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अपनी 50वीं सालगिरह मना रही 'शोले' की शान में, हम कहानियों की एक सीरीज के जरिए इसकी विरासत का जश्न मना रहे हैं. पांचवां पार्ट उन डायलॉग्स की गाथा है, जो भारतवासियों की बोली का हिस्सा बन चुके हैं.
रमेश सिप्पी की 'शोले' केवल एक फिल्म नहीं, बल्कि एक ऐसी लहर है जिसने बीते पांच दशकों में भारत के सिनेमाई और सामाजिक तानेबाने को आकार दिया है. गब्बर के तगड़े भौकाल से लेकर बसंती की चटपटी बतकही तक, इसके डायलॉग्स ने भारत की बोलियों में वैसे ही अपनी जगह बना ली है जैसे कन्धों पर बैग टांगे, जय-वीरू एक दिन अचानक रामगढ़ पहुंचे और गांव वालों में ऐसे घुले की फिर वहीं के हो गए.
सलीम-जावेद ने केवल डायलॉग नहीं लिखे थे. उन्होंने शब्दों में ऐसा पोटास भरा था कि इधर इसके डायलॉग स्क्रीन पर फटते थे, उधर थिएटर्स में भौकाल मच जाता था. गब्बर बने अमजद खान के मुंह से निकला 'कितने आदमी थे?' छटांक भर जिज्ञासा में लिपटा, कुंटल भर संकट लेकर आया था. हेमा मालिनी की बसंती ने—हिम्मत के साथ डाकुओं से लड़ने की ठानते हुए—तांगे पर 'चल धन्नो, आज तेरी बसंती की इज्जत का सवाल है' की ललकार लगाई थी. इस लाइन के साथ उसने अपनी जिंदगी का भार एक घोड़ी को सौंप दिया था. ये छोटी-छोटी मसालेदार लाइनें इतनी मशहूर हैं कि हर एक लाइन अपने-आप में एक पुलित्जर अवॉर्ड डिजर्व करती है.
आखिर क्यों इतनी आइकॉनिक हैं ये लाइनें? क्योंकि ये बेहद मारक हैं, इनमें लय है और ये ठसक से भरी हुई हैं. 'जो डर गया, समझो मर गया' आप सिर्फ कहते नहीं हैं; जुल्फ झटकते हुए, ठुड्डी ऊपर करके दांत पीसते हुए अपने खौफ पर विजय पा लेने का ऐलान करते हैं. 'अब गोली खा,' याद दिलाता है कि वफादारी की लकीर लांघने के बाद वापस लौटना नामुमकिन है, और अब मौत तय है.
'शोले' के डायलॉग जिस गहराई से भारतीय सोच को पकड़ते हैं, उसी वजह से इनकी उम्र इतनी लंबी हुई. ये हास्य, ड्रामा और अक्खड़पन को पूरी ईमानदारी से इस तरह मिलाते हैं कि भारत की विविधता, अराजकता और रंगों से भरी संस्कृति इनमें उतर आती है. अपने दौर की बाकी फिल्मों की तरह शोले ने नैतिकता का लेक्चर देने की कोशिश नहीं की. इसने किरदारों को शिष्टाचार का लबादा ओढ़े बिना, उनके सहज अंदाज में बोलने दिया, जो दर्शकों के दिल में उतर गया.
सलीम-जावेद की लाइनें ऐसी महसूस होती थीं जैसे वो मुंबई की किसी टपरी में जन्मे हैं; उर्दू और संस्कृत के शब्दकोशों से भरे किसी स्क्रिप्ट रूम में नहीं. अमजद खान के गुर्राने, धर्मेंद्र के टशन, हेमा मालिनी के तड़के, अमिताभ बच्चन की गंभीरता और संजीव कुमार के गुस्से ने इन डायलॉग्स को केवल शब्द नहीं, हथियार बना दिया था.
जिस देश में कविता, कहावत कहना और डायलॉग बोलना एक सामाजिक रिवाज है, वहां शोले की लाइनें खून में घुल गईं. बॉलीवुड के रीमेक्स में इन्हें दोहराया जाना, कॉमेडी में इनकी पैरोडी होना और प्रचारों तक में इनका इस्तेमाल होना बताता है कि ये लाइनें अमर हैं.
'शोले' के डायलॉग हमारे बोल-चाल की भाषा बन चुके हैं, जिनके सहारे हमारा रोजाना का कामकाज चलता है. जॉब इंटरव्यू में खूब रगड़े गए किसी दोस्त की फिरकी लेते हुए पूछ लिया जाता है, 'कितने आदमी थे?' पंजे लड़ाते हुए बालक अनायास बोल पड़ते हैं, 'ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर.' पार्टी में जिस दोस्त को नचाने के लिए लोग घसीटे जा रहे हैं, उसकी बेचारगी पर हंसते हुए कोई अचानक ही कह उठता है, 'बसंती, इन कुत्तों के सामने मत नाचना.'
'तू तो गया काम से' आज भी जनता के मुंह से उतनी सहजता से नहीं निकलता, जैसे 'तेरा क्या होगा कालिया?' सरक जाता है—क्योंकि इस लाइन में केवल डर नहीं है, इसमें बहुत सटीक मात्रा में, बूंद भर ह्यूमर भी है. उन परिस्थितियों के लिए तो ये आदर्श सूक्ति है, जब किसी बालक का कांड उसकी माता के आगे प्रकट हो चुका है. और 'ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे' की महिमा कितनी कही जाए! रोड ट्रिप हो, शादी हो या रेस्टोरेंट टेबल पर जेब का गणित जोड़ते हुए, एक प्लेट में ही खाना शेयर करना हो... जहां दोस्त है, वहां ये लाइन है.
ये डायलॉग ही 'शोले' के किरदारों को लार्जर दैन लाइफ बनाते हैं. गब्बर वो विलेन है जिसके साथ हम चिल करना चाहते हैं, ठाकुर वो अंकल है जिसका हम सम्मान करते हैं और जय-वीरू वो यार हैं जिनके साथ हम तफरीह करना चाहते हैं. बसंती, क्लास की वो लड़की है जिसकी बकबक मुस्कुराते हुए पूरे दिन सुनी जा सकती है, भले ही उसका मानना हो कि उसे 'ज्यादा बात करने की आदत' तो है नहीं. राजनीतिक भाषणबाजी हो या स्टैंड-अप कॉमेडी के जुमले, ये डायलॉग भारत को एक माला में पिरोकर रखने वाला धागा हैं.
'शोले' के डायलॉग विभिन्न परिस्थितियों में बहुत मारक साबित होते हैं. मगर इनका असर भरपूर तभी होता है जब आपको पता हो कि इन्हें कब और कैसे इस्तेमाल करना है. तो आप तैयार हैं? चलिए बताते हैं कि पूरी मास्टरी के साथ, इन लाइनों को अचूक तरीके से रियल लाइफ या ऑनलाइन कैसे इस्तेमाल किया जाता है.
कब इस्तेमाल करें: बढ़-चढ़कर कहानी बताते किसी व्यक्ति से मजे लेने के लिए. मान लीजिए, कोई अपनी प्रेजेंटेशन से ऑफिस में आग लगा देने की कथा हांक रहा है. वहां आपको ये डायलॉग दाग देना है, ये चेक करने के लिए कि प्रेजेंटेशन में दो चार आदमी थे भी या भाईसाहब बस एक साथी के आगे ही हीरो बने चले आए हैं.
अचूक असर के लिए: गब्बर की तरह हल्का सा झुकते हुए—आंखें थोड़ी सी तरेरते हुए—हवा में टेंशन पैदा करने वाले, थोड़े से ठहराव के साथ दागने पर ये डायलॉग अचूक साबित होता है. हाथ में चाय का कप पकड़ा हो तो ये डायलॉग दोगुना वजनदार हो जाता है.
कब इस्तेमाल करें: जब कोई साथी घबरा रहा हो तो उसका हौंसला बढ़ाने के लिए—बॉस से छुट्टी मांगने में किसी को डर लग रहा हो या फिर 500 किलोमीटर बाइक ट्रिप का प्लान सुनकर किसी की टांगें कांप रही हों. इस लाइन का सही प्रयोग साधारण इंसान को शक्तिमान बना देता है.
अचूक असर के लिए: तनकर खड़े हों, सीना चौड़ा करें और ऐसे कहें जैसे आप वीरू की तरह पानी की टंकी पर चढ़ जाने के लिए तैयार हैं.
कब इस्तेमाल करें: अपनी यारी के सबसे दमदार मोमेंट्स में—घर से छुपकर नाईट आउट पर निकलना हो, आखिरी समोसे को दो हिस्सों में बांटना हो या बिना हेलमेट पकड़े जाने पर पूरे सामंजस्य के साथ झूठी कहानी बनाकर निकलना हो. दोस्ती का परफेक्ट सेलिब्रेशन है ये लाइन.
अचूक असर के लिए: दोस्त तो साथ है ही, बस उसके कंधे पर हाथ रखकर ये लाइन बोलनी है... मौसम, हालात, जज्बात एकसाथ बदल जाएंगे.
कब इस्तेमाल करें: जब कोई दोस्त, ऑफिस के दबाव में अपने ऑरिजिनल प्लान से समझौता करने जा रहा हो. उसे मैसेज पर मैसेज आ रहे हैं कि छुट्टी लेने की बजाय वो ऑफिस आ सके तो बेहतर होगा. तब ये लाइन आपका प्लान बिगड़ने से बचा सकती है.
अचूक असर के लिए: मसखरी मुस्कराहट के साथ इस लाइन को ऐसे डिलीवर करना है जैसे आप बसंती को डाकुओं से बचाने निकले वीरू हैं. आवाज में भरपूर वजन के साथ कहने पर ये लाइन कभी नाकाम नहीं होती.
कब इस्तेमाल करें: जब कोई बड़े पंगे में पड़ने वाला है, बचने का कोई चारा नहीं है. बचाने का न आपका इरादा है, ना बचा पाना आपके हाथ में है. लेकिन फिर भी मौके का स्वाद तो लिया ही जा सकता है. जैसे- कोई दोस्त मम्मी की कही सब्जी खरीदना भूल गया हो, बीवी का बर्थडे भूल गया हो या फिर बॉस की दी डेडलाइन चूक गया हो.
अचूक असर के लिए: गब्बर की शैतानी हंसी को अपने चेहरे पर उतरने दीजिए और गहरी आवाज में बड़ी मद्धम गति से इस तरह ये लाइन बोलिए, जैसे सामने वाले की रगड़ाई में आपको पूरा स्वाद आ रहा है.
तो, आगे बढ़िए गब्बर की तरह गुर्राते हुए डायलॉगबाजी कीजिए, बसंती के अंदाज में चटपटे मीम बनाइए और 'शोले' की विरासत, इसके असर और इसके भौकाल को आगे बढ़ाते जाइए. क्योंकि याद रखिए: जो डर गया, वो मर गया.
(ये 'शोले' कथा यहीं समाप्त होती है.)
चौथा पार्ट आप यहां पढ़ सकते हैं: शोले@50: कैसे लेजेंड बन गए सूरमा भोपाली, धन्नो, जेलर जैसे छोटे किरदार
तीसरा पार्ट आप यहां पढ़ सकते हैं: शोले@50: बीयर की बोतलों और सीटियों से बना आरडी बर्मन का संगीत संसार
दूसरा पार्ट आप यहां पढ़ सकते हैं: शोले@50: ऐसे रचा गया बॉलीवुड का महानतम खलनायक- गब्बर सिंह
पहला पार्ट आप यहां पढ़ सकते हैं: शोले@50: आरंभ में ही अंत को प्राप्त होकर अमर हो जाने वाली फिल्म