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कहानी सूर्यदेव कीः जिनके जन्म लेते ही डरकर भाग गए थे राक्षस, शिवजी ने त्रिशूल से कर दिए थे तीन टुकड़े

अभी कुछ देर पहले तक तो काफी रौशनी थी, सब कुछ साफ-साफ नजर आ रहा था. अब ये अचानक क्या हो गया? धीरे-धीरे ये उजाला कम होता गया और फिर अब तो अंधेरा इतना है कि हाथ को हाथ नहीं सूझता. ऐसा क्यों हुआ? ये भी कोई एक दिन की बात तो नहीं. कल भी ऐसा हुआ था, परसों भी और उससे पहले भी. क्या अब आने वाले कल भी ऐसा ही होने वाला है? पहले रौशनी और फिर धीरे-धीरे अंधकार.

सूर्य की किरणों से प्रकाशित है ऋग्वेद

संभव है कि ये कुछ वही सवाल रहे होंगे, जो वैदिक लोगों ने हर रोज, रात और दिन होते देखने के बाद महसूस किए होंगे और फिर एक-दूसरे की भी जिज्ञासाओं और अनुभवों को सुनकर कोई निष्कर्ष निकाला होगा. इस निष्कर्ष में इस बात का जवाब सामने आया होगा कि दिन के उजाले की वजह आसमान में सोने की तरह चमकता, आग जैसा दहकता एक सुनहरा पिंड है. यह गोलाकार पिंड आसमान में दिखना शुरू होता है, लिहाजा रौशनी फैलती जाती है और फिर जैसे ही ये पिंड आसमान में ही छिपना शुरू होता है, इसके पीछे-पीछे अंधकार फैलता चला आता है. 

ऋग्वेद के दशम मंडल में ही हिरण्यगर्भ सूत्र लिखा गया है.
हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ (सूक्त- ऋग्वेद -10-121-1)

क्या है हिरण्यगर्भ सूत्र?

यह सूत्र श्लोक ब्रह्मांड के उत्पन्न होने की कहानी कहता है. वेदों में यहीं पहली बार 'हिरण्यगर्भ' शब्द का इस्तेमाल हुआ है, जिसका अर्थ है ब्रह्मांड रूपी अंडा. ये श्लोक कहता है कि जब कहीं पर कुछ भी नहीं था तो जीवन एक अंडे नुमा पिंड के भीतर था. यह श्लोक बिगबैंग जैसी थ्योरी का भी संकेत देता है. इसी पिंड में विस्फोट से ब्रह्मांड के सभी तत्व बने. धरती, जल, अग्नि, आकाश और वायु के ही साथ-साथ चंद्रमा और सूर्य. 

सूर्यः वैदिक काल का पहला देवता

सूर्य, जो अकेला ही धरती के लिए प्रकाश-गर्मी और एनर्जी का सोर्स है और वैदिक काल के लोगों द्वारा पहचाना गया सबसे पहला देवता भी है. सुनहरे, उजले और आग की तरह दहकते हुए रंग के कारण ही सूर्य को अपना सबसे पहला नाम हिरण्यगर्भ मिला है. हिरण्य शब्द का अर्थ सुनहरा होता है. ऋग्वेद के हिरण्यगर्भ सूत्र के पहले श्लोक में सूर्य को धरती और आकाश को धारण करने वाला बताया गया है, और इसी रूप में उसकी उपासना करने के लिए भी कहा गया है.

कैसे हुआ सूर्य का जन्म?

ये तो हुई सूर्य की उपासना की बात, लेकिन सूर्य का जन्म कैसे हुआ? इस सवाल का जवाब विष्णु पुराण के लिखे हुए एक घटनाक्रम से मिलता है. विष्णु पुराण की कथा कहती है कि जब कहीं कुछ था ही नहीं, तब उस विराट पुरुष (पुराणों में भगवान विष्णु को पहले विराट पुरुष कहा गया है) की इच्छा से दूध जैसा सफेद एक सागर बना. उस क्षीर सागर में पीपल का पत्ता बना और इसी पत्ते पर एक शिशु लेटा हुआ दिखा. यह शिशु अपनी ही इच्छा से विकसित होता गया और पूर्ण पुरुष बन गया. उसके चार हाथ थे और सिर पर नागों की छाया थी. उस विराट पुरुष ने आंखें खोलीं तो नेत्रों से निकला प्रकाश सूर्य बन गया. मन से बना चंद्रमा. कानों से ध्वनि और उसकी सांस लेने की इच्छा के कारण ही ब्रह्नांड प्राण वायु से भर गया. 

यजुर्वेद में इस पूरी प्रक्रिया का वर्णन इस श्लोक में हुआ है.
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत,
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च हृदयात्सर्वमिदं जायते.
भावः उस विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा,चक्षु (आंखों) से सूर्य, श्रोत्र से वायु तथा प्राण और हृदय से यह सम्पूर्ण जगत उत्पन्न हुआ.

क्यों कहे जाते हैं सूर्य नारायण?

भगवान विष्णु की आंखों से उत्पन्न होने के कारण ही सूर्यदेव उनके ही नाम नारायण से जाने जाते हैं, इसीलिए संसार में उन्हें सूर्य नारायण कहा जाता है. यह भी कहते हैं कि सूर्य को नमस्कार करना,उसकी पूजा करना असल में भगवान विष्णु की ही पूजा-उपासना है. 

आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम्,
सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रति गच्छति.
(आकाश से गिरा हुआ जल, जिस तरह सागर में ही जाता है. सभी देवताओं को किया गया नमस्कार, केशव यानी नारायण को ही पहुंचता है)

इसके अलावा ब्रह्म पुराण भी सूर्य के शक्तिशाली प्रभाव और उनके ऐश्वर्य को स्वीकार करता है. ब्रह्मपुराण कहता है,
मानसं वाचिकं वापि कायजं यच्च दुष्कृतम्,’
सर्व सूर्य प्रसादेन तदशेषं व्यपोहति.

यही वजह है कि देवताओं में सूर्य को सबसे श्रेष्ठ और नारायण की तरह ही सम्मानित बताया जाता है. हालांकि देवताओं के राजा इंद्र हैं. पुराण कहानियां कहती हैं कि इस पद अलग-अलग समय पर अलग-अलग इंद्र रहे हैं. सूर्य को उन देवताओं में शामिल बताया जाता है जो कि इंद्र की सभा में बैठते हैं. इसके बावजूद कई कहानियां ऐसी हैं कि, जिनमें सूर्य की जगह देवताओं में सबसे अलग और ऊंची रही है. 

सूर्य के जन्म की एक और कथा

इन सभी कहानियों में एक कहानी तो सूर्य के जन्म की ही है, जिसमें सूर्य को सभी देवताओं के रक्षक के रूप में बताया गया है. कहानी के मुताबिक एक बार देवों की लड़ाई दैत्यों के साथ हो गई. दैत्य जीत गए और देवताओं को भागना पड़ा. तब सभी देवता अपनी मां अदिति के पास गए. अदिति ने उनकी परेशानी सुनी तो वह सूर्य की उपासना करने लगीं. सूर्यदेव प्रकट हुए तब अदिति ने उनसे पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान मांगा. सूर्य ने उन्हें अपनी मां बनने का वरदान दे दिया. अदिति के बेटे के रूप में जन्म लेने के कारण सूर्य का एक नाम आदित्य भी है. 

आदित्यों में सबसे बड़े सूर्य

अदिति के इंद्र समेत 12 बेटे हैं. इन सभी को आदित्य कहा जाता है, लेकिन कई जगहों पर सूर्य को इन आदित्यों में सबसे बड़ा भाई गिना जाता है. हालांकि फिर भी देवताओं का राजा इंद्र है, सूर्य नहीं, लेकिन सूर्य को उनके त्याग, तप, लगातार जलते और तपते रहने की उनकी विशेषता के कारण उन्हें ईश्वर के बराबर का दर्जा मिला है. सूर्य के जन्म की इस कथा का वर्णन ब्रह्मांड पुराण में मिलता है, जिसमें ब्रह्मांड के बनने की व्याख्या की गई है. 

मार्तंड कैसे पड़ा सूर्य का नाम

इसी पुराण में सूर्य का एक नाम मार्तंड भी लिया गया है. मार्तंड को आप मातृ अंड कह सकते हैं. असल में जब अदिति ने सूर्य उपासना करके उन्हें गर्भ में धारण कर लिया तो वह हर दिन सूर्य देव की उपासना में कठिन व्रत करने लगीं. एक दिन उनके पति कश्यप ऋषि ने उन्हें समझाते हुए कहा कि इतने कठिन व्रत-अनुष्ठान गर्भस्थ शिशु के लिए ठीक नहीं हैं. ऐसे में अदिति ने अंड रूप में गर्भ में पल रहे शिशु को योगबल से बाहर निकाला. वह एक दहकते, सुनहले आग के पिंड के रूप में जन्मे और जब वह जन्मे तो संसार रौशनी से भर गया. इस तेज पिंड से डरकर दैत्य भाग खड़े हुए और स्वर्ग पर देवताओं का अधिकार फिर से हो गया. सूर्य अपने इसी अंडज रूप में आकाश में स्थापित हो गए, जिसका दर्शन हमें हर रोज होता है. 

कालचक्र का प्रतीक है सूर्य का रथ

इसी तेज पुंज से निकला मानव रूप ही इंद्र की सभा में सूर्यदेव के रूप में शामिल है, जो कि अलग-अलग कहानियों अलग-अलग किरदारों के रूप में सामने आते हैं. यह सात घोड़े वाले रथ पर सवार हैं. काल यानी समय निर्धारण के प्रतीक हैं. इनके रथ का पहिया ही कालचक्र है. यह दिन-रात के कारण हैं और मौसम, जलवायु, वर्षा के समय और उसकी मात्रा को भी तय करते हैं. वेदों में सूर्य के इसी रूप को विवस्वान नाम भी मिला है. 

गीता में क्या कहते हैं श्रीकृष्ण?

गीता में भी जब श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्मयोग का ज्ञान देते हैं तो वह बताते हैं कि मैं पहले भी यह ज्ञान कई लोगों को सिखा चुका हूं और जिन्होंने इसे समझ लिया वह मेरे हो गए, या फिर मेरा स्वरूप पा गए. इसके बाद वह बताते हैं सबसे पहले तो मैंने ये ज्ञान विवस्वान (सूर्य) को दिया. सूर्य ने कर्मयोग मनु को सिखाया और मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को इसका ज्ञान दिया. अब मैं यही ज्ञान तुम्हें देता हूं. लोगों को सिखा चुका हूं और जिन्होंने इसे समझ लिया वह मेरे हो गए, या फिर मेरा स्वरूप पा गए. इसके बाद वह बताते हैं सबसे पहले तो मैंने ये ज्ञान विवस्वान (सूर्य) को दिया. सूर्य ने कर्मयोग मनु को सिखाया और मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को इसका ज्ञान दिया. अब मैं यही ज्ञान तुम्हें देता हूं. 

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्,
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्. (श्रीमद भगवद्गीता, 4.1)

ऐसे हुई सूर्य कुल की स्थापना

विष्णु पुराण के अनुसार, हरि इच्छा से उनकी नाभि से कमल खिला. इसी कमल में पराग कणों के रूप में ब्रह्मा का विकास हुआ. कमल के मूल में पड़े बीज से शिव की उत्पत्ति हुई. ब्रह्मा के पुत्र मरीचि हुए, मरीचि से कश्यप का जन्म हुआ और कश्यप के पुत्र विवस्वान सूर्य हुए. विवस्वान से मनु का जन्म हुआ. विवस्वान का पुत्र होने के कारण मनु को वैवस्वत मनु कहा जाता है. मनु से इक्ष्वाकु जन्मे और इस तरह कुलों में सबसे कुलीन सूर्य कुल या सूर्यवंश की स्थापना हुई. 

क्या सूर्य के पुत्र वैवस्वत मनु अलग हैं?

यहां एक कन्फ्यूजन ये हो सकता है कि, मनु का जन्म तो ब्रह्माजी के अंश से हुआ है और उनकी पत्नी शतरूपा हैं तो फिर सूर्य के पुत्र मनु कैसे हुए हैं. असल में समय की गणना, सिर्फ वर्षों और शताब्दियों और युगों तक सीमित नहीं है, बल्कि इनका फैलाव कल्प और मन्वंतर तक हुआ है. हर मन्वंतर के अलग-अलग मनु हुए हैं और ऐसा हो सकता है कि सबके समय-समय में पुराण कथाएं भी अलग-अलग रही हैं. इसकी बानगी राम चरित मानस में भी मिलती हैं, जब शिवजी की पत्नी सती त्रेतायुग में जाकर श्रीराम की परीक्षा लेती हैं, जबकि रामजन्म तब हुआ ही नहीं था. इससे नाराज शिव सती का त्याग कर देते हैं और सती अपने पिता दक्ष के यज्ञ में खुद को भस्म कर लेती हैं. बाद में इन्हीं सती का जन्म पार्वती के रूप में होता है, जो शिवजी से विवाह करती हैं और खुद कई मौकों पर रामकथा का हिस्सा भी बनती हैं. इसलिए ब्रह्ना के पुत्र मनु और सूर्य के पुत्र मनु को अलग-अलग समझा जा सकता है. फिर भी न समझ आए तो ऋग्वेद की बात याद रखनी चाहिए, 'एकं सत विप्रः बहुधा वदंति.'

जब हुआ सूर्यदेव और शिवजी का युद्ध

खैर, सूर्यदेव की बात करते-करते शिवजी का जिक्र चला आया है तो यहां एक कहानी का जिक्र और जरूरी हो जाता है. कथा है शिव और सूर्य के युद्ध की. पुराण कथाओं में वर्णन है कि एक बार सूर्यदेव और शिव में भयंकर युद्ध भी हुआ था. इस युद्ध की वजह बना था रावण का नाना सुमाली. पुराणों में शामिल दसवां पुराण ब्रह्मवैवर्त पुराण में यह कहानी दर्ज है. 

क्यों आमने-सामने आए शिवजी और सूर्य

हुआ कुछ यूं कि एक बार माली-सुमाली ने भगवान शिव से रक्षा और खुद पर उनकी कृपा बनी रहने का वरदान मांग लिया. इस वरदान के बाद दोनों क्रूरता दिखाने लगे. धरती पर हाहाकार मचाने के बाद दोनों आकाश की ओर बढ़े, जहां सूर्यदेव ने उनका रास्ता रोका. इस पर दोनों सूर्य से ही युद्ध करने लगे. सूर्य के अमोघ अस्त्रों के आगे उनकी एक नहीं चली तो उन्होंने वरदान के तहत महादेव को पुकारा. वरदान में बंधे शिव को आना पड़ा. इस तरह सूर्य और शिव आमने-सामने हो गए.

शिव ने किया सूर्य पर प्रहार

शिव को रोकना असंभव था और अगर न रोका जाता तो माली-सुमाली आकाश की ओर बढ़ सकते थे. इसलिए सूर्यदेव को भगवान शिव से युद्ध का निर्णय लेना पड़ा. माली-सुमाली पर हुए सूर्य के प्रहार को रोकने के लिए शिव ने उन पर त्रिशूल चला दिया. इससे सूर्य चेतनाहीन हो गए और उनके तीन टुकड़े हो गए.पहला टुकड़ा जहां गिरा वहां आज कोणार्क सूर्य मंदिर है. यह मंदिर ओडिशा में है.
दूसरा टुकड़ा जहां गिरा वहां आज देवार्क सूर्य मंदिर है. यह मंदिर बिहार में मौजूद है.
तीसरा टुकड़ा जहां गिरा वहां आज लोलार्क सूर्य मंदिर है. यह मंदिर यूपी में काशी के पास है.
 
सूर्य के पिता ऋषि कश्यप ने दिया शिवजी को श्राप

सूर्य के चेतनाहीन होने से उनके पिता कश्यप क्रोधित हो गए और उन्होंने महादेव शिव को श्राप दिया कि जिस तरह आपने मेरे पुत्र पर त्रिशूल प्रहार किया है, ठीक इसी तरह एक दिन आपको अपने पुत्र पर त्रिशूल चलाना होगा. इसी श्राप के कारण भगवान शिव को बालगणेश का मस्तक काटना पड़ा था. 

रामायण-महाभारत में सूर्य पूजा

सूर्य देव की पूजा के स्पष्ट प्रावधान भी रामायण और महाभारत में भी मिलते हैं. रामायण में जहां श्रीराम का कुल ही सूर्यवंश है तो वहीं महाभारत में सूर्य खुद एक किरदार निभाते नजर आते हैं. कर्ण हर रोज गंगा स्नान के बाद सूर्यदेव को जल चढ़ाता था. वह कमर तक पानी में खड़े रहकर उनकी उपासना के मंत्र पढ़ता था. कुंती, द्रौपदी, पितामह भीष्म, यहां तक खुद कृष्ण भी सूर्यपूजा करते दिखते हैं.

कृष्ण के पुत्र साम्ब से जुड़ी सूर्य की कहानी

सूर्यपूजा और उनकी  लंबी तपस्या की एक कहानी तो कृष्ण पुत्र साम्ब से जुड़ी है. श्रीकृष्ण और जाम्बवंती का बेटा सांब दिखने में बिल्कुल कृष्ण के ही जैसा था. अपनी इसी छवि का फायदा उठाते हुए वह कई लड़कियों को अपने झूठे प्रेम जाल में फंसा लेता था. एक दिन कृष्ण को जब यह पता चला तो उन्होंने सांब को समझाने की कोशिश की. साम्ब नहीं माना तो गुस्साए कृष्ण ने उसे कोढ़ी होने का श्राप दे दिया. 

बिहार में है सांब का बनाया सूर्य मंदिर

श्राप मिलने के बाद सांब ने माफी मांगी तब कृष्ण ने उसे सूर्य की तपस्या की राह दिखाई. उन्होंने कहा कि सूर्य ही जगत का आधार हैं और सभी प्राणियों की चेतना भी वही हैं. रोग और व्याधि की औषधि भी वही हैं. इसलिए सूर्यदेव को प्रसन्न करो. साम्ब ने पूरे भारत में भ्रमण करते हुए सूर्यदेव की तपस्या की और उनके मंदिर भी बनवाए. बिहार के उलार (ओलार्क) में भी सांब का स्थापित एक सूर्य मंदिर आज भी है. 

देश के कई प्रदेशों में है सूर्य मंदिर

गुजरात के मोढेरा में भी प्रसिद्ध सूर्य मंदिर है, जो प्राचीनता की गवाही देता है. कश्मीर का मार्तंड सूर्य मंदिर काफी चर्चित रहा है, जो कि अब एक ध्वस्त संरचना है. इसके अलावा देश के कई इलाकों में सूर्य मंदिर हैं, जिनमें  कोणार्क सूर्य मंदिर, कटारमल सूर्य मन्दिर, रनकपुर सूर्य मंदिर, सूर्य पहर मंदिर, सूर्य मंदिर प्रतापगढ़, दक्षिणार्क सूर्य मंदिर, देव सूर्य मंदिर, औंगारी सूर्य मंदिर, बेलार्क सूर्य मंदिर, सूर्य मंदिर हंडिया, सूर्य मंदिर, गया, सूर्य मंदिर, महोबा, रहली का सूर्य मंदिर, सूर्य मंदिर झालावाड़, सूर्य मंदिर रांची. 

योग शास्त्र में सूर्यदेव

योग शास्त्र में भी सूर्यदेव प्रमुख स्थान रखते हैं. उनके नाम पर सबसे प्राचीन योग पद्धति सूर्य नमस्कार है जो मंत्र आधारित है. सूर्य के 13 पर्याय नामों से बने ये 13 मंत्र अपनी 13 क्रियाएं के साथ, पेट-पीठ, पैर, घुटने, जांघ, एड़ी, भुजाएं, गर्दन, सिर और सीना के साथ सभी जोड़ के लिए लाभदायक हैं. 

ॐ मित्राय नम: 
ॐ रवये नम:
ॐ सूर्याय नम: 
ॐ भानवे नम:
ॐ खगाय नम: 
ॐ पूष्णे नम:
ॐ हिरण्यगर्भाय नम: 
ॐ मरीचये नम:
ॐ आदित्याय नम: 
ॐ सवित्रे नम:
ॐ अर्काय नम: 
ॐ भास्कराय नम:
ॐ श्री सवित्रे सूर्यनारायणाय नमः

कुल मिलाकर ये है कि सूर्य वाकई ही इस संसार की आत्मा है. भारतीय जनमानस के लिए वह सिर्फ विटामिन डी का सोर्स नहीं है, बल्कि सकारात्मकता का पर्याय है. त्याग की भावना का उदाहरण है. खुद जलकर समस्त संसार को प्रकाशित करने का संकल्प है. अप्प दीपो भवः की प्रेरणा है. इसीलिए सूर्य वैदिक युग से लेकर आज तक प्रतिष्ठित है और भारतीय जनमानस को प्रेरित करता है कि हम थोड़ा ही सही, लेकिन सूर्य जैसा बनें.