'आपको ही प्रधानमंत्री बनना पड़ेगा...', जब सोनिया गांधी से चीखकर बोले मणिशंकर अय्यर, फिर...

7-04-2024

18 मई 2004...दिन मंगलवार... वह दिन जिसे कांग्रेस पार्टी के सदस्य आसानी से भूल नहीं पाएंगे. पार्टी के लगभग 200 सांसद संसद के प्रकोष्ठ में प्रतीक्षा कर रहे थे कि सोनिया गांधी आकर अपने निर्णय की घोषणा करें.

जब वह अपने बच्चों राहुल और प्रियंका के साथ आईं, जिनके चेहरे पर गंभीरता छाई हुई थी. कुछ लोगों को लगा कि खबर अच्छी नहीं होगी. सोनिया अपना पोर्टफोलियो लिए आईं. जिसमें सैकड़ों नेताओं की ओर से, जिन्होंने कांग्रेस पार्टी को प्रोत्साहित किया था कि सोनिया को इस काम पर लगाएं, समर्थन के पत्रों की भरमार थी. यह एक परंपरा थी जिसको पहले के सभी प्रधानमंत्रियों ने माना था. अधिकांश नेता आशावादी थे कि इतने दबाव के बाद अंततः वे मान ही जाएंगी.

सोनिया आकर अपने कई पुराने साथियों का अभिवादन करती हैं और माइक्रोफोन तक पहुंचती हैं. सन्नाटा छाया हुआ था. वह अपने कागज पढ़ने का चश्मा लगाकर घोषणा करती हैं- 'पिछले छह वर्षों से, जबसे मैं राजनीति में हूं, एक बात मेरे लिए सदा स्पष्ट रही है. और वह यह है जिसे मैं कई बार कह चुकी हूं कि प्रधानमंत्री का पद मेरा कभी लक्ष्य नहीं रहा है. मैं सदा सोचती थी कि यदि कभी मैं उस स्थिति में आई, जिसमें आज मैं हूं, तो मैं अपनी अंतरात्मा की आवाज ही सुनूंगी.' वह थोड़ा रुकीं और अपने बच्चों की तरफ देखा, 'और आज वह आवाज कहती है कि मैं पूरी विनम्रता से इस पद को स्वीकार नहीं करूं.'

(Photo Credit: AFP)

इस ऐलान के होते ही कमरे में शोर भर गया. सोनिया ने सबको शांत रहने को कहा लेकिन कोई मानने को तैयार नहीं था. 'आप हमें अब छोड़ नहीं सकतीं.' कुछ चिल्लाकर बोले- 'आप भारत की जनता को धोखा नहीं दे सकतीं.' राजीव के पुराने दोस्त और वरिष्ठ नेता मणिशंकर अय्यर ने चीखकर कहा- 'लोगों की अंतरात्मा की आवाज कहती है कि आपको ही अगला प्रधानमंत्री बनना पड़ेगा.'

'मैं आपसे प्रार्थना करती हूं कि मेरे निर्णय का सम्मान करें.' सोनिया ने ढृढ़ता से कहा. लोग फिर भी उन्हें रोकते रहे.

'मैडम! यदि आप उस पद पर नहीं होंगी, तो हमारे लिए कोई प्रेरणा नहीं रहेगी.'

एक दर्जन सांसद बारी-बारी से अपना भाषण देने आए, जिनमें उन्होंने उनके पति और उनकी सास की सार्वजनिक सेवाओं का हवाला दिया.

फोटो क्रेडिट- AFP

दो घंटे तक सोनिया के अटल निर्णय और सांसदों की व्याकुलताओं के बीच गर्मागर्म बहस चलती रही. कुछ ने तो भाषण में उन पर अहंवादी होने का भी दोष मढ़ा और कुछ ने इतने सत्तावान पद को ठुकराने की उनकी त्यागवृत्ति की प्रशंसा भी की. कुछ ने उन पर आरोप लगाए कि वह लाखों भारतीयों के जनादेश का अनादर कर रही हैं. सोनिया चुपचाप उनकी बातें सुनती रहीं, पर गरिमामयी सोनिया ने उनसे स्पष्ट कह दिया कि अब वे अपने निर्णय पर पुनर्विचार नहीं कर सकती. सांसदों ने उन्हें एक ज्ञापन भी दिया. पर सोनिया ने कहा कि यह संभव नहीं है. आप लोगों ने मेरे इस निर्णय पर अपनी बात, दृष्टिकोण, अपने दुख और संत्रास व्यक्त कर दिए हैं. यदि आप लोगों को मुझ पर भरोसा है, तो मेरी बात कायम रखें.'

कइयों को 1999 की वह घटना भी याद आई, जब सोनिया ने पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया था, लेकिन बाद में नेताओं की बात मान ली थी. समय बीता जा रहा था. नियमों के अनुसार एक हफ्ते में सरकार बन जानी चाहिए थी. यूपी के एक सांसद ने कहा- मैडम आपने वो मिसाल कायम की है, जैसी पहले महात्मा गांधी ने की थी. उनका हवाला था कि जब स्वतंत्रता के बाद भारत की पहली सरकार बनी तो गांधी जी ने भी सरकार का हिस्सा बनने से साफ इनकार कर दिया था, लेकिन तब गांधी जी के पास जवाहर लाल नेहरू थे. अब कोई नेहरू कहां है?

फोटो क्रेडिट- AFP

सोनिया ने इस बीच मनमोहन सिंह का नाम भी नहीं लिया. वह तुरुप का पत्ता उनके पास अभी था. जब वह सारे सांसदों को हताश और उदास छोड़कर चली गईं, तो प्रेस वालों ने उनके बच्चों को घेर लिया. हाल में सांसद चुनकर आए राहुल ने कहा- मैं तो चाहूंगा कि मेरी मां प्रधानमंत्री बनें. परंतु उनके पुत्र के रूप में मैं उनके निर्णय का आदर करता हूं.

कांग्रेस के सदस्य इतनी आसानी से कहां हार मानने वाले थे. जब सोनिया घर पहुंचीं तो घर पर भी पूरी भीड़ जमा थी, जो यही मांग कर रही थी कि वे अपना निर्णय बदल लें. कुछ चीख रहे थे और कुछ रो भी रहे थे. जब वे घर के अंदर पहुंचीं तो एक दूसरी चुनौती उनके सामने थी- सीडब्ल्यूसी के सदस्यों और अन्य सहयोगियों के पत्रों का पहाड़ उनका इंतजार कर रहा था. जिनका कहना था कि यदि वह यह पद स्वीकार नहीं करतीं, तो वे सब एक साथ इस्तीफा दे देंगे. बाहर सड़क पर एक अनुयायी ने वहीं अपनी नस काटने की धमकी दी, पर पुलिस द्वारा उस पर काबू पा लिया गया. लग रहा था मानो नई दिल्ली पर पागलपन छा गया था.

पर इस खींचतान में सोनिया ने हार नहीं मानी, अपनी पार्टी के साथ-साथ सहयोगियों को मना लिया गया कि वे लोग ऐसे प्रधानमंत्री के लिए राजी हों जो गांधी परिवार का न हो. अंततः सब उनकी बात मान गए. राष्ट्रपति भवन में अब एक छोटे से समारोह का दृश्य उपस्थित हुआ, जो बड़ा ही अर्थपूर्ण था. और इस उठापटक वाले सप्ताह में सत्ता के संकट को विराम मिला. तीन दिनों के अपने ढृढ़ निश्चय और पार्टी के सदस्यों के दबाव के मध्य संघर्ष के बाद 22 मई 2004 को सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति कलाम द्वारा डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण कराते हुए देखा.

शपथ ग्रहण के पश्चात मनमोहन सिंह सोनिया के पास आए, थोड़ा सिर झुकाए हुए एक ऐसी भंगिमा लिए, जिससे मालूम पड़ता था कि उनके बीच एक समझौता हो चुका है. मानों वह स्पष्ट करना चाह रहे हों कि शासन तो उनका है, पर राज सोनिया का है.

अब इस उन्मादी सप्ताह के बाद वह आराम करने की सोचती हैं. लेकिन अपने कमरे में जाने के पूर्व वह स्टडी रूम में जाती हैं. थोड़ी देर अपने पति की तस्वीर को निहारते हुए वे वहीं खड़ी रहीं. अपनी आंखें बंद कर मन एकाग्र करती रहीं, जब तक कि उनकी तस्वीर मन में नहीं उभर आई. यह सब उन्हें विगत के उस बीते हुए जमाने की सर्वोत्तम स्मृतियों के बीच में ले जाते हैं...

-स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की किताब 'द रेड साड़ी' से...