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न शिवजी चख सके, न ब्रह्मा...जगन्नाथ धाम में कैसे बनना शुरू हुआ महाभोग

भारत के पूर्वी राज्य ओडिशा में स्थित जगन्नाथ धाम अलौकिक है. पुरी क्षेत्र में इस तीर्थ के होने के कारण इसे पुरुषोत्तम क्षेत्र कहते हैं तो वहीं भगवान 'नीलमाधव' के नील विग्रह के कारण ही यह क्षेत्र नीलांचल कहलाता है. जगन्नाथ भगवान जहां अपने भाई-बहन के साथ निवास करते हैं, इसलिए यह उनका धरती पर वैकुंठ तो है ही, इसके अलावा उनके मंदिर में लक्ष्मी का विशेष रूप से निवास होने के कारण ही इसे श्रीमंदिर भी कहा जाता है. देवी लक्ष्मी की इच्छा के अनुसार यहां भगवान पूरी तरह से गृहस्थ और पारिवारिक माहौल के साथ रहते हैं, जहां पति-पत्नी, जेठ (बलभद्र) ननद (सुभद्रा), सेवक (सुदर्शन और शेष), कुलदेवी (देवी पार्वती का स्वरूप माता बिमला) और पुत्र (गणेशजी का संपूर्णानंद स्वरूप, इस रूप में वह देवी पार्वती नहीं, बल्कि देवी लक्ष्मी के पुत्र हैं.) सभी निवास करते हैं. इस तरह यह एक सम्मिलित परिवार जैसी रूपरेखा है.

देवी लक्ष्मी ही श्रीक्षेत्र की स्वामिनी हैं और सभी प्रकार के भंडार गृह की मालकिन भी हैं. इन भंडार गृहों में आते हैं वस्त्र भंडार, धन भंडार, रत्न और श्रृंगार भंडार, ईंधन भंडार, शैया भंडार और अन्न भंडार. सबसे खास तो अन्न भंडार ही है, यह कभी भी खाली नहीं होता और इसके ही प्रयोग से महाप्रभु जगन्नाथ का 'महाप्रसाद' बनता है. यह महाप्रसाद इतना दिव्य है कि इसके लिए देवता भी तरसते रहे हैं, बल्कि पहले तो यह उनमें से किसी को भी हासिल नहीं था. कहते हैं कि शिवजी और ब्रह्माजी कई वर्षों तक पुरी धाम आते रहे, लेकिन जगन्नाथजी के भोजन का महाप्रसाद-महाभोग उन्हें कभी नहीं मिल सका था. हालांकि आज यह महाभोग, श्रीमंदिर में दर्शन करने जाने वाले सभी श्रद्धालुओं के लिए सुलभ है, लेकिन यह भी आसानी से नहीं हुआ है, इसके पीछे देवर्षि नारद की 12 वर्षों की अथक मेहनत शामिल है. 

यह उन्होंने कैसे किया और क्यों महाभोग सबके लिए सुलभ नहीं था, इसके पीछे की एक किवदंती जगन्नाथ पुरी में बहुत प्रसिद्ध है. एक दिन देवी लक्ष्मी और नारायण आपस में बातचीत कर रहे थे. देवी लक्ष्मी उनके हर अवतारों की चर्चा कर रही थीं और साथ में उनकी अपनी भूमिका पर भी बात कर रही थीं. इसी दौरान उन्होंने त्रेतायुग के राम अवतार और उस दौरान वनवास के दिनों को भी याद किया. लक्ष्मीजी ने कहा कि भले ही संसार की नजरों में वनवास कितना भी कष्टकारी रहा हो, लेकिन वह दिन भी कितने सुख भरे थे. मैं आपके लिए भोजन बनाती थी और आप भी प्रेम से खाते थे. वैसे कई बार सोचती हूं कि उस दौरान मानवी रूप में भी लक्ष्मी कितनी विवश थी? अपने हाथों से स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर आपको कभी नहीं खिला सकी.

तब विष्णुजी ने कहा, ऐसा क्यों कह रही हैं आप? रामअवतार में न सही, लेकिन कृष्ण अवतार में तो हम दोनों राजपरिवार में ही थे, तब तो आपने ये इच्छा पूरी कर ली होगी? ये सुनकर लक्ष्मीजी ने कहा, ऐसे मौके भी कभी-कभी ही आए. सत्यभामा और जांबवंती में आपके लिए ऐसी होड़ लगती थी, रसोई तो क्या, कहीं भी मेरे कुछ करने के लिए बाकी नहीं होता था. तब विष्णुजी ने कहा- ठीक है, अगर आपकी ऐसी इच्छा है तो जैसे धरती पर महादेव कैलाश पर निवास करते हैं और पार्वती उनके लिए भोजन बनाती हैं, तो उसी तरह हम दोनों जगन्नाथ पुरी में निवास करेंगे. वहां आपको पारिवारिक माहौल भी मिलेगा और आप मुझे अपनी इच्छा से भोजन पकाकर खिला भी सकेंगी. विष्णुजी की यह बात सुनकर, देवी लक्ष्मी बहुत खुश हुईं, लेकिन भगवान विष्णु ने इसमें एक शर्त भी जोड़ दी कि महाभोग सिर्फ और सिर्फ मेरे लिए ही रहेगा, आप इसे किसी को भी नहीं देंगी. लक्ष्मी ने उनकी ये बात मान ली. इस तरह पुरी के मंदिर में महाभोग बनने लगा.

एक दिन, महादेव शिव और ब्रह्मदेव महाभोग की लालसा में पुरी पहुंचे. देवी लक्ष्मी ने उनका स्वागत फल और मिठाइयों से किया, लेकिन महाभोग नहीं दिया. ब्रह्माजी ने देवी लक्ष्मी से कहकर ये प्रसाद मांगा, तो उन्होंने साफ मना कर दिया और कहा कि नारायण ने शर्त रखकर वचन लिया है. महाभोग सिर्फ उनके लिए है. ऐसे में शिवजी और ब्रह्माजी निराश होकर लौट आए. इस तरह कई वर्ष गुजर गए, महाभोग सिर्फ भगवान विष्णु के लिए बनता रहा और सभी लोग उसे पाने की लालसा करते रहे. 

...लेकिन एक दिन ऐसा भी मौका आ गया, जिससे सभी को महाभोग पाने का सुख मिला. हुआ यूं कि एक बार देवर्षि नारद कहीं जा रहे थे. उनके कानों में हरिकीर्तन की आवाज पड़ी तो वह उस दिशा में चले गए. वहां जाकर देखा तो एक हरिभक्त इकतारा बजाते हुए प्रभु कीर्तन कर रहा है. कुछ अन्य लोग भी वहां मौजूद थे. देवर्षि नारद भी कीर्तन में शामिल हो गए. कीर्तन समाप्त होने के बाद उस भगत ने सभी को प्रसाद दिया. देवर्षि नारद को भी थोड़ा प्रसाद मिला, लेकिन जो भी मिला उन्होंने उसे सहर्ष स्वीकार किया और ग्रहण किया.

प्रसाद इतना अलौकिक था कि उस थोड़े में ही नारद मुनि को तृप्ति हो गई और वह उसका गुणगान करने लगे. तब उस भगत ने कहा कि, ये तो नारायण के चरणों का बहुत सामान्य प्रसाद है, अगर आपने जगन्नाथ में महाप्रभु का महाभोग चख लिया तब तो सबकुछ भूल ही जाएंगे. ये सुनकर देवर्षि नारद चौंके और बोले- महाभोग?? ये क्या होता है?  मुझे तो इस बारे में कोई जानकारी ही नहीं है. भगत ने उनकी उत्सुकता देखकर सारी बात बताई और यह भी कहा कि यह महाप्रसाद नारायण के बड़े से बड़े भक्तों को भी नहीं मिला, बल्कि ब्रह्मदेव और शिवजी भी इसे अभी तक नहीं चख सके. अब नारद मुनि को थोड़ा सा अभिमान हुआ कि, मैं तो नारायण का सबसे परम भक्त हूं, मुझे तो तुरंत ही ये प्रसाद मिल जाएगा. ऐसा सोचकर वह वहां से चले गए. असल में यह भगत कोई और नहीं, शिवजी का ही एक गण था, जिसने उनके आदेश पर ही यह सब किया था.

भगत से महाभोग की बात सुनकर देवर्षि नारद तुरंत ही नीलांचल के जगन्नाथ धाम पहुंचे. वहां वह देखते हैं कि खुद देवी लक्ष्मी प्रभु का प्रसाद बना रही हैं. यह देख नारद मुनि बहुत चकित हुए. उन्हें देखकर लक्ष्मीजी ने उनसे उनके आने की वजह पूछी तो उन्होंने कहा कि वह तो सिर्फ नारायण के दर्शन करने आए हैं. लक्ष्मीजी ने कहा, चलिए, उनका ही भोजन लेकर चल रही हूं, आप भी दर्शन कर लीजिएगा. नारद मुनि जो महाभोग पाने की लालसा में ही जगन्नाथ पुरी पहुंचे थे, वह तुरंत ही देवी लक्ष्मी के पीछे चल पड़े. भोजनकक्ष में जबतक नारायण भोजन करते रहे, नारद मुनि उन्हें देखते रहे. फिर जब प्रभु ने खा लिया और वहां से चले गए, तब देवर्षि देवी लक्ष्मी से उसका प्रसाद मांगने पहुंचे, लेकिन लक्ष्मीजी ने मना कर दिया. नारद मुनि उस दिन तो निराश होकर लौट आए, लेकिन अगले दिन फिर पहुंच गए और इस बार छुपकर भगवान के भोजन कर लेने का इंतजार करते रहे.

जब भगवान ने भोजन कर लिया तो नारद मुनि ने चुपके से थाली से एक कटोरी उठा ली, जिसमें थोड़ा खिचड़ी भात रह गया था. जैसे ही नारद मुनि ने उससे भात निकालना चाहा तो वह असफल रहे. कटोरी से एक भी दाना नहीं उठा. हारकर वह देवी लक्ष्मी को कटोरी वापस करने पहुंचे और इसका कारण पूछा, तो उन्होंने कहा, प्रभु के आदेश और मेरे वचन के कारण कोई अन्य इस महाभोग को चख भी नहीं सकता है. ऐसा कहते हुए, लक्ष्मी जी ने बची हुई खिचड़ी भात निकालकर चिड़ियों को चुगा दिया. नारद मुनि बहुत निराश हुए. उस दिन तो वह वापस लौट आए, लेकिन एक दिन वह फिर से माता लक्ष्मी की सेवा में प्रकट हुए और कहा कि मां, आप प्रभु के लिए इतना काम करती हैं, अकेले भोज तैयार करती हैं, वन से फूल लेकर आती हैं, मुझे भी सेवा करने का मौका दें. देवी लक्ष्मी उनकी असली मंशा जानती थीं, फिर भी नारद मुनि की बहुत विनती करने पर उन्हें वन से ईंधन लाने का काम सौंप दिया, लेकिन नारद मुनि ने कहा कि, ईंधन तो मैं ले आऊंगा लेकिन भोज बनाने में भी तो आपको सहायता चाहिए होगी. तब लक्ष्मी जी ने कहा, भोज तो मैं बहुत आसानी से बना लेती हूं.

मैं मिट्टी के नौ पात्रों में अलग-अलग भोजन सामग्री रखकर उन्हें एक के ऊपर एक इस तरह ढक कर चूल्हे पर चढ़ा देती हूं. बस मुझे और कुछ नहीं करना होता है. सबसे पहले ऊपर के पात्र का भोज पकता है और फिर एक-एक करके नीचे के सभी पात्र में भी भोजन बन जाता है. माता लक्ष्मी ने ऐसा कहकर करते हुए भी दिखाया. नारद मुनि ने ये देखा तो देखते ही रह गए. उन्हें अभी तक महाभोग चखने को भी नहीं मिला था और इस रहस्य को देखकर तो वह चकरा ही गए. 

कहते हैं कि पुरी धाम में आज भी माता लक्ष्मी की ही कृपा से महाभोग तैयार होता है. इसकी विधि भी ऐसी ही है, जैसे माता लक्ष्मी ने बताई थी. प्रतिदिन जगन्नाथ महाप्रभु को 56 भोग लगाया जाता है और फिर दर्शन करने आए श्रद्धालुओं में ये प्रसाद बांटा जाता है. लेकिन, सवाल ये है कि क्या नारद मुनि को ये महाभोग मिल पाया? जब महाभोग किसी को नहीं मिल सकता है तो फिर आज ये श्रद्धालुओं को कैसे मिल जाता है?? कल पढ़िए... जगन्नाथ महाप्रभु के महाभोग की दिव्य कथा अगले भाग में...

पहला पार्टः न भुजाएं-न चरण, बड़ी-बड़ी आंखें...पुरी के जगन्नाथ मंदिर में ईश्वर का स्वरूप ऐसा क्यों है!

दूसरा पार्टः बनते-बनते नष्ट हो जाता था श्रीमंदिर, आखिर पुरी में कैसे स्थापित हुआ जगन्नाथ धाम

तीसरा पार्टः जगन्नाथ मंदिर से पहले कबीले में होती थी भगवान नीलमाधव की पूजा... जानें ये रहस्य

चौथा पार्टः ...वो शर्त जिसके टूटने से अधूरी रह गईं जगन्नाथजी की मूर्तियां

पांचवां पार्टः बनने के बाद सदियों तक रेत में दबा रहा था जगन्नाथ मंदिर, फिर कैसे शुरू हुई रथयात्रा

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Credits

Illustration By: Vani Gupta