सर्दियों की एक शाम, कांशीराम मायावती से मिलने उनके घर पहुंचे. इस मुलाकात के बाद एक समय ऐसा आया जब राजनीति में उतरने को लेकर मायावती का अपने परिवार से मतभेद बहुत अधिक बढ़ गया. बाद में उन्हें अपना घर छोड़कर कांशीराम के यहां रहने जाना पड़ा. क्योंकि, उस रोज हुई भेंट के बाद मायावती एक निर्णायक फैसला ले चुकी थीं जिसकी बदौलत बाद में मायावती देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री बनीं. लेकिन, राजनीति के शिखर पर पहुंचने का जो रास्ता मायावती ने अपने लिए बनाया अखिर उसकी नींव कैसे पड़ी? एक समय ऐसा भी था जब साइकिल पर सवार होकर मायावती 'हाथी' को मजबूत करने निकल जाया करती थीं. शुरुआती कई चुनाव हारने के बाद भी मायावती मैदान में डटी रहीं और उत्तर प्रदेश में पार्टी को वहां ला खड़ा किया जहां से तमाम लोगों ने बसपा को एक राजनीतिक ताकत के रूप में देखना शुरू किया... तो चलिए आपको ले चलते हैं बसपा, कांशीराम और मायावती के इसी शून्य से शिखर तक पहुंचने के राजनीतिक किस्सों पर...
एक बार मजाक में 'बहन जी' ने अपने पिता से पूछा कि उनका नाम मायावती क्यों रखा? पिता ने बताया कि उन्होंने बच्चों के नामकरण के लिए कभी किसी पुजारी या ज्योतिष से सलाह नहीं ली. उनके पिता के अनुसार, मायावती के नामकरण का संबंध उनके जन्म के दिन हुई घटनाओं से रहा है. जिस दिन मायावती का जन्म हुआ, उसी दिन, उनके परिवार को तीन खुशखबरी मिलीं. कल्याणी शंकर की किताब पैंडोरा डॉटर्स (Pandora's Daughters) के अनुसार, मायावती याद करती हैं, ‘मेरे पिता, जो डाक विभाग में लोअर डिवीजन क्लर्क थे, उनको अपर डिवीजन क्लर्क के रूप में पदोन्नत (Promote) किया गया था. इसके साथ ही उन्हें उनका लंबित वेतन बकाया भी मिला और, उसी दिन उनकी पोस्टिंग भी एक बेहतर विभाग में हो गई. मेरे पिता इतने खुश थे कि उन्होंने मेरा नाम मायावती रखा, जो सांसारिक सुख और धन का प्रतीक है.’
आठ भाई-बहनों वाले एक बड़े एवं गरीब परिवार में जन्मी मायावती शहर में पली-बढ़ीं, लेकिन उन्होंने यूपी में अपने पैतृक गांव से संबंध हमेशा बनाए रखा. वह छुट्टियों के दौरान अपने दादा-दादी से मिलने जाती थीं. इन यात्राओं के दौरान ही जाति व्यवस्था और दलितों की दुर्दशा के बारे में उनकी समझ विकसित होने लगी. समुदायों में हो रहे जातिगत भेदभाव ने उन्हें झकझोर कर रख दिया था. वह बचपन से ही अनुसूचित जाति के स्वतंत्रता सेनानियों और भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर से प्रभावित थीं. ग्रेजुएशन की पढ़ाई के बाद, मायावती ने शिक्षक प्रशिक्षण (teacher training) का रास्ता चुना और एक सरकारी स्कूल में काम करना शुरू कर दिया.
लेकिन, 1977 में बसपा संस्थापक कांशीराम से यूं ही हुई एक आकस्मिक मुलाकात ने उनका जीवन हमेशा के लिए बदल दिया. मायावती उस समय को याद करते हुए कहती हैं, 'यह मेरे राजनीतिक करियर की शुरुआत थी और मैं इसे बहुत महत्वपूर्ण मानती हूं.' स्वास्थ्य मंत्री राज नारायण की अध्यक्षता में आयोजित जाति तोड़ो समारोह में मायावती को आमंत्रित किया गया. इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को चुनावी हार का सामना करना पड़ा था. इंदिरा की हार के बाद जनता पार्टी सरकार का रास्ता साफ हो गया. इसी सरकार में राज नारायण एक महत्वपूर्ण मंत्री थे. उस बैठक में मायावती ने नारायण द्वारा हरिजन शब्द के इस्तेमाल का विरोध किया. हरिजन शब्द मूल रूप से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा अनुसूचित जाति के लिए गढ़ा गया था. दर्शकों में मौजूद कांशीराम, मायावती की बोलने एवं भाषण देने के कौशल और साहस से प्रभावित हुए.
सर्दियों की एक शाम, कांशीराम उनसे मिलने उनके घर गए. मायावती का परिवार तब तक घर का सारा काम खत्म कर चुका था और वह अपनी सिविल सेवा परीक्षाओं की तैयारी कर रही थीं. उनकी किताबों पर नजर डालते हुए कांशीराम ने मायावती से पूछा, 'जीवन में आपकी महत्वाकांक्षा क्या है?" मायावती ने जवाब दिया कि वह लोगों की सेवा करने के लिए IAS बनना चाहती हैं. कांशीराम ने कहा कि वह राजनेता बनकर बेहतर सेवा कर सकेंगी. मायावती बताती हैं, 'श्री कांशीरामजी के शब्दों ने मुझ पर प्रभाव डाला. मैंने आईएएस बनने का विचार छोड़ दिया और एक महान नेता बनने के बारे में सोचा.' उस दिन लिए इस निर्णायक फैसले के बाद मायावती देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री बनीं.
मायावती के पिता प्रभु दास को अपनी युवा बेटी पर कांशीराम का प्रभाव पसंद नहीं था. पिता ने मायावती को रोकने की कोशिश की, लेकिन वह जिद पर अड़ी रहीं. कांशीराम ने एक बार कहा था, "शुरुआत में मायावती के पिता ने उनके बसपा आंदोलन में शामिल होने का विरोध किया था. उन्होंने नहीं सोचा था कि बसपा का आंदोलन जोर पकड़ेगा और इसलिए उनकी बेटी जीवन में असफल हो सकती है. उन्होंने सुझाव दिया था कि उसे सुरक्षित रास्ता चुनना चाहिए और एक आकर्षक सरकारी नौकरी में जाना चाहिए. अगर मायावती को राजनीति करनी ही है तो उसे पहले से ही सफल किसी पार्टी में शामिल होना चाहिए, न कि अभी-अभी लॉन्च हुई पार्टी में. इस पर कांशीराम ने जबाव दिया, यह मेरे लिए विचारधारा का मामला है. उनके लिए भी यह विचारधारा का मामला होना चाहिए. सफलता या विफलता बाद में आती है. इसके बाद फिर मायावती ने बसपा आंदोलन को चुना. बाद में इस मुद्दे पर अपने पिता के साथ मतभेदों के कारण मायावती को अपना घर छोड़कर कांशीराम के घर में जाना पड़ा. मायावती ने अपनी कानून की डिग्री पूरी की और साल 1984 से राजनीति में उतर गईं. अन्य नेताओं के विरोध के बावजूद, कांशी राम ने उन्हें बसपा में न सिर्फ प्रमोट किया बल्कि लगातार बढ़ाया.
मायावती को उनके राजनीतिक गुरु कांशीराम ने नेता बनने के लिए तैयार किया था. दोनों के व्यक्तित्व भले अलग-अलग थे, लेकिन वे सामंजस्यपूर्ण ढंग से एक साथ काम कर सकते थे. कांशीराम के बहिर्मुखी (extrovert)होने के विपरीत, मायावती स्वभाव से लोगों को संदिग्ध नजरों से देखतीं और केवल मुट्ठी भर करीबी सहयोगी लोगों पर भरोसा करतीं. काशीराम खुद बसपा के आधार का विस्तार करने के लिए देश भर में यात्रा करते रहे और यूपी में इस कार्य के लिए उन्होंने मायावती को प्रदेश का प्रभारी बनाया. मायावती भी पूरे मन से अपने काम में लग गईं और यूपी में पार्टी को खड़ा किया. राजनीति में मायावती का उदय तभी संभव था जब बसपा, जिसे कांशीराम ने 14 अप्रैल 1984 को लॉन्च किया था, एक पार्टी के रुप में फले-फूले और सत्ता को प्रभावित करने की ताकत को छुए. यह बसपा जैसी पार्टी के लिए एक लंबी यात्रा रही है.
बसपा की शुरुआत छोटे पैमाने पर हुई थी, जिसमें शायद ही कोई पैसा, कैडर या प्रभावशाली व्यक्तित्व थे. इसकी सफलता खुद को बार-बार विकसित करने, लगातार अपनी नीति बदलने और हर सामने आए राजनीतिक अवसर का फायदा उठाने की क्षमता में निहित थी. समय के साथ जब भी पार्टी को लगा कि वो खतरे में है, इसने खुद को रूढ़िवादी पहचान की राजनीति करने वाली पार्टी से अधिक उदार वाली पार्टी में बदल लिया. जिसका परिणाम यह हुआ कि 1990 के दशक में बसपा एक आंदोलन से राजनीतिक पार्टी में बदल गई. इसके बाद गठबंधन के सहारे BSP एक बार नहीं बल्कि तीन बार सत्ता हासिल करने में सफल हुई, और मायावती को मुख्यमंत्री बनाया. चौथी बार में जाकर बसपा को अपने दम पर सत्ता पाने में कामयाबी मिली. 21वीं सदी की शुरुआत में BSP को दो राष्ट्रीय पार्टियों- BJP और कांग्रेस के प्रभाव में गिरावट का फायदा मिला. जिसके बाद यह उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के लिए एक चुनौती बनकर उभरी और, 2007 के बाद सभी को प्रतिनिधित्व देकर बहुजन समाज पार्टी बनी.
मायावती ने चुनावी राजनीति में अपना पहला कदम 1984 में रखा और पहली बार कैराना लोकसभा क्षेत्र से चुनावी मैदान में उतरीं. उनके शुभचिंतकों ने उन्हें ऐसा न करने की सलाह दी लेकिन उन्होंने जोखिम उठाया. उन्होंने अपनी नौकरी से इस्तीफा देकर चुनाव लड़ा. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश भर में कांग्रेस के प्रति सहानुभूति लहर थी. उस समय कांग्रेस के अलावा किसी और के चुनाव जीतने की कोई संभावना न के बराबर थी. मायावती जीत तो नहीं सकीं लेकिन तीसरा स्थान पाने में कामयाब रहीं. साधारण कपड़े और साइकिल पर घूम-घूम कर प्रचार करने वाली इस युवा कैंडिडेट को किसी ने भी गंभीरता से नहीं लिया, लेकिन मायावती अपनी असफलताओं से निराश हुए बिना साइकिल चलाकर भी चुनाव लड़ती रहीं.
उनकी हार के तुरंत बाद डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी को एक घटना याद आती है- कांशीराम उन्हें दृढ़निश्चयी कहते थे. एक दिन मैंने उनसे पूछा कि क्या वह चुनाव हारने से निराश हैं. उन्होंने कहा, "अरे नहीं, उनमें दम है. जब मायावती आईं, तो वह पहले से ही अगले चुनावों के बारे में बात कर रही थीं. बिना किसी डर के, उन्होंने 1985 में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट बिजनौर से लोकसभा उपचुनाव लड़ा. वह गांव-गांव पैदल और साइकिल से घूमीं. 1984 में मिले महज 5,700 वोटों के मुकाबले वो 1985 के चुनाव में 65,000 वोटों तक पहुंचने में कामयाब रहीं. इस दौरान मायावती ने एक ओर जहां प्रसिद्ध दलित नेता राम विलास पासवान के खिलाफ रैली की तो वहीं दूसरी ओर उनके सामने बाबू जगजीवन राम जैसे अनुभवी कांग्रेस नेता की बेटी मीरा कुमार थीं, जिन्हें अपने पिता की विरासत का लाभ मिला और वो कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में जीत हासिल करने में सफल रहीं.
महज एक साल के अंदर बिजनौर में मायावती की बढ़ी हुई वोट संख्या न सिर्फ पार्टी की बढ़ती ताकत का सबूत थी बल्कि वरिष्ठ नेताओं और मीडिया ने भी बसपा के इस कारनामे को नोटिस करना शुरू कर दिया था. मायावती वरिष्ठ बसपा नेताओं के निशाने पर आ गईं. कांशीराम ने बताया था कि पार्टी के वरिष्ठों ने उनपर उन अवसरों को कम करने का दबाव डाला जो वो मायावती को लगातार दे रहे थे. कांशीराम के ऐसा करने से इनकार करने पर अधिकांश वरिष्ठ नेताओं ने BSP आंदोलन छोड़ दिया. दो साल बाद, मायावती फिर हरिद्वार से चुनाव लड़ने उतरीं और 1,00,000 से अधिक वोट और दूसरा स्थान हासिल करने में कामयाब रहीं. जिस तरीके से मायावती ने अपना चुनाव अभियान चलाया था, इस समय तक बसपा को चुनाव आयोग द्वारा मान्यता मिल गई थी. पार्टी के पास अपना चुनाव चिह्न था. कांशीराम और मायावती ने 1984 से 1989 तक के समय का उपयोग पार्टी को मजबूत करने के लिए किया. कांशीराम ने 1989 में इलाहाबाद से वी.पी. के खिलाफ चुनाव लड़ा और तीसरा स्थान हासिल किया. बसपा द्वारा कांग्रेस के वोटों में की गई कटौती के कारण यूपी जैसे राजनीतिक रूप से अहम राज्य में कांग्रेस काफी कमजोर हो गई. इन चुनावों के बाद देश की मीडिया ने बसपा और उसके प्रमुख नेताओं पर ध्यान देना शुरू कर दिया.
(कल्याणी शंकर की किताब पैंडोरा डॉटर्स से)