का रत्न भंडार लूटने के लिए 15 बार आक्रमण हुआ. पहली बार 1451 में और आखिरी बार 1731 में मोहम्मद तकी खां द्वारा मंदिर पर हमला किया गया था.
Illustration By: Vani Gupta