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कहां से आती हैं लकड़ियां और कौन हैं बनाने वाले... जानिए रथ निर्माण से जुड़ी ये जरूरी बातें

पुरी के ओडिशा धाम में आज रविवार को जगन्नाथ यात्रा निकल रही है. सदियों से चली आ रही यह परंपरा भारत की लोक संस्कृति की धरोहर है तो वहीं यह रथयात्रा वेदों से निकले सूत्र वाक्य 'लोकाः समस्ता सुखिनो भवन्तु' यानि कि संसार में सभी सुखी रहें, इसे स्थापित भी करती है. रथयात्रा की इस भीड़ में न कोई जाति रह जाती है, न ही धन-पद और मान. सिर्फ महाप्रभु होते हैं और उनका रथ खींच रहे श्रद्धालु. रथयात्रा के दौरान हर व्यक्ति हर आदमी का परिचय सिर्फ इतना ही रह जाता है वह जगन्नाथजी की शरण में आया है. किसी का पद और कद कोई मायने नहीं रखता. ये बात तब और अधिक साफ हो जाती है जब खुद पुरी के राजा लोगों की भीड़ के बीच बिना किसी छत्र-चंवर के पैदल आते हैं और श्रीमंदिर से लेकर रथयात्रा के मार्ग पर झाड़ू लगाते हैं. राजा द्वारा झाड़ू लगाने की इस परंपरा को रथयात्रा में 'छेरा फहरा' कहते हैं.

जगन्नाथ धाम के बनने, रथयात्रा के होने और महाप्रभु के अवतार की कथा जितनी रोचक है, उससे भी अधिक है रथ निर्माण की पूरी विधि और प्रक्रिया. संसार की नजर में भले ही रथयात्रा एक दिन का उत्सव है जो आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को मनाया जाता है, लेकिन असल में ऐसा है नहीं. रथयात्रा पुरी का वार्षिक त्योहार है और वर्ष में एक बार होने वाले इस उत्सव की तैयारी पूरे साल चलती रहती है. इसमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण वसंत पंचमी का दिन होता है, जिस दिन से रथ बनना शुरू होता है. तब से लेकर रथयात्रा निकलने तक लगभग छह महीने हो जाते हैं. बाकी के छह महीने भी हर रथयात्रा से ही जुड़ा कुछ न कुछ होता ही रहता है.

यात्रा के लिए रथों के निर्माण की प्रक्रिया सबसे खास है. पहले ये जान लीजिए कि भगवान जगन्नाथ, देवी सुभद्रा और भगवान बलभद्र तीनों के लिए अलग-अलग रथ होते हैं. हर रथ की ऊंचाई, लंबाई चौड़ाई और रंग अलग होता है. इसके अलावा तीनों रथों के नाम भी अलग-अलग होते हैं. इन रथों के निर्माण में काष्ठ की संख्या, पहियों की संख्या भी अलग-अलग होती है.

नंदीघोष है जगन्नाथजी के रथ का नाम

भगवान जगन्नाथ जी के रथ का नाम नंदीघोष है. इसे बनाने में कारीगर लकड़ी के 832 टुकड़ों का प्रयोग करते हैं. 16 चक्कों पर खड़े इस रथ की ऊंचाई 45 फीट होती है तो वहीं इसकी लंबाई 34 फीट होती है. रथ के सारथी का नाम दारुक, रक्षक गरुण, रथ की रस्सी शंखचूर्ण नागुनी और रथ पर त्रैलोक्य मोहिनी पताका फहराती है. इस रथ को जो चार घोड़े खींचते हैं, उनके नाम शंख, बहालक, सुवेत और हरिदश्व हैं. जगन्नाथ जी के रथ पर नौ देवता भी सवार होते हैं. इनमें वराह, गोवर्धन, कृष्णा, गोपीकृष्णा, नृसिंह, राम, नारायण, त्रिविक्रम, हनुमान और रुद्र शामिल होते हैं. जगन्नाथ जी के रथ को गरुणध्वज और कपिध्वज भी कहा जाता है.

दर्पदलन में बैठती हैं देवी सुभद्रा

बहन सुभद्रा जी के रथ का नाम देवदलन रथ है. इसे दर्पदलन भी कहते हैं. इसमें कुल काष्ठ खंडों की संख्या 593 होती है और 12 चक्कों पर खड़ा यह रथ महज 31 फीट लंबा 43 फीट ऊंचा होता है. खुद अर्जुन ही इस रथ के सारथी हैं और रथ की रक्षिका जयदुर्गा देवी हैं. रथ में लगे रस्से का नाम स्वर्णचूड़ नागुनी है और इस रथ की पताका नदंबिका कहलाती है. देवी सुभद्रा के रथ को जो चार घोड़े खींचते हैं उनके नाम रुचिका, मोचिका, जीत और अपराजिता हैं.

तालध्वज कहलाता है बलभद्र जी का रथ

बलभद्र जी का रथ तालध्वज कहलाता है जो कि सबसे अधिक काष्ठ खंडों 763 टुकड़ों से बनता है. इसमें कुल चक्के 14 होते हैं और इसकी ऊंचाई, 44 फीट होती है. रथ की लंबाई 33 फ़ीट है. इसके सारथि का नाम मातली, रक्षक का नाम वासुदेव, रस्से का नाम वासुकि नाग, पताका उन्नानी कहलाती है. रथ में चार घोड़े हैं जिनके नाम तीव्र, घोर, दीर्घाश्रम, स्वर्ण नाभ हैं.

बसंत पंचमी से शुरू होता है रथ निर्माण

भगवान के रथ निर्माण के विधान बसंत पंचमी से ही शुरू हो जाते हैं. इसमें लकड़ी की खोज, उनकी कटाई से लेकर उन्हें रथ निर्माण शाला में रखे जाने तक सभी कार्य एक अनुष्ठान की तरह होता है. रथ निर्माण के कारीगरों और कलाकारों की भी एक तय व्यवस्था है, जिसमें हर कारीगर को उसका काम बांटा गया है. काम बंटे होने के साथ ही उस कारीगर का नाम भी तय होता है, जिसे उसकी उपाधि दी जाती है. इनमें सबसे पहले महाराणा आते हैं. महाराणा लोगों का कार्य लकड़ी को खोजकर, उन्हें लाकर रथशाला में रखना होता है. इसके बाद आते हैं, गुणकार. गुणकार लोगों का काम रथ के आकार के मुताबिक लकड़ियों का आकार तय करना होता है. फिर उन्हें उसी आकार और लंबाई-चौड़ाई में काटा जाता है.

पहि महाराणा बनाते हैं पहिए

गुणकार के बाद अगले हैं पहि महाराणा. यह कारीगर रथ के पहियों से जुड़ा काम देखते हैं. इससे अगले दर्जे पर होते हैं, कमर कंट नायक, जिनकी जिम्मेदारी होती है कि वह रथ के लिए कीलें, एंगल, अकुड़े तैयार करें और उन्हें जरूरी जगहों पर सेट करके लगा दें. चौथे स्थान पर चंदाकार लोग या कारीगर आते हैं. यह रथ में बनने वाली अलग-अलग आकृतियां, अल्पनाएं, कंगूरे वगैरह उकेरते हैं. बेल-बूटे बनाने का काम भी इन कारीगरों का होता है.

रथ निर्माण में कितने कारीगर?

चंदाकार लोगों को रथों के अलग-अलग बन रहे हिस्सों को आपस में जोड़ने और सजाने का काम सौंपा गया है. अगले स्थान पर आने वाले रूपकार और मूर्तिकार लोग रथ में लगने वाली लकड़ियों को काटते हैं और उन्हें तराशने का काम करते हैं. चित्रकारों के हिस्से रथ पर रंग-रोगन और चित्रकारी का काम होता है. फिर अगले दर्जे पर सुचिकार या दरजी सेवक रथ की सजावट के लिए कपड़े सिलते हैं. सबसे आखिरी में आते हैं रथ भोई जो कि प्रमुख कारीगरों के सहायक और मजदूर होते हैं. बिना इनके रथ निर्माण की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. यह हर कारीगरों के लिए सहायता करते हैं. खास बात है कि पुरी में रथ का निर्माण करने वाले सदियों से एक ही पीढ़ी के लोग हैं और इन्हें इस काम की जानकारी वंशानुगत है.

जंगल से लकड़ी खोजकर लाने का भी है खास विधान

पुरी में रथनिर्माण का का उत्सव बसंत पंचमी से ही शुरू हो जाता है. इस दिन रथखला जिसे रथ निर्माण शाला कहते हैं, उसकी पूजा होती है और एक दल पेड़ों को चुनने के लिए निकल जाता है. यह दल महाराणा कहलाता है. पेड़ों का चुना जाना और उन्हें काटकर लाने की भी प्रक्रिया में बहुत संजीदगी बरती जाती है. पुरी के पास स्थित जिले दसपल्ला के जंगलों से ही पेड़ चुने जाते हैं. इसके लिए नारियल और नीम के पेड़ ही काटकर लाए जाते हैं. नारियल के तने लंबे होते हैं. इनकी लकड़ी हल्की होती है, लेकिन इससे पहले यहां एक वनदेवी की पूजा होती है. उस जंगल के गांव की देवी की अनुमति के बाद ही लकड़ियां लाई जाती हैं. पहला पेड़ काटने के बाद पूजा होती है. फिर गांव के मंदिर में पूजा के बाद ही लकड़ियां पुरी लाई जाती हैं. 

अक्षय तृतीया भी है अहम तिथि

रथ निर्माण में सबसे अहम तिथि अक्षय तृतीया होती है. महाराणा लोग अक्षय तृतीया से पहले पवित्र लकड़ियों को मंदिर के रथखला भवन में पहुंचा देते हैं. अक्षय तृतीया वाले दिन मंदिर में विशेष पूजा होती है और इसी दिन रथखला में रथ निर्माण का कार्य शुरू किया जाता है. सभी कारीगर जुटते हैं, औजार और लकड़ी की पूजा करते हुए उन्हें हल्दी-चंदन के लेप से पूजन कर निर्माण की तैयारी शुरू करते हैं. इसके बाद ही रथ बनाने के लिए लकड़ियों का काटना-चीरना आदि शुरू होता है.

रथों की सजावट भी है विशेष

तीनों रथों को निर्धारित तरीके से सजाया जाता है. हर एक रथ के चारों तरफ नौ पार्श्व देवताओं की मूर्ति बनाई जाती है. सभी रथों पर बहुत सुंदर चित्रकारी का इस्तेमाल करके अलग-अलग देवी-देवताओं के बेहद सुंदर चित्र बनाए जाते हैं. तीनों रथों पर एक सारथी और चार घोड़े बने होते हैं. तीनों रथों को सुंदर तरीके से सजाने के बाद इन्हें जगन्नाथ मंदिर के पूर्वी द्वार जिसे सिंहद्वार भी कहा जाता है, उसके सामने खड़ा कर दिया जाता है. रथ निर्माण प्रक्रिया में पवित्रता का भी ध्यान रखना होता है. रथ यात्रा के दौरान आए चढ़ावे को मंदिर के अधिकारी इन्हीं कारीगरों के बीच बांट देते हैं, जो लोग पीढ़ियों से इन रथों का निर्माण करते आ रहे हैं. रथ यात्रा के बाद रथों की लकड़ियां अलग-अलग कर दी जाती हैं, उनका धार्मिक महत्व होने के कारण श्रद्धालु उन्हें मंदिर से ले सकते हैं. रथों के पहिए संभाल कर रखे जाते हैं.

नबा कलेबरा विधान क्या है

रथ निर्माण के अलावा पुरी में जो सबसे अहम और रहस्यमयी विधान है, वह नबा कलेबरा यानी कि नवकलेवर विधान. नवकलेवर विधान उस अनुष्ठान का प्रतीक है, जब श्रीमंदिर में स्थापित तीनों देव प्रतिमाएं नया स्वरूप लेती हैं. सही मायने में कहें तो इस विधान में एक खास समय के दौरान देव प्रतिमाएं बदल दी जाती हैं. पुरानी प्रतिमाओं के स्थान पर नई प्रतिमाएं स्थापित की जाती है. परम्परा के अनुसार नवकलेवर विधान तब किया जाता है जब आषाढ़ मास में अधिकमास होता है.  यह विधान 8 साल बाद, 11 वर्ष बाद या 19 साल बाद किया जाता है. प्रतिमाओं का निर्माण एक विशेष प्रकार के नीम के पेड़ों से किया जाता है. इसे ब्रह्म दारु कहते हैं. सभी मूर्तियों के लिए वृक्ष की तलाश के साथ यह नबा कलेबरा उत्सव शुरू होता है. जंगल में जब यह खास ब्रह्म दारु मिल जाता है तब उसकी जानकारी मंदिर को दी जाती है. भगवान जगन्नाथ क लिए चार शाखाओं, बलभद्र के लिए सात शाखाओं, सुभद्रा के लिए पांच तथा सुदर्शन के लिए तीन शाखाओं के वृक्ष की तलाश की जाती है. चैत्र मास से ही इस उत्सव की तैयारियां शुरू हो जाती हैं. आखिरी बार नबा कलेबरा विधान साल 2015 में हुआ था.

रहस्यमयी है नव कलेवर विधान

इस विधान के बारे में एक और रहस्यमयी तथ्य भी प्रचलित है, जिससे कि मंदिर का रहस्य और भी गहराता है. नबा कलेबरा विधान में जब नई प्रतिमाएं बन जाती हैं तो जगन्नाथ जी की पुरानी प्रतिमा से एक ब्रह्म पदार्थ निकालकर नई प्रतिमा में रख दिया जाता है. इस विधान को दइतापति ही करते हैं जिनकी आंखों पर पट्टी बंधी होती है और हाथों में भी कपड़ा बंधा होता है. रात में होने वाले इस विधान के समय घुप्प अंधेरा किया जाता है. प्रतिमा में रखा जाने वाला ब्रह्म पदार्थ आखिर है क्या, ये किसी को नहीं पता. उसे आज तक किसी ने नहीं देखा है.

ये शर्तें पूरी हों तभी प्रतिमाओं के लिए होता है पेड़ का चयन

जब प्रतिमा बनाने के लिए नीम के पेड़ खोजे जाते हैं, तो उनकी कुछ खासियत और शर्तें भी होती हैं. सभी शर्तें पूरी होने पर ही उस पेड़ की लकड़ी से प्रतिमा निर्माण हो सकता है. भगवान जगन्नाथ का रंग सांवला है इसलिए उनकी मूर्ति के लिए गहरे रंग की लकड़ी खोजी जाती है. जबकि बलराम तथा सुभद्रा के लिए हल्के रंग की लकड़ी की खोज होती है. जिस वृक्ष से भगवान जगन्नाथ की मूर्ति बननी है उसमे चार शाखाएं होनी चाहिए. इसके साथ ही वृक्ष में पद्म, शंख, चक्र और गदा के चिह्न भी होने चाहिए. वृक्ष ऐसी जगह हो जहां पास ही एक जलाशय, शमशान और चीटियों का बनाया मिट्टी का ढेर हो. वृक्ष की शाखाएं कटी हुई या टूटी नहीं होनी चाहिए, और इसकी डाल कोई घोंसला भी नहीं होना चाहिए.

कठिन है पेड़ की खोज

इसके अलावा जहां पर ऐसा पेड़ मिले, वह स्थान या तो तीन ओर से पहाड़ियों से घिरा हो, या फिर वहां तिराहा  होना चाहिए. उस वृक्ष से लता न लिपटी हो, उस के पास ही बेल का पेड़ भी हो. आसपास शिवमंदिर की मौजूदगी भी होनी चाहिए. वृक्ष खोजने की यह प्रक्रिया बहुत कठिन और लम्बी है. वृक्ष मिल जाने पर मंत्रो के उच्चारण के साथ उसे काटा जाता है.​​ इसके बाद इन वृक्षों की लकडिय़ों को  दइतापति जगन्नाथ मंदिर लाते हैं, जहां उन्हें तराशकर मूर्तियां बनाई जाती हैं.

पहला पार्टः न भुजाएं-न चरण, बड़ी-बड़ी आंखें...पुरी के जगन्नाथ मंदिर में ईश्वर का स्वरूप ऐसा क्यों है!

दूसरा पार्टः बनते-बनते नष्ट हो जाता था श्रीमंदिर, आखिर पुरी में कैसे स्थापित हुआ जगन्नाथ धाम

तीसरा पार्टः जगन्नाथ मंदिर से पहले कबीले में होती थी भगवान नीलमाधव की पूजा... जानें ये रहस्य

चौथा पार्टः ...वो शर्त जिसके टूटने से अधूरी रह गईं जगन्नाथजी की मूर्तियां

पांचवां पार्टः बनने के बाद सदियों तक रेत में दबा रहा था जगन्नाथ मंदिर, फिर कैसे शुरू हुई रथयात्रा

छठा पार्टः न शिवजी चख सके, न ब्रह्मा...जगन्नाथ धाम में कैसे बनना शुरू हुआ महाभोग

सातवां पार्टः कौन हैं देवी बिमला, पुरी में जिनको भोग लगे बिना अपना प्रसाद नहीं चखते भगवान जगन्नाथ

आठवां पार्टः रथयात्रा से पहले 15 दिन तक बीमार कैसे हो जाते हैं भगवान जगन्नाथ? ये है इसकी वजह

नौवां पार्टः ...जब अपने भक्त के लिए गणेशजी बन गए भगवान जगन्नाथ, जानिए महाप्रभु के गजवेश स्वरूप की कथा

दसवां पार्टः खिचड़ी खाने के लिए श्रीमंदिर छोड़ गए थे भगवान, जानिए जगन्नाथजी के भोग के व्यंजन

11वां पार्टः जगन्नाथ रथयात्रा में कैसे खास बन जाते हैं रसगुल्ले, लक्ष्मी की नाराजगी से क्या है कनेक्शन

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Credits

Illustration By: Vani Gupta