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15 अगस्त 1975 को, शोले ने थिएटर्स में एक ऐसी सांस्कृतिक लौ जलाई जिसकी रौशनी आज भी भारतीय सिनेमा को रौशन करती है. इस मास्टरपीस की गोल्डन जुबली पर हम इसकी मेकिंग से जुड़ी कहानियों, संघर्षों और संयोंगों के जरिए इसकी विरासत को एकबार फिर से याद कर रहे हैं. पहले पार्ट में, उस अफरातफरी की बात करते हैं जो 'शोले' की रिलीज पर फैली हुई थी.
1975 में, बॉम्बे में, एक दुस्साहस भरे सपने की चर्चा जोर पकड़ रही थी. रमेश सिप्पी और उनके परिवार की फिल्म कंपनी, सिप्पी फिल्म्स ने 'शोले' के लिए 3 करोड़ रुपये दांव पर लगा दिए थे, एक ऐसा सिनेमेटिक जुआ जो उस दौर की किसी भी बॉलीवुड प्रोडक्शन से बड़ा था.
बैंगलोर के पास, एक पहाड़ी गांव को 'रामगढ़' बनाने में बड़ी रकम खर्च की गई थी, एक ऐसा जीवंत सेट बनाया गया था जिसे अपने आप में एक 'मिनी भारत' कहा जा सकता था. भारत की पहली 70mm फिल्म के लिए पैनाविजन लेंस इम्पोर्ट किए गए थे जो बड़े पर्दे पर शानदार वाइडस्क्रीन पिक्चर पेश करने का वादा कर रहे थे. आर डी बर्मन के म्यूजिक स्कोर में स्टीरियोफोनिक साउंड की धमक सुनाई दे रही थी, जो उस वक्त फिल्मों में एक दुर्लभ चीज थी.
फिल्म की कास्ट में- धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन, हेमा मालिनी, संजीव कुमार, जया भादुड़ी, अमजद खान- जैसे सितारों और हुनरमंद नामों से सजी एक पूरी आकाशगंगा थी. ट्रेन डकैती, धमाकेदार स्टंट, सैकड़ों एक्स्ट्रा कलाकारों से भरी लड़ाइयां; एक-एक रुपया दांव पर लगा हुआ था. लेकिन महत्वाकांक्षा एक खूबसूरत ख्वाब होती है जिसके टूट जाने का खतरा मंडरा रहा था.
मिनर्वा थिएटर के माहौल में आशा की बिजलियां दौड़ रही थीं. 'शोले' दहाड़ते हुए बड़े पर्दे पर पहुंची- जय वीरू अपने घोड़ों पर सवार रामगढ़ में टापें भर रहे थे, बिना बाजुओं का धड़ लिए ठाकुर बदले की ललकार भर रहा था, गब्बर गुर्रा रहा था. 70mm विजुअल्स की चकाचौंध फैली हुई थी, बर्मन का स्कोर गरज रहा था, फिर भी दर्शकों में सन्नाटा पसरा हुआ था. ना तालियां, ना सीटियां. मिनर्वा, एक थिएटर की बजाय शोक संतप्त भीड़ से भरा एक श्मशान लग रहा था.
सीटों से खुसफुसाहटें सरकने लगीं: फ्लॉप, डिजास्टर, डेड! अगली सुबह तक बॉम्बे की गलियों में लोगों की नाराजगी फुफकार रही थी. घोड़े पर सवार जय और वीरू, गब्बर का गुर्राना अब मजाक का माल बनने लगे थे. ट्रेड पेपर्स की धार पैनी हो चुकी थी: 'एक बहुत बड़ा मिसफायर.' क्रिटिक्स 3-घंटे के रनटाइम की धज्जियां उड़ाने लगे थे, फिल्म में पश्चिमी सिनेमा के प्रभावों को 'हिंदी सिनेमा की आत्मा से विश्वासघात' घोषित कर दिया गया था. 'अत्यधिक मसाला, लेकिन इमोशंस की कमी,' एक ने खिल्ली उड़ाई. दूसरे ने इसे 'लियोनी और कुरोसावा की धुंधली परछाईं' कहा. किसी ने कहा- 'ये तो छोले है'.
बॉक्स ऑफिस से बुरे कलेक्शन, खाली थिएटर्स की रिपोर्ट्स आ रही थीं. डिस्ट्रीब्यूटर दबी आवाज में फिल्म उतारने की बातें करने लगे थे. सिप्पी फिल्म्स के ऑफिस में रमेश कमजोर आंकड़ों, परिवार की डूबती दौलत का विश्लेषण करने में लगे थे. सुनहरे कलमकारों, सलीम-जावेद, पर घमंडी होने के इल्जाम लग रहे थे. अमजद खान का गब्बर, जो बाद में लेजेंड बन गया, कार्टून बताकर जलील किया जा रहा था.
इस अफरातफरी में रमेश सिप्पी कुछ कड़े कदम उठाने पर विचार कर रहे थे. शंकाएं उठने लगी थीं: क्या वो भारत की नब्ज को समझने में फेल हो गए? इस विश्वास से भरकर कि फिल्म की डार्क एंडिंग— जय की मौत और ठाकुर के भयानक बदले ने दर्शकों को फिल्म से काट दिया है; वो कुछ सीन्स फिर से शूट करने, फिल्म की टोन नरम करके क्रिटिक्स का दिल जीतने और दर्शकों को खुश करने का प्लान बनाने लगे थे. स्टूडियो तैयार था, एक्टर्स बुला लिए गए थे, लेकिन उन्होंने तय किया कि कुछ और दिन इंतजार कर लिया जाए.
फिल्म के लेजेंड्री लेखकों, सलीम-जावेद ने हथियार डालने से इनकार कर दिया. शोले की शान पर पूरा यकीन दिखाते हुए उन्होंने एक बड़ा दांव खेला. तीखी फिल्म समीक्षाओं और इंडस्ट्री में बढ़ते अविश्वास के जवाब में, उन्होंने अखबारों में पूरे पन्ने का एक इश्तिहार छपवाया, ये दावा करते हुए कि 'शोले' हर टेरिटरी में 1 करोड़ की कमाई करेगी— एक ऐसा चौंका देने वाला दावा जब किसी भी फिल्म ने ऐसी कमाई नहीं की थी और टिकटों की कीमत 2 रुपये हुआ करती थी.
ये इश्तिहार आलोचकों के मुंह पर एक करारा तमाचा था, अपने विजन को लेकर खुल्लम-खुल्ला लगाई गई एक शर्त. बाद में जावेद अख्तर ने याद करते हुए बताया, 'लोग हंसने लगे, पूछने लगे कि हमारा मतलब पूरे देश से एक करोड़ कमाई करना है क्या!' सलीम खान ने स्वीकारा कि उनकी भविष्यवाणी थी तो बहुत महत्वाकांक्षी मगर इसका आधार फिल्म की कहानी, डायलॉग और किरदारों पर उनका विश्वास था.
ऐसी जगह से कॉम्पिटीशन खड़ा हुआ जिसकी कोई उम्मीद ही नहीं थी. 'शोले' के नश्वर किरदारों के सामने एक दैवीय प्रतिद्वंद्वी खड़ा था. 15 अगस्त, 1975 को इसका क्लैश 'जय संतोषी मां' से हुआ. एक भक्ति फिल्म जो 30 लाख रुपये में बनी थी. जहां बॉक्स ऑफिस पर 'शोले' की शुरुआत 8 लाख रुपये से हुई, वहीं 'जय संतोषी मां' ने 7 लाख रुपये कमाए. टक्कर एकदम बराबर की थी. 'जय संतोषी मां' एक स्लीपर हिट बन गई. लोग थिएटर्स में भजन गा रहे थे, महिलाएं शुक्रवार को व्रत रख रही थीं, बड़े पर्दे पर नजर आ रहीं देवी की पूजा कर रही थीं.
अपने रन के अंत तक ये भक्ति फिल्म 5.5 करोड़ रुपये कमा चुकी थी, 1616% मुनाफे के साथ. ये एक ऑल टाइम ब्लॉकबस्टर थी, स्वतंत्रता दिवस की रिलीज वाला जलवा इसके नाम हो चुका था. इसके दिव्य नैरेटिव ने 'शोले' की बंदूकों और खून-खराबे को ढंक दिया था.
और फिर, एक चिंगारी उठी. दूसरे हफ्ते तक, बॉम्बे की गलियों में 'शोले' की चर्चाएं फिर से दौड़ रही थीं. माटुंगा में परिवार 'ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे' गुनगुना रहे थे. दादर के चायखानों में गूंज रहा था 'कितने आदमी थे?' कॉलेज स्टूडेंट जय के सिक्का उछालने की, बसंती की बकबक की नकल कर रहे थे. सलीम-जावेद के धारदार डायलॉग भारत की नसों में दौड़ने लगे, दावानल की तरह फैलने लगे. मिनर्वा में भीड़ बढ़ने लगी, फिर थिएटर के बाहर भी जुट गई. टिकट्स गायब हो गए, ब्लैक-मार्किट में दाम आसमान पर पहुंच गए.
भारत भर में माहौल पलट चुका था. दिल्ली के रीगल सिनेमा ने मिडनाइट शो शुरू कर दिए. कोलकाता का मेट्रो फैन्स का गढ़ बन गया. देहातों में धूल फांक रहे, कामचलाऊ सिनेमाघरों में 'जो डर गया, समझो मर गया' पर शोर उठने लगा. बर्मन के गीतों― 'महबूबा महबूबा', 'हां जबतक है जान'― पर शहरों से गांवों तक, रेडियो फटे जाते थे. गब्बर, जिसे कार्टून कहा गया था, भारत का महानतम खलनायक बन चुका था और उसकी लाइनें शिलालेख. 'शोले' नाकाम नहीं हुई थी―वो भारत के रफ्तार पकड़ने का इंतजार कर रही थी.
सिप्पी फिल्म्स के ऑफिस में फोन बजने बंद ही नहीं हो रहे थे, फोन मिलाने वाला हर व्यक्ति उत्साहित था, फिल्म के और प्रिंट मांग रहा था. सिप्पी परिवार का जुआ, जश्न में बदल गया. 'शोले' का मुनाफा बॉलीवुड बिजनेस के नियम नए सिरे से लिख रहा था. 1976 तक, 'शोले' सिर्फ एक फिल्म भर नहीं थी― एक रस्म बन चुकी थी. किसी पुराने गांव में, बरगद के नीचे, परिवार इस फिल्म के डायलॉग बोल रहे थे, जय के लिए आंसू बहा रहे थे, और वीरू के लिए शोर मचा रहे थे. शुरुआती नाकामी, जो एक क्षणिक दुःस्वप्न थी, उसने इस फिल्म का मिथक रचा. 'शोले' की कामयाबी की कहानी, किसी महागाथा जैसी है. एक ऐसी अद्भुत घटना, जो इसके ऑरिजिनल बॉक्स ऑफिस आंकड़ों से बहुत ऊपर उठकर, भारतीय सिनेमा संस्कृति के लिए एक यादगार मोड़ बन गई.
1976 तक, 'शोले' उस ऊंचाई पर पहुंच गई कि भारत की सबसे कमाऊ फिल्म कहलाई, एक ऐसा खिताब जो 1994 में 'हम आपके हैं कौन' की रिलीज तक, 19 साल इसके पास रहा. सोवियत यूनियन― जहां 'शोले' एक सांस्कृतिक ब्लॉकबस्टर थी और मिडल ईस्ट समेत― ग्लोबल तस्वीर देखें तो इसका कुल ग्रॉस कलेक्शन अभूतपूर्व 35 करोड़ रुपये था, एक ऐसी उपलब्धि जो इसकी समकालीन किसी भी फिल्म को नहीं हासिल हुई.
फैन्स ने सीक्रेट सोसायटीज बनाईं, एक-एक फ्रेम, एक-एक ठहराव, गोली की एक-एक आवाज याद कर ली. सोवियत यूनियन में, जहां 'शोले' ने लाखों कमाए, डबिंग प्रिंट्स के दम पर अंडरग्राउंड फैन क्लब बन गए, जहां टूटी-फूटी हिंदी में 'बसंती, इन कुत्तों के सामने मत नाचना' जपा जाने लगा. 'शोले' का गुणगान सरहद पार भी होने लगा. पाकिस्तान में, 'मौला जट्ट' जैसी फिल्मों ने इसकी देसी हीरोगिरी उधार ली; तुर्की की भव्य एक्शन फिल्मों में इसकी बड़ी कास्टिंग की नकल की जाने लगी.
कुछ अनुमानों के अनुसार, इनफ्लेशन जोड़ लिया जाए तो, आज के हिसाब से 'शोले' की कमाई 3000 करोड़ से ज्यादा बैठेगी. इस हिसाब से ये भारतीय फिल्मों के इतिहास में दर्ज सबसे कमाऊ फिल्मों के साथ या उनसे भी ऊपर रखी जाएगी. इसे देख चुके दर्शकों का आंकड़ा― जो कि दुनियाभर में अनुमानतः 25 करोड़ है― दुनिया की किसी भी फिल्म से ज्यादा है, और आज के मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों में राज कर रही किसी भी फिल्म को छोटा साबित कर सकती है.
भारत भर में, इसे 60 गोल्डन जुबली (एक थिएटर में 50 हफ्ते) और 100 से ज्यादा सिल्वर जुबली (25 हफ्ते) नसीब हुईं, एक ऐसा कीर्तिमान जिसकी बराबरी 1995 में 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' तक कोई और फिल्म नहीं कर सकी.
मुंबई के मिनर्वा थिएटर में 'शोले' का ऐसा ऐतिहासिक रन रहा जो अब एक मिथक बन चुका है― लगातार 5 साल, रिकॉर्ड 286 हफ्तों तक इसके हजारों शो चले. इस थिएटर में सिर्फ एक फिल्म नहीं चल रही थी, बल्कि ये फिल्म प्रेमियों के लिए एक तीर्थस्थल बन गया था.
1999 में, बीबीसी इंडिया ने इसे 'फिल्म ऑफ द मिलेनियम' (इस शताब्दी की फिल्म) घोषित किया. 2002 में ब्रिटिश फिल्म इंस्टिट्यूट ने इसे टॉप 10 भारतीय फिल्मों में शुमार किया. 'शोले' के डायलॉग्स को 2005 में फिल्मफेयर के एक सर्वे में भारतीय सिनेमा के इतिहास में 'बेस्ट डायलॉग' चुना गया.
हर मामले में 'शोले' एक फिल्म से ज्यादा हो चुकी थी. ये एक सांस्कृतिक बिग-बैंग थी जिसने स्क्रिप्ट राइटिंग, एक्टिंग, म्यूजिक, और फिल्मों में तकनीकी कौशल के नए पैमाने सेट किए. लेकिन ये जादू दोबारा कभी नहीं रचा जा सका.
फिल्मकारों ने रीमेक और प्रेरित फिल्मों के जरिए 'शोले' का जादू पुनर्जीवित करने की कई कोशिशें कीं–रामगढ़ के शोले, आंधी तूफान, और कई क्षेत्रीय फिल्मों ने बाजी आजमाई. लेकिन हर कोशिश नकार दी गई.
2007 में, रामगोपाल वर्मा ने ऑरिजिनल जय, अमिताभ बच्चन को गब्बर के रोल में कास्ट करके, अपनी फिल्म 'रामगोपाल वर्मा की आग' में ये कहानी नए तरीके से कहने की कोशिश की. नतीजा ये हुआ कि सच्चे भक्तों की आस्था को ठेस पहुंच गई. ये फिल्म सिर्फ बॉक्स ऑफिस पर ही औंधे मुंह नहीं गिरी, आलोचनाओं में इसे जमकर रगड़ा गया. इस नाकामी ने 'शोले' के मिथक को और गहरा ही बनाया. ये सबूत था कि वो आग दोबारा नहीं जलाई जा सकती. 'शोले' हमेशा एक ही थी, एक ही रहेगी.
अपना 50वां साल जी रही 'शोले' को अब सिनेमा भक्त केवल देखते नहीं है, इसके डायलॉग्स, स्क्रीन पर उतरे इसके देवताओं की किंवदंती में खो जाते हैं और इसके आगे शीश नवाते हैं.
एक अनिश्चित आरंभ से विराट सफलता तक, 'शोले' की कहानी इस बात का एक शक्तिशाली प्रमाण है कि हर महान कहानी की जड़ में जीवटता होती है. जीवन के अंगारे कभी कभार थोड़े ठंडे जरूर पड़ सकते हैं. लेकिन एक बार इन्हें फिर से चिंगारी मिली तो ये ऐसे 'शोले' बन जाते हैं जिन्हें कुछ भी बुझा नहीं सकता.
दूसरा पार्ट आप यहां पढ़ सकते हैं: शोले@50: ऐसे रचा गया बॉलीवुड का महानतम खलनायक- गब्बर सिंह