तारीख 14 दिसंबर, साल- 1997, जगह- 10 जनपथ, सोनिया गांधी का आवास और बाहर बैठीं ममता बनर्जी... मुलाकात के लिए ममता बनर्जी को कुछ समय मिलता है और इस दौरान सोनिया गांधी और ममता बनर्जी में काफी देर तक बातचीत होती है. ममता इस दौरान सोनिया गांधी से पदभार (कांग्रेस अध्यक्ष) संभालने की गुहार लगाती हैं, हालांकि सोनिया गांधी सभी बातों को गौर से सुनती हैं लेकिन उन्हें अपने मन की बात बताने से इनकार कर देती हैं. कांग्रेस से पूरी तरह निराश होकर ममता वापस कोलकाता लौट आती हैं और यहीं से शुरू होती है भारतीय राजनीति के इतिहास में एक नया अध्याय लिखने की शुरुआत...
Pandora's Daughters में पत्रकार कल्याणी शंकर बताती हैं कि इस मुलाकात के लिए ममता को खुद सोनिया गांधी ने बुलाया था. जिसके बाद वह अपने करीबी सहयोगी अजीत पांजा और सुदीप बंद्योपाध्याय के साथ दिल्ली पहुंची थीं. राजीव गांधी की हत्या के बाद ममता अक्सर सोनिया गांधी से मिलने जाती थीं जिसके बाद दोनों में एक अच्छी बॉन्डिंग हो गई. इस बार मुलाकात के दौरान एक बार फिर ममता ने उन्हें आगे आकर पार्टी का नेतृत्व करने के लिए मनाने की कोशिश की.

ममता के मुताबिक, मुलाकात के दौरान सोनिया गांधी ने कहा, 'मैं अध्यक्ष नहीं बन सकती. मैं विदेशी हूं. हर कोई मुझे स्वीकार नहीं करेगा.' अपनी तरफ से सोनिया ने ममता को नई पार्टी शुरू करने से रोका. उधर ममता बनर्जी गांधी परिवार के प्रति अपनी वफादारी और अपनी राजनीतिक मजबूरियों के बीच फंसी हुई थीं.
इस बीच सोनिया गांधी ने कांग्रेस महासचिव ऑस्कर फर्नांडिस को ममता के साथ बैठकर एक नोट तैयार करने को कहा. लेकिन इस बैठक से कुछ हल नहीं निकला तो ममता को एहसास हुआ कि नई पार्टी के रजिस्ट्रेशन की आखिरी तारीख 17 दिसंबर है और यह उन्हें चुनाव आयोग में पर्चा दाखिल करने से रोकने की एक चाल थी. वह सभी परिस्थितियों से अच्छी तरह वाकिफ हो चुकी थीं. उन्होंने समझदारी से काम लेते हुए पहले ही नई पार्टी के गठन की प्रक्रिया पर काम करना शुरू कर दिया और पार्टी के चिह्न, संविधान और कागजी कार्रवाई करने में जुट गईं.
चूंकि ममता और उनके सहयोगी खुद को "असली कांग्रेस" मानते थे, इसलिए संविधान कांग्रेस के संविधान की तर्ज पर बना रहे थे. 17 दिसंबर, 1997 को एक ही दिन में कई घटनाएं घटित हुईं. सोनिया गांधी की ओर से पर्चा दाखिल न करने का दबाव आ रहा था. यहां तक कि कांग्रेस ने ममता के भाई को अप्रोच किया और उनके माध्यम से ममता को मनाने की कोशिश की गई तांकि वो कोई नहीं पार्टी ना बनाए.
ममता तय कर चुकी थीं कि वो नई पार्टी तृणमूल के लिए पर्चा दाखिल करेंगी और दस्तावेज चुनाव आयोग के बॉक्स में डाल दिए जाएंगे. ममता जानती थीं कि कांग्रेस कोई और चाल चल सकती है इसलिए यह कांग्रेस की किसी भी चाल से बचने के लिए चतुराई से उठाया गया कदम था. ममता को अभी भी उम्मीद थी कि कांग्रेस के साथ कोई समझौता हो जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
19 दिसंबर को सुबह 10.30 बजे ममता बनर्जी को सोनिया गांधी का बुलावा आता है. सोनिया के आवास पर एक बैठक हुई और एक प्रस्ताव पर सहमति तो बनी लेकिन इसे लेकर कोई घोषणा कभी नहीं हुई. इसके बजाय, हैदराबाद पहुंचे कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने ठीक इसके विपरीत बयान देते हुए कहा कि ममता जी को अभियान समिति के संयोजक के रूप में चुना गया है. यह उनकी ओर से फेंका गया आखिरी पासा था.


फाइनली ममता और उनके सहयोगियों ने 22 दिसंबर, 1997 को नई पार्टी बनाने का अंतिम फैसला कर लिया, जिसे उन्होंने तृणमूल (ग्रासरूट) कांग्रेस नाम दिया. जब ममता बनर्जी प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रही थीं तो उन्हें खबर मिली कि उन्हें और उनकी पार्टी के लोगों को कांग्रेस से निकाल दिया गया है. यह दशकों पुरानी पार्टी में उनके कार्यकाल का अंत था.

1 जनवरी 1998 को तृणमूल कांग्रेस की शुरूआत हुई और बंगाल की राजनीति में एक नए दल के साथ नए नेता का उदय हुआ. ममता ने शुरूआत से पार्टी पर कड़ी पकड़ रखी. अजीत पांजा कहते थे, 'ममता की पूजा उनके चरित्र के कारण नहीं बल्कि उनके व्यक्तित्व के कारण की जाती है. ममता के साथ समस्या यह है कि वह उम्मीद करती हैं कि हर कोई उनके जैसा हो.'
नई पार्टी के गठन के कुछ ही दिनों बाद से ममता बनर्जी समता पार्टी के अध्यक्ष जार्ज फर्नाडीज के दिल्ली स्थित सरकारी आवास (3 कृष्णा मेनन मार्ग) पर अक्सर आती-जाती नजर आने लगीं. जब फरवरी में लोकसभा चुनाव होने लगे, तब ममता भी समता के रास्ते जाती दिखीं. अब उनका गठबंधन भारतीय जनता पार्टी के साथ हो चुका था. और पहले ही लोकसभा चुनाव में पार्टी को सात सीटें मिली जो उस समय बहुत बड़ी जीत थी.
दरअसल ममता ने कांग्रेस को छोड़ने का फैसला यूं ही नहीं किया. इसकी शुरूआत 1996 में हो चुकी थी, जब ममता बंगाल यूथ कांग्रेस की अध्यक्ष थी. ममता की नजर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर थी लेकिन तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने अपने चेहते सोमेन मित्रा को पश्चिम बंगाल प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया. सोमेन को ममता इसलिए पसंद नहीं करती थी क्योंकि उनके वामपंथियों के साथ मित्रवत संबंध थे. इसके बाद 1997 में कोलकाता में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) सत्र के दौरान कांग्रेस में बगावत साफ हो गईं.

कोलकाता के नेताजी इंडोर स्टेडियम में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) के अधिवेशन के दौरान कांग्रेस में बगावत साफ हो गई. ‘Pandora's Daughters में पत्रकार कल्याणी शंकर लिखती हैं, 'मैं इस कार्यक्रम को कवर करने गई थी और 9 अगस्त 1997 के एआईसीसी सत्र के दौरान जो कुछ हुआ वो मैंने खुद देखा. कांग्रेस में भी वर्किंग कमेटी के चुनाव थे. बैठक की अध्यक्षता सीताराम केसरी ने की, लेकिन असली खबर स्टेडियम के बाहर ममता द्वारा आयोजित एक रैली को लेकर थी. "इनडोर बनाम आउटडोर" एक बड़ा विवाद बन गया. दूसरी बड़ी खबर सोनिया गांधी की मौजूदगी की थी, जो तब तक सियासत से दूर रही थीं. अटकलें लगाई जा रही थीं कि वह जल्द ही राजनीति में एंट्री कर सकती हैं, हालांकि उन्होंने सत्र के दौरान मंच पर बैठने से भी इनकार कर दिया. प्रतिनिधियों के जोर देने पर वह सात मिनट का छोटा भाषण देने के लिए सहमत हो गईं. उन्हें ममता की रैली को भी संबोधित करना था लेकिन ऐसा नहीं हुआ. सीताराम केसरी ने ममता को रैली करने से रोकने की पूरी कोशिश की और कई कांग्रेस नेताओं को उन्हें मनाने भेजा, लेकिन ममता अपनी जिद पर अड़ी रहीं.'
एक तरफ इंडोर स्टेडियम में कांग्रेस का अधिवेशन चल रहा था तो दूसरी तरफ ममता की रैली में हजारों की संख्या में लोग उमड़ रहे थे. भीड़ देखकर ममता गदगद दिखीं और उन्होंने ऐलान किया 'हमारी रैली में आनेवाले लोग ही असली ग्रासरूट कांग्रेस वर्कर हैं.' बहरहाल रैली भी खत्म हो गई और कांग्रेस का अधिवेशन भी. लेकिन इसके बाद सोमेन मित्रा और ममता बनर्जी की लड़ाई सतह पर आ गई.
दोनों तरफ से होने वाली रोज़-रोज़ की बयानबाज़ी से यह साफ हो गया कि ममता बनर्जी के अब कांग्रेस पार्टी में गिनती के दिन बचे हैं. और दिंसबर 1997 में ये साफ हो गया कि ममता अब पार्टी में नहीं रहेंगी. तमाम बैठकें हुईं, ममता को मनाने की कोशिशें की गईं लेकिन वह नहीं मानीं और अंतत: 1 जनवरी 1998 को उन्होंने तृणमूल कांग्रेस नाम से अपनी नई पार्टी बना ली.