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ओडिशा के पुरी स्थित जगन्नाथ धाम में रथ यात्रा की रीतियां शुरू हो चुकी हैं. अभी बीती ज्येष्ठ पूर्णिमा को श्रीमंदिर में तीनों देव प्रतिमाओं को स्नान कराया गया. मान्यता है कि 108 घड़े जल से स्नान के बाद भगवान जगन्नाथ बीमार पड़ जाते हैं और फिर 15 दिन के लिए दर्शन नहीं देते हैं. इसे अनासरा विधान कहते हैं. हालांकि बीमार पड़ने की मान्यता एक किवदंती से आती है, वास्तव में इस दौरान प्रतिमाओं को संरक्षित किए जाने के विधान भी होते हैं, इसलिए पुरी का श्रीमंदिर 15 दिन के लिए बंद रहता है. आषाढ़ अमावस्या को मंदिर के पट खुलते हैं और फिर आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीय तिथि को भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा निकलती है, जो कि समूचे विश्व में प्रसिद्ध है. लेकिन, क्या आप जानते हैं कि यह मंदिर निर्माण के बाद सदियों तक रेत में दबा हुआ था. यह कथा भी कई रहस्यों से भरी है.
उत्कल क्षेत्र के राजा इंद्रद्युम्न और उनकी पत्नी रानी गुंडिचा ने बड़े ही परिश्रम से भगवान नीलमाधव के लिए मंदिर बनवाया. हनुमानजी ने इसमें उनकी सहायता की. राजा के भाई विद्यापति नीलमाधव के प्राचीन विग्रह को खोज लाए जो कि एक भील कबीले के पास संरक्षित था. देव शिल्पी विश्वकर्मा बूढ़े शिल्पकार के वेश में आए और उन्होंने सशर्त भगवान जगन्नाथ की प्रतिमाएं तैयार कर दीं. इन प्रतिमाओं में विग्रह समाहित किया गया और फिर इन्हें मंदिर में स्थापित कर दिया गया. अब प्रश्न था, मंदिर और देवप्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा का. प्राण प्रतिष्ठा की रीत के बाद ही मंदिर में पूजन हो सकता था. इस कार्य के लिए योग्य ब्राह्मण कौन होगा, इस पर विचार होने लगा. ये प्रश्न इसलिए भी जरूरी था क्योंकि उसी ब्राह्मण को भविष्य में अनवरत पूजा के लिए रीतियां भी बनानी थीं.
राजपरिवार मंदिर में अभी यह विचार कर ही रहा था कि, तभी वहां देवर्षि नारद प्रकट हुए. वह भगवान के उस मूर्त स्वरूप के दर्शन करने आए थे, जिसे उन्होंने पहले ही वास्तविकता में देख रखा था. यह तब की बात है, जब माता रोहिणी ने अपनी बहुओं को श्रीकृष्ण के बचपन और रासलीला की कहानियां सुनाई थीं. इसे सुनकर श्रीकृष्ण, बलभद्र और सुभद्रा तीनों ही भावविभोर हो गए थे. देवर्षि नारद ने जब मंदिर में स्थापित प्रतिमाओं को देखा तो वह बहुत प्रसन्न हुए. तब उन्होंने राजा से प्राण प्रतिष्ठा को लेकर बात की. राजा ने कहा, हम भी इसी प्रश्न से जूझ रहे थे, लेकिन अब आपको देखा तो इसका भी उत्तर मिल गया. श्रीमंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के लिए आपसे बेहतर पुरोहित कौन होगा? आप नारायण के सबसे प्रिय भक्त हैं, इसलिए उनके स्वरूप की प्राण प्रतिष्ठा आप ही कीजिए.
देवर्षि नारद ने कहा कि, जब पिता मौजूद हों तो पुत्र सबसे अच्छा कैसे हो सकता है. इस विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा तो ब्रह्माजी को ही करनी चाहिए. आप मेरे साथ चलिए और उन्हें आमंत्रण दीजिए, वह जरूर आएंगे. राजा इसके लिए सहर्ष तैयार हो गए और तुरंत बोल पड़े कि, चलिए देवर्षि मैं अभी आपके साथ चलता हूं. जब राजा ने देवर्षि नारद से चलने के लिए कहा तो नारद वहीं ठिठक कर खड़े हो गए, और कहा कि राजन, क्या आपने ठीक से विचार कर लिया है कि आप चलना चाहते हैं? राजा ने कहा- इसमें विचार का प्रश्न कैसा? अब तो श्रीमंदिर की स्थापना का अंतिम पड़ाव है, प्राण प्रतिष्ठा होनी है, फिर मैं संन्यास धारण कर लूंगा.
तब देवर्षि नारद ने कहा कि, संन्यासी तो आप खुद हो जाएंगे, लेकिन ब्रह्मलोक चलने से पहले अपने परिवार से आखिरी बार मिल तो लीजिए. आखिरी बार... ये शब्द सुनकर रानी गुंडिचा असहज हो गईं. राजा भी कुछ समझ नहीं पाए. राजपरिवार परेशान हो गया. तब देवर्षि नारद ने कहा, आप मनुष्य हैं. ब्रह्मलोक जाने और वहां से लौटने में धरती पर बहुत सारा समय बदल चुका होगा. कई शताब्दियां लग जाएंगी. जब आप लौटेंगे तो न आपका राजपरिवार रहेगा और न ही ये राज्य. सगे-संबंधी भी जीवित नहीं रहेंगे. पुरी नीलांचल क्षेत्र में किसी और राजा का शासन रहेगा. आप ब्रह्म देव को लेकर लौटेंगे तो शायद ही आप इस क्षेत्र को पहचान पाएं.
अब राजा के लिए नई परेशानी सामने थी. वह मृत्यु से तो नहीं डरते थे लेकिन उन्हें इस बात की चिंता थी कि श्रीमंदिर की स्थापना नहीं हुई और जब तक ब्रह्मदेव को लेकर लौटे तबतक ये न जाने किस हाल में हो. देवर्षि नारद ने उनकी इस चिंता को भांपते हुए कहा कि, आप ब्रह्मलोक चलने से पहले राज्य में 100 कुएं, जलाशय और यात्रियों के लिए सराय बनवा दें. इसके साथ ही 100 यज्ञ करवाकर पुरी के इस क्षेत्र को पवित्र मंत्रों से बांध दें. इससे राज्य में कीर्ति रहेगी और पुरी क्षेत्र सुरक्षित रहेगा. राजा ने ये सारे कार्य करवा लिए और फिर चलने के लिए तैयार हो गए. तब रानी गुंडिचा ने कहा कि, जब तक आप लौटकर नहीं आते मैं प्राणायाम के जरिए समाधि में रहूंगी और तप करूंगी. विद्यापति और ललिता ने कहा कि हम रानी की सेवा करते रहेंगे. राजा ने विद्यापति से राज्य भी संभालने के लिए कहा, लेकिन उन्होंने राजगद्दी पर बैठने से इनकार कर दिया और कहा कि मैं रानी मां की सेवा करते हुए ही राज्य का संरक्षण करता रहूंगा.
ये सारे प्रबंध करने के बाद राजा देवर्षि नारद के साथ ब्रह्मलोक पहुंचे और ब्रह्माजी से श्रीमंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के लिए आग्रह किया. ब्रह्मदेव ने राजा की बात मान ली और उनके साथ उत्कल के श्रीक्षेत्र पहुंचे. जब वे सभी वापस धरती पर लौटे तो तब तक कई सदियां बीत चुकी थीं. अब पुरी में किसी और का शासन था. राजा के सभी परिजनों की मृत्यु हो चुकी थी, बल्कि उनके सभी संबंधियों की पीढ़ियों में कोई नहीं बचा था. इस दौरान श्रीमंदिर भी समय की परतों के साथ रेत के नीचे दब गया था और सदियों तक रेत में ही रहा था.
जब राजा ब्रह्मलोक को गए थे, तब इसी दौरान पुरी में एक और राजा हुआ गालु माधव. एक दिन समुद्री तूफान आया और इसके कारण सागर किनारे बने श्रीमंदिर का शिखर रेत से बाहर निकल आया. राजा गालु माधव ने खुदाई कराना शुरू किया तो उन्हें रेत के नीचे दबा हुआ मंदिर मिल गया. राजा ने उसपर खुद का अधिकार समझा और मंदिर स्थापना की तैयारी करने लगे. इसी दौरान राजा इंद्रद्युम्न ब्रह्म देव को लेकर आ गए. वह जब मंदिर के द्वार से प्रवेश करने लगे तो नए राजा के पहरेदारों ने उन्हें रोक दिया और परिचय पूछा. इंद्रद्युम्न ने अपना परिचय पुरी के राजा के रूप में दिया और साथ ही मंदिर निर्माण की बात भी कही. यह सुनकर नए राजा के सेनापति आगबबूला हो गए. उन्होंने समझा कि कोई उनके राजा को चुनौती दे रहा है तो इसलिए उन्होंने पूर्व राजा को बंदी बना लिया और दरबार में पेश किया.
राजा गालु माधव ने उनसे कहा कि, पुरी क्षेत्र का राजा मैं हूं और इस मंदिर को मैंने बनवाया है, आप इस पर अपना दावा कैसे कर रहे हैं. तब राजा ने कहा कि आपने इस भूमिगत मंदिर को बाहर निकलवाया है, यह कार्य भी मंदिर बनवाने से कम नहीं, लेकिन सदियों पहले इसका निर्माण मैंने नीलमाधव की आज्ञा और हनुमान जी की सहायता से करवाया था. फिर राजन ने पहले की घटी सभी घटनाओं और ब्रह्माजी के साथ आने की बात भी बताई. राजा गालु माधव भी कृ्ष्णभक्त थे, लेकिन अभी भी इंद्रद्युम्न की बात पर भरोसा नहीं कर पा रहे थे, तब हनुमान जी खुद एक संत के वेश में आए. उन्होंने राजा गालु माधव से कहा कि अगर ये राजा सत्य बोल रहे हैं तो इन्हें मंदिर के गर्भगृह का द्वार खोजने के लिए कहो. गालुमाधव ने ऐसा ही किया और राजा इंद्रद्युम्न जिन्होंने इस मंदिर को बनवाया ही था, उन्होंने सहजता से रेत में दबे मंदिर के गर्भगृह का मार्ग खोज लिया जो कि गालुमाधव के सैनिक और कारीगर अभी तक नहीं कर पाए थे. मंदिर का गर्भगृह सामने आते ही चारों ओर नील माधव का नीला प्रकाश फैल गया और मंदिर अपनी पूर्णता के साथ सामने आ गया.
इधर, रानी गुंडिचा को भी अपने पति के लौट आने का अहसास हुआ तो वह समाधि से उठीं. जब उन्होंने आंखें खोलीं तो सामने एक युवा दंपति हाथ जोड़े खड़ा था. रानी ने उनका परिचय पूछते हुए कहा कि क्या तुम विद्यापति और ललिता के बेटे-बहू हो? तब सामने खड़े दंपति ने कहा कि नहीं, वे तो हमारे बहुत पुराने पूर्वज थे, हम कई पीढ़ियों से आपको माई मानकर पूजते आ रहे हैं, यह हमारे कुल की बहुत पुरानी परंपरा है. आप हमारे लिए देवी हैं और हम ये मानते हैं कि आपकी ही वजह से पुरी क्षेत्र में कभी कोई आपदा नहीं आई. तब रानी गुंडिचा ने कहा, नहीं पुत्रो मैं कोई देवी नहीं हूं, लेकिन तुम्हारी पूर्वज जरूर हूं. तुम मुझे सागर तट पर श्रीमंदिर ले चलो. तब उस नौजवान ने रानी गुंडिचा को रेत से दबे मंदिर के मिलने की जानकारी दी और उन्हें वहां ले गए. एक बार फिर राजा इंद्रद्युम्न और रानी का मिलन हुआ. रानी की बात सुनकर राजा गालु माधव को भी सभी बातों पर भरोसा हो गया. इसके अलावा उन्हें राजा के बनवाए 100 कुएं जलाशय और सराय के भी अवशेष मिले, जिससे उन्हें राजा की कीर्ति का भान हुआ. गालु माधव ने खुद को राजा की शरण में सौंप दिया और उनसे कृष्ण भक्ति पाने की प्रार्थना की.
अब सारी बातें सामने आने के बाद मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा ही बाकी रह गई थी. ब्रह्मदेव ने एक यज्ञ कराकर रानी गुंडिचा और राजा इंद्रद्युम्न के हाथों जगन्नाथ भगवान की प्राण प्रतिष्ठा कराई. प्रतिष्ठा होते ही भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और भाई बलभद्र के साथ प्रकट हो गए. उन्होंने राजा को आशीष देकर उससे मनचाहे वर मांगने को कहा. राजा ने मांगा कि जिन सैनिकों-श्रमिकों ने मंदिर के निर्माण और इसे फिर से रेत से निकाल लेने में श्रम किया, उन सभी पर अपनी कृपा बनाए रखना.
जगन्नाथ भगवान ने कहा और मांगो. तब राजा ने कहा, जब भी जगन्नाथजी की कथा कही-सुनी जाए तो आपके परम भक्त विश्ववसु, मेरे भाई विद्यापति और उसकी पत्नी ललिता का नाम जरूर लिया जाए. भगवान ने कहा- और मांगो, तब राजा ने कहा- इस कार्य के लिए मेरा साथ देते हुए रानी गुंडिचा ने अपने मातृत्व सुख को भी त्याग दिया, उसे भी अपने चरणों में विशेष स्थान दीजिएगा. तब भगवान ने कहा और मांगो- राजा ने कहा- आपके इस मंदिर में दर्शन करने वाले सभी श्रद्धालुओं को धर्म पथ पर चलने का आशीर्वाद दीजिए. भगवान ने कहा- और मांगो राजन. तब राजन ने कहा कि और क्या मांगूं? बलभद्र ने कहा, तुमने जो कुछ मांगा है, वह दूसरों के लिए मांगा है, क्या तुम्हें खुद के लिए कुछ नहीं चाहिए. राजन ने कहा, आप तीनों के साक्षात दर्शन के बाद मेरी कोई लालसा नहीं बची.
तब भगवान मुस्कुराए और बोले. राजन, तुम्हारी इच्छानुसार सभी सेवकों-श्रमिकों पर मेरी कृपा रहेगी. उनकी पीढ़ियां ही मंदिर के अलग-अलग कार्यों में सेवा देंगी. विश्ववसु, ललिता और विद्यापति के वंशज ही मुख्य पुजारी होंगे. मंदिर से जुडे़ कई विधान इन्हीं के द्वारा संपन्न होंगे. बता दें कि जगन्नाथ मंदिर में रथ के अलावा नई प्रतिमाओं का निर्माण भी तब से चले आ रहे कर्मकारों के वंशज ही कर रहे हैं. नबाकलेबरा विधान में भगवान की प्रतिमाएं बदल दी जाती हैं.
इसके बाद भगवान रानी गुंडिचा की ओर मुड़े और कहा, आपने तो मां की तरह मेरी प्रतीक्षा की है, आप मेरी माता के जैसी हैं मौसी गुंडिचा. मैं वर्ष में एक बार आपसे मिलने जरूर आऊंगा. जिस स्थान पर आपने तपस्या की थी, वह स्थान अब मेरी मौसी गुंडिचा का मंदिर होगा. इसे देवी पीठ के तौर मान्यता मिलेगी. हम तीनों भाई-बहन आपके पास आया करेंगे और संसार इसे रथ यात्रा के तौर पर जानेगा. इसके साथ ही पुरी के हर राजा को रथयात्रा मार्ग को स्वर्ण झाड़ से बुहारने का सौभाग्य मिलेगा. रथ यात्रा के मार्ग को बुहारने की प्रथा 'छेरा पहरा' कहलाती है. इस तरह भगवान ने राजन, रानी गुंडिचा, विद्यापति और ललिता, विश्ववसु और पुरी के वर्तमान राजा गालु माधव के साथ सभी दर्शन करने वाले श्रद्धालुओं को वरदान दे दिया. इसीके बाद से जगन्नाथ पुरी भगवान का घर और धरती पर नारायण का वैकुंठ बन गया.
पुरी के श्रीमंदिर में विद्यापति और ललिता और विश्ववसु के वंशज ही पूजा करते आ रहे हैं. इन्हें दइतापति भी कहते हैं. इसके अलावा अन्य सेवा कार्यों में भी श्रमिकों-कारीगरों के वंशज ही शामिल हैं. ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन भगवान का प्राकट्य हुआ था, इसे उनके जन्म के तौर पर देखा जाता है और फिर 15 दिन के विश्राम के बाद उन्हें गर्भगृह से बाहर लाकर सभी को दर्शन कराए जाते हैं और रथयात्रा निकाली जाती है. यही परंपरा आज भी जारी है.
पहला पार्टः न भुजाएं-न चरण, बड़ी-बड़ी आंखें...पुरी के जगन्नाथ मंदिर में ईश्वर का स्वरूप ऐसा क्यों है!
दूसरा पार्टः बनते-बनते नष्ट हो जाता था श्रीमंदिर, आखिर पुरी में कैसे स्थापित हुआ जगन्नाथ धाम
तीसरा पार्टः जगन्नाथ मंदिर से पहले कबीले में होती थी भगवान नीलमाधव की पूजा... जानें ये रहस्य
चौथा पार्टः ...वो शर्त जिसके टूटने से अधूरी रह गईं जगन्नाथजी की मूर्तियां
Illustration By: Vani Gupta